मानवता को हलाल करती जानवरों की चर्बी की हॉरर स्टोरी

15-10-2024

मानवता को हलाल करती जानवरों की चर्बी की हॉरर स्टोरी

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

विषय टेलो और लार्ड कही जाने वाली चर्बी के विज्ञान का है। पर शुरूआत एक ऐसे विवादित मामले से करते हैं, जिसने भारत में भारी उहापोह मचा दिया था। संसद में कई दिनों तक इस मामले पर तनाव भरी चर्चा हुई थी। देश तो ठीक, विदेश के भी कई बड़े समाचार माध्यमों ने इसे गंभीरता से लिया था। 

यहाँ बात तिरुपति के लड्डू की नहीं, बल्कि आज से चालीस साल पहले बीफ़ टेलो यानी गाय की चर्बी का वनस्पति घी में किया जाने वाला ग़ैरक़ानूनी मिश्रण का पहली बार पर्दाफ़ाश हुआ था, उस घटना को यहाँ ताज़ा करते हैं। साल 1983 का था और महीना अगस्त का। वनस्पति घी बनाने वाले उत्पादक वनस्पति घी में जानवरों की चर्बी मिलाते हैं, यह सूचना मिलने पर भारत के खाद्य आपूर्ति विभाग ने 256 स्थानों पर अचानक छापा मार कर सेम्पल लिए और लैबोरेटेरी में उनकी जाँच कराई। इस जाँच में घी में गाय की चर्बी मिले होने के पुख़्ता प्रमाण मिले थे। मामला पहले अख़बारों में आया और फिर संसद तक पहुँचा। 

संसद के प्रश्नकाल के दौरान बीफ़ टेलो के बारे में कई दिनों तक चर्चा चली, जिसमें चौंकाने वाले आँकड़े बाहर निकल कर आए। साल 1982-83 में अपने यहाँ 1,15,68000 किलोग्राम बीफ़ टेलो आयात हुआ था। इसका अधिकतर हिस्सा भले विविध औद्योगिक क्षेत्रों में जैसे साबुन जैसी चीज़ें बनाने में उपयोग में लाया गया होगा, पर काफ़ी हिस्सा गुपचुप तरीक़े से वनस्पति घी में मिला दिया गया था। 

यह सरासर ग़ैरक़ानूनी ‘माल प्रैक्टिस’ थी। क्योंकि ‘प्रिवेंटेशन ऑफ़ फ़ूड एडल्ट्रेशन एक्ट-1954’ तथा ‘वेजिटेबल ऑयल प्रोडक्ट्स कंट्रोल ऑर्डर एक्ट-1947’, इन दोनों की क़ानूनी धाराओं के अनुसार खाद्य तेल/घी में बीफ़ टेलो या अन्य जानवरों की चर्बी मिलाने पर सख़्त पाबंदी थी। 

वनस्पति घी के उत्पादकों के इस गोरखधंधे का पर्दाफ़ाश हुआ तो इसका सीधा असर भारतीय बाज़ारों पर देखने को मिला। पहले तो वनस्पति घी की बिक्री बंद हुई, उसके बाद लोगों ने रेस्टोरेंट पर जाना बंद कर दिया। तब होटल और रेस्टोरेंट मालिकों को अपनी डूबती नैया बचाने के लिए दरवाज़े पर ‘हमारे यहाँ वनस्पति तेल/घी का उपयोग नहीं होता’ लिख कर बोर्ड लगाना पड़ा था। मंदिरों ने भक्तों का प्रसाद रूपी चढ़ावा स्वीकार करना बंद कर दिया था। हिंदू धर्माधिकारियों ने सलाह दी थी कि पहले अनजाने में खाया गया बीफ़ टेलोयुक्त अन्न धार्मिक भावना को बिगाड़ नहीं सकता। 

महीनों तक बीफ़ टेलो और मटन टेलो चर्चा और समाचारों में रहा। फिर धीरे धीरे हाशिए पर चला गया। आज तिरुपति के लड्डू ने एक बार फिर घी में जानवरों की चर्बी मिलाने का विवादित मुद्दा बन गया है। पर यहाँ जगज़ाहिर विवाद की चर्चा नहीं करनी है, बल्कि मुद्दे के मूल में स्थित बीफ़ टेलो, मटन टेलो और लार्ड कही जाने वाली चर्बी का विज्ञान समझाना है। घी जैसे पदार्थ में यह कैसे आसानी से मिल जाती है और किस लिए इसकी उपस्थिति जल्दी से परखी नहीं जा सकती, इसकी चर्चा करेंगे। 

प्रथम और प्रमुख सवाल: चर्बी यानी क्या? 

रसायन विज्ञान द्वारा इसके बारे में जानने के लिए पहले चर्बी को एक ऐसे ध्वजदंड के रूप में कल्पना कर लीजिए, जिस पर ध्वज लहरा रहा है। ध्वजदंड ग्लिपसरोल नाम के रासायनिक संयोजन से बना है तो ध्वज फ़ैटी एसिड का है। यह एसिड दूसरा कुछ नहीं, कार्बन के श्रेणीबद्ध अणुओं की हाइड्रोजन के साथ निश्चित रूप से मिलना है। कार्बन-हाइड्रोजन के बीच सम्बन्ध किस प्रकार का है, इसके आधार पर चर्बी को मुख्य दो वर्ग में विभाजित किया गया है। 1-सेच्युरेटेड अर्थात्‌ संतृप्त चर्बी और 2-अनसेच्युरेटेड चर्बी अर्थात्‌ असंतृप्त चर्बी। 

प्रथम प्रकार में कार्बन का हर अणु हाइड्रोजन के अणु के साथ सिंगल बांड (एकबंध) द्वारा जुड़ा होता है। रासायनिक संरचना की दृष्टि से संतृप्त कही जाने वाली यह चर्बी जो तैलीय पदार्थ में होती है, यह नॉर्मल रूम टंप्रेचर पर तरल स्वरूप में नहीं हो सकती। बटर, घी, नारियल का तेल, गाय का बीफ़ टेलो और सूअर की लार्ड चर्बी एसिड फैट है। 

अनसेच्युरेटेड यानी असंतृप्त चर्बी में कार्बन के तमाम अणु हाइड्रोजन के अणुव के साथ डबल बांड (द्विबंध) रच कर बने होते हैं। यह चर्बी अगर तैलीय पदार्थ में होती है तो अपने तरल स्वरूप को बनाए रखती है। उदाहरणस्वरूप मूँगफली का तेल, कपास, तिल आदि का तेल। 

एक बार ध्यान में रखें कि घी और चर्बी का प्रकार एक है। दोनों ही सेच्युरेटेड फैट के कुल से आते हैं। इसलिए एक दूसरे में ओतप्रोत हो जाने के बाद असली कौन और नक़ली कौन यह पता करना लगभग असंभव है। मिलावटी घी बनाने वाले उत्पादकों के लिए यही वरदान है। गाय की बीफ़ टेलो, भेड़ जैसे प्राणियों का मटन टेलो और सूअर की लार्ड टेलो का न कोई निश्चित गंध है और न स्वाद। इसीलिए इसमें बनी कोई भी चीज़ खाने वाले व्यक्ति की स्वादेन्द्रिय और घ्राणेन्दिय जानवर की चर्बी की हाज़िरी के बारे में जान नहीं पाती। उलटा इस तरह की चर्बी में बनी चीज़ और स्वादिष्ट लगती है। इसका कारण ख़ास समझने लायक़ है। 

किसी भी खाने की चीज़ को तलने या भूनने पर उसमें उपस्थित शर्करा और प्रोटीन मेलार्ड रिएक्शन नाम की प्रक्रिया से गुज़र कर लाली, कत्थई और कुरकुरा स्वरूप धारण करते हैं। पकोड़ा, पूरी, कटलेट, फ़्रैंच फ्राइज, समोसा-कचोरी आदि जैसी चीज़ें हमेशा कुरकुरी (क्रिस्पी) खाने में अच्छी लगती हैं। यह सब कितनी कुरकुरी बनें, यह तय करने वाला पहलू तलने के लिए उपयोग में लिए जाने वाले तेल के स्मोक प्वाइंट पर निर्भर है। परंपरागत रिफाइंड का स्मोक प्वाइंट 200 से 240 डिग्री सैल्सियस होता है। मतलब कि इतने तापमान पर तेल में मिली चर्बी कार्बनयुक्त काले धुएँ के स्वरूप में उत्सर्जन पाती है। परिणामस्वरूप चूल्हे पर तेल के धूम्रबिंदु की अपेक्षा कम गर्मी मिलनी चाहिए। 

तेल की अपेक्षा शुद्ध देसी घी का स्मोक प्वाइंट काफ़ी ऊँचा होता है यानी अधिक तापमान सह लेने वाले घी में भुनी तली चीज़ मेलार्ड रिएक्शन के कारण ख़ासी क्रिस्पी बन सकती है। स्वाभाविक बात यह है कि व्यावसायिक रूप से कोई भी चीज़ 600 से 800 रुपए किलो के भाव में शुद्ध देशी घी में बनी चीज़ बेचने में परता नहीं आएगा। इसलिए कुछ लोग चर्बी वाले सस्ते घी का उपयोग करते हैं। 80 रुपए किलो में मिलने वाला बीफ़/मटन टेलो वाला चर्बी मिश्रित घी क़ीमत में सस्ता पड़ता है, साथ में इसका स्मोक प्वाइंट 400 डिग्री सैल्सियस होने से इसमें बनी चीज़ मेलार्ड रिएक्शन के कारण विशिष्ट स्वाद, सुगंध और कुरकुरापन मिलता है। दाल फ़्राई पर बीफ़ टेलोयुक्त घी का तड़का जिसने खाया हो, उसे फिर कोई दाल पसंद नहीं आती। क्योंकि तड़का लगाते समय ऊँचे तापमान पर भुना प्याज़-लहसुन मेलार्ड रिएक्शन के समय क्रिस्पी होने के अलावा सहज मधुरता धारण कर चुका होता है। 

अब आगामी वर्णन जुगुप्सा पैदा करे तो साॅरी पर बीफ़/मटन/लार्ड जैसी जानवरों की चर्बी कैसे प्राप्त की जाती है, यह जाने बिना चर्चा का समापन नहीं किया जा सकता। मानवता को हलाल करती क्रूर पद्धति कुछ इस प्रकार है:

उपर्युक्त तीनों चर्बी का स्रोत गाय, भेड़, गधा-घोड़ा और सूअर हैं। इस तरह के जानवर को काट कर उनका पेट, पेडू और मूत्रपिंड (किडनी) जैसे अवयवों के इर्द-गिर्द जमा चर्बी के लिए वहाँ के मांस को छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है। उस मांस को एक बरतन में चूल्हे पर गरम करने से चर्बी ऊपर आ जाती है। 

इस चर्बी को दानादार घी बनाने के लिए इसे तेज़ी से मथा जाता है। ऐसा करने से चर्बी के कण आपस में रगड़ कर दाना बनाने लगते हैं और अंत में लचकदार टेलो हो जाता है। इसीलिए शुद्ध घी में इसे मिला देना बहुत आसान है। 

लेकिन असली घी में इसकी परख थोड़ा मुश्किल काम है। सामान्य लोगों के लिए असंभव ही है, पर विज्ञान द्वारा हेल्फथन टेस्ट और मिथाइलिन टेस्ट नाम की दो पद्धतियों द्वारा घी में जानवर की चर्बी की मिलावट के बारे में जाना जा सकता है। शुद्ध देशी घी का गलनबिंदु 40 डिग्री सैल्सियस है, जबकि जानवर की चर्बी 42 से 48 डिग्री पर पिघलती है। मिलावटी घी को 40 डिग्री का नियंत्रित तापमान दिया जाए तो कुछ हिस्सा ही पिघले तो समझ जाना चाहिए कि घी में चर्बी मिली है। 

परीक्षण की एक पद्धति और भी है, जो बोमर वैल्यू के रूप में जानी जाती है। घी जैसे चर्बीयुक्त पदार्थ में ट्राइलिन सेराइड और फ़ैटी एसिड की मात्रा के अनुसार उसका बोमरुपयेर वैल्यू तय होता है। शुद्ध घी का बोमर वैल्यू 63 से 64 होता है। दूसरी ओर जानवरों की चर्बी के मामले में यह आँकड़ा 69 से 76 है। इससे घी की बोमर वैल्यू 70 के आसपास हो तो समझ लेना चाहिए कि उसमें जानवरों की चर्बी मिली है। 

पर आम आदमी को हेल्फथन टेस्ट और मिथाइलिन टेस्ट और बोमर वैल्यू जैसे वैज्ञानिक परीक्षण से क्या मतलब? वह जिन चीज़ों को खा रहा है या जिन खाद्य सामग्री का उपयोग कर रहा है, वे सौ प्रतिशत शाकाहारी हैं, इसका उसके पास कोई मापदंड नहीं है। इसलिए भारत सरकार ने साल 2000 में बाज़ारू खाद्य प्रोडक्ट्स के पैकेट पर नानवेज सूचक लाल वर्गाकार निशान और वेज सूचक हरा वर्गाकार निशान छापने का क़ानून पास किया था। अलबत्ता इस वर्गाकार की विश्वसनीयता के बारे में समय समय पर सवाल उठते रहे हैं। जैसे कि ‘ब्यूटी विद आउट क्रूयल्टी’ संस्था के एक समाचार के अनुसार हाल ही में एक बाज़ारू प्रोडक्ट पर वेजिटेरियन हरा वर्गाकार छपा होने के बाद भी लैबोरेटेरी टेस्ट में उसमें नानवेज आइटम उपयोग होने के सबूत मिले थे। इस तरह के तमाम मामले पहले भी हो चुके हैं। 

होटल, ढाबा, फ़ास्ट फ़ूड पार्लरों में पैकेजिंग के बिना बेचे जाते खाद्य पदार्थ पूरी तरह शाकाहारी हैं, इसका पता कैसे किया जाए, यह एक बड़ा सवाल है। बीफ़/मटन टेलो तथा लार्ड चर्बी की हाज़िरी का लैबोरेटेरी में परीक्षण जटिल है तो ऐसे तैलीय पदार्थ में बनी मसालेदार चीज़ खाने वाले को कैसे पता चलेगा कि इसमे चर्बी मिली है। यह दुर्भाग्य की ही बात कि ऐसा वर्षों से होता आ रहा है। शाकाहारी लोगों की नैतिक धार्मिक भावनाएँ दुभाती आ रही हैं। जिसकी आज तक किसी सरकार ने परवाह नहीं की। तिरुपति के लड्डू का विवाद लापरवाही का ताज़ा सबूत है। 

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