आशा की निराशा: शीशा हो या दिल हो आख़िर टूट जाता है
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
प्रश्न: आप की मनपसंद फ़िल्म?
जवाब: जे. ओमप्रकाश की ‘आशा’ और राजकुमार कोहली की ‘नागिन’।
प्रश्न: लता मंगेशकर के गानों ने आप के कैरियर में बहुत मदद की थी?
जवाब: बहुत, आज भी लोग ‘आशा’ में उनके गाने ‘शीशा हो या दिल हो . . .’ से मुझे याद करते हैं।
प्रश्न: इस गाने में आप के जीवन का प्रतिबिंब है?
जवाब: मेरे आँसू सूख गए हैं। अब मैं हर मुसीबत में हँसती हूँ।
ये ऐक्ट्रेस रीना राय के साथ फ़िल्म पत्रकार सुभाष झा की बातचीत के अंश हैं। कला जीवन से प्रेरित होती है या जीवन कला से प्रेरित होता है, इसे ले कर मतमतांतर है। पर रीना राय के मामले में तो जैसे उनकी फ़ेवरेट फ़िल्म ‘आशा’ और उनका व्यक्तिगत जीवन जैसे समांतर चला था। जिस तरह फ़िल्म की हीरोइन आशा प्रेम के सुखी संसार से वंचित रह जाती है, उसी तरह रीना भी असली जीवन में दो सब से बड़े प्रेम-सम्बन्धों में कामयाब नहीं हो सकीं।
19 साल की उम्र में रीना राय ने ब्लॉकबस्टर फ़िल्म ‘कालीचरण’ (1976) दी थी। इसी में उनका नाम शत्रुघ्न सिन्हा के साथ जुड़ गया था। उनकी दूसरी फ़िल्म ‘विश्वनाथ’ भी उतनी ही सफल रही थी। शत्रुघ्न और रीना दोनों के कैरियर इन फ़िल्मों से शिखर पर पहुँच गए थे। शत्रुघ्न रीना से 11 साल बड़े थे। दोनों के व्यावसायिक सम्बन्ध जल्दी ही प्रेमसम्बन्ध में बदल गए थे।
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि शत्रुघ्न सिन्हा का यह विचित्र सम्बन्ध था, क्योंकि एक ओर तो वह रीना राय से प्रेम-सम्बन्धों में थे, तो दूसरी ओर माॅडल पूनम चंदीरमानी के साथ फेरे लिए थे। सिनेमाजगत में यह अफ़वाह फैली थी कि रीना और शत्रुघ्न विवाह करेंगे। पर पूनम से विवाह करने के बाद भी जैसे कुछ हुआ ही न हो, इस तरह शत्रुघ्न ने रीना से सम्बन्ध बनाए रखा।
यह स्कैंडल इस तरह गूँजा था कि रीना को यह शर्त रखनी पड़ी थी कि अगर शत्रुघ्न सिन्हा उनसे विवाह नहीं करते तो आठ दिनों में वह दूसरे से विवाह कर लेंगी। यह ‘दूसरा’ यानी पाकिस्तान के डैशिंग क्रिकेटर मोहसिन खान। पाकिस्तान की टीम के ओपनिंग बैट्समैन मोहसिन खान देखने में हीरो जैसे थे। रीना और मोहसिन का विवाह बोम्बशेल जैसा था। सिनेमाजगत में इसकी किसी को गंध तक नहीं लगी थी। परन्तु शत्रुघ्न सिन्हा की ‘दूसरी पत्नी’ के रूप में स्कैंडल इतना गूँजा था कि रीना ने ताबड़तोड़ अपना संसार बसा लिया था।
ख़ाली देखाव का आकर्षण कहें, भारत-पाकिस्तान की अलग रीति भाँति कहें, सिनेमा-क्रिकेट का ग्लैमर कहें या फिर रीना का भूतकाल कहें, मोहसिन के साथ शुरू के दिन तो अच्छे बीते, पर एक बेटी होने के बाद दोनों के बीच अंतर बढ़ता गया और फिर यह विवाह भी टूट गया। ऐसा टूटा कि जिस बेटी का नाम जन्नत था, उसे बदल कर रीना ने सनम कर दिया। दिल हो या काँच, वह टूट जाता है, यह बात रीना के लिए फिर सच साबित हो गई।
रीना ने कहा था कि मोहसिन का लाइफ़ स्टाइल और लंदन में उनके रहने का आग्रह मुझे रास नहीं आया था। मोहसिन का लंदन में भी बँगला था और वह चाहता था कि रीना ब्रिटिश नागरिक बन जाए। नई-नई शादी हो तब तो मुंबई, कराची और लंदन के बीच बँटा जीवन आकर्षक लगता है, पर बाद में ऐसी लाइफ़ स्टाइल मुश्किल लगने लगता है।
अपने एक पुराने इंटरव्यू में रीना ने कहा था, “मैं मज़बूत स्त्री हूँ। जीवन में बहादुर बन कर रहना पड़ता है। संवेदनशील भी हूँ और इसीलिए एक्टर हूँ। पर असली जीवन में मैं अपने परिवार के सामने अपनी भावनाओं को ज़ाहिर नहीं होने देती। जब मैं छोटी थी तो नाराज़ होने पर किसी के सामने रोती नहीं थी। कुछ भी सहन कर लो, बर्दाश्त कर लो, आँसू नहीं लाना है, मैं यह ख़ुद से कहती थी। मैं किसी के सामने रोती नहीं, सच कहूँ तो कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसने मुझे रोते देखा है, न तो मेरे परिवार ने और न ही मेरी बेटी ने।”
असली जीवन की इस हक़ीक़त के कारण ही शायद रीना को ‘आशा’ फ़िल्म बहुत पसंद है। फ़िल्म रीना राय के कारण ही ब्लॉकबस्टर साबित हुई थी। क्योंकि उनकी भूमिका को दर्शकों की सहानुभूति मिली थी और दूसरा उसका कर्णप्रिय संगीत।
‘आशा’ (1980) की कहानी, जैसा जे. ओमप्रकाश की ज़्यादातर फ़िल्मों में होता है, उसी तरह अत्यंत उतार-चढ़ाव वाली थी। फ़िल्म में दीपक (जितेन्द्र) ट्रक ड्राइवर है और आशा नाम की जानी-मानी गायिका को लिफ़्ट देता है। उसी में आशा को दीपक अच्छा लगने लगता है। दीपक का विवाह माला (रामेश्वरी) के साथ होता है। दीपक का एक्सीडेंट हो जाता है, जिसमें वह मृत घोषित हो जाता है। माला घर छोड़ने को मजबूर हो जाती है और वह नदी में कूद जाती है। एक मंदिर के लोग उसे बचा लेते हैं, पर उसकी आँखें चली जाती हैं। वह एक बेटी दीपमाला को जन्म देती है।
दीपक जीवित रहता है और घर वापस आता है। उसके जीवन में आशा की भी वापसी होती है। दोनों रास्ते पर मूर्तियाँ बेच रही दीपमाला के परिचय में आते हैं। आशा माला से भी मिलती है और उसका इलाज कराती है। वह माला को अपने विवाह में बुलाती है। वहाँ माला को पता चलता है कि दीपक तो जीवित है। दूसरी ओर दीपक को भी पता चलता है कि माला जीवित है और दीपमाला उसकी बेटी है।
अंतिम घड़ी में आशा विवाह रद्द कर देती है और दीपक को उसकी पत्नी और बेटी से मिलाती है। आशा अपनी गायिकी की दुनिया में वापस लौट जाती है और अपना प्रसिद्ध गाना गाती है, ‘शीशा हो या दिल हो आख़िर टूट जाता है . . .’।
संयोग ही होगा, पर ‘आशा’ में जैसे रीना राय के भावी जीवन का संकेत था। ‘आशा’ (रितिक रोशन के नाना) जे. ओमप्रकाश की निर्देशक के रूप में पाँचवीं फ़िल्म थी। इसके पहले वह ‘आप की कसम’, ‘आक्रमण’, ‘अपनापन’, और ‘आशिक हूँ बहारों का’ बना चुके थे। फ़िल्म ‘अपनापन’ में उन्होंने रीना के साथ पहली बार काम किया था। यह फ़िल्म इतनी सफल रही कि उन्होंने रीना और जितेन्द्र को ‘आशा’ में रिपीट किया और रीना के साथ तीसरी सफल फ़िल्म ‘अर्पण’ बनाई थी।
ये सभी भूमिकाएँ बहुत नाट्यात्मक थीं। जिनमें रीना के हिस्से में प्यार का बलिदान ही आया था। एक जगह रीना ने कहा था, “मेरी माँ को चिंता हो गई थी। वह कहती थीं कि बेटा इतने स्पेसिफ़िक रोल मत करो। कहीं हक़ीक़त में तुम्हारी ज़िन्दगी ऐसी न हो जाए। मैं दलील करती कि ये ऐसा ताक़तवर रोल है कि कोई भी हीरोइन ख़ुद ऑफ़र करेगी अपने लिए। ‘आशा’, ‘अपनापन’ और ‘अर्पण’ का रोल मेरे कैरियर में बड़ा योगदान था।”
रीना ने कहा था, “शीशा हो या दिल . . . मुझे ही नहीं पूरी दुनिया को प्रिय है। सब का दिल कई बार टूटा है, फिर जुड़ता है, फिर टूटता है। जीवन ऐसा हो होता है।”
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