लाश

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

लाश रास्ते के बिलकुल बीचों-बीच पड़ी थी। दोनों ओर का रास्ता बंद हो गया था। लाश को लाँघ कर जाने की हिम्मत भला किस की हो सकती थी? लाश को लाँघ कर जाने की बात कहाँ से आई, यहाँ तो लाश के पास जाने को भी कोई तैयार नहीं था। लाश से सभी काफ़ी दूर खड़े थे। 

शहर से गाँव की ओर आने वाले, शहर जाने वाले रास्ते पर ही खड़े थे। गाँव से शहर जाने वाले गाँव की ओर खड़े थे। कोई लाश को पार कर के आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। 

रास्ता कच्चा और सँकरा था। सिर्फ़ एक गाड़ी निकल सकती थी। रास्ता नदी से हो कर गुज़रता था। नदी पर रेलवे का पुल था। पुल के एक किनारे आने-जाने का रास्ता था। यह रास्ता गाँव और शहर को जोड़ता था। पैदल जाने वाले, साइकिल, गाड़ी, स्कूटर या मोटरसाइकिल वाले इसी रास्ते का उपयोग करते। गाँव के दूध देने वाले, हाट लगाने वाले, सब्ज़ी वाले भी इसी रास्ते से जाते थे। इस रास्ते पर लगातार आवाजाही बनी रहती थी। केवल दोपहर को थोड़ी देर के लिए रास्ता सूना पड़ता। बाक़ी समय कोई न कोई इस रास्ते से गुज़रता ही रहता था। 

यह घटना दोपहर को ही घटी होगी। क्योंकि सुबह यहाँ लाश नहीं थी। सुबह यहाँ से गुज़रने वालों ने लाश नहीं देखी थी। लेकिन दोपहर बाद आने-जाने वाले दोनों ओर खड़े हो गए थे। इतनी देर में लाश कहाँ से आ गई थी? यहीं किसी का क़त्ल हुआ होगा या कहीं और हत्या कर के लाश को यहाँ लाकर फेंक गया था? 

यह लाश किसकी हो सकती है? किसी ने सवाल किया तो सभी को वह लाश किसकी है, यह जानने की उत्सुकता हुई। अभी तक सभी ने आश्चर्य, आघात, जिज्ञासा और विस्मय से लाश देखी थी। लाश के पास जाने की किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी। दूर से ही सब क़यास लगा रहे थे। 

लाश चित्त पड़ी थी। पूरा मुँह लाल था। एक पैर टेढ़ा था। एक हाथ सीने के नीचे और दूसरा माथे के नीचे था। हाथ ख़ून से लथपथ था। आँखें मुँदी हुई हैं या फटी हुई, यह जाना नहीं जा सकता था। 

दो-चार लोगों ने आगे बढ़ कर लाश को बारीक़ी से देखने का प्रयास किया। उनमें से एक आदमी बोला, “अरे . . . ” 

फिर अटक गया। उसके पास खड़े लोग उसकी ओर देखने लगे। सभी के मन में जैसे वही सवालथा, जो वह आदमी बोलते-बोलते रुक गया था। 

“कुछ-कुछ तो पहचान आ रही है?” थोड़ा धीमा और दबा हुआ दूसरा स्वर भीड़ में से आया।

“मुझे तो इसके शरीर की बनावट . . .” कहते कहते वह रुक गया। और फिर तुरंत ही कह दिया, “यह बजरंगी जैसा लगता है।”

“बजरंगी?” एक अन्य लाश की ओर देख कर बोला। 

“हाँ, इसके कपड़े तो वैसे ही हैं, जैसे बजरंगी के होते थे।”

“कपड़े तो उसीके जैसे लगते हैं। लगता है बजरंगी ही हैं,” एक दूसरे ने कहा। 

धीरे-धीरे सबकी ज़ुबान खुलने लगी। उनमें से किसी ने कहा, “बाल भी उसीके जैसे हैं।”

“हाँ जूते भी बजरंगी इसी तरह के पहनता था,” भीड़ की धीमी-धीमी फुसफुसाहट स्पष्ट होने लगी। 

“अरे कहो न कि बजरंगी ही है। किसी एक ने सब के मन की शंका का पर्दा फ़ाश कर दिया। क्षण भर कोई कुछ नहीं बोला। सभी टकटकी लगाए लाश को ताक रहे थे। लाश बजरंगी की ही है, सब को विश्वास हो गया। 

“बजरंगी की लाश? अभी सुबह ही तो मैंने उसे शहर जाते देखा था। 

“तुम जीत सुबह की बात करते ही। मैंने तो उसे दोपहर के पहले साढ़े दस बजे चौक पर बैठे देखा था।”

“तो इतनी ही देर में . . .? इसके आगे वह कुछ नहीं बोल सका था। उसका स्वर रुँध गया था। सभी एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे थे। सभी अवाक्‌ थे। सभी को विश्वास हो गया था कि लाश बजरंगी की ही है। फिर भी लाश के पास जाने की किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी। जिज्ञासा, आश्चर्य, आघात शोक में बदलने लगा था, “बेचारा बजरंगी . . . “

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