डीपफ़ेक डिटेक्टर: एआई के दुष्प्रभाव से उभरता हुआ नया बिज़नेस
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
आजकल एआई की मदद से ऐसे नक़ली ऑडियो, वीडियो और फोटो बनाना आसान हो गया है, जो असली जैसे लगते हैं। यह ट्रेंड ख़तरनाक है और इससे बचने के लिए टेक्नॉलोजी एक्सपर्ट्स ने जो समाधान निकाला है, उसे कहते हैं—डीपफ़ेक डिटेक्टर।
प्राचीन यूनान के दार्शनिक प्लेटो ने अपनी किताब रिपब्लिक में कहा था, “हमारी ज़रूरतें ही असली निर्माता होती हैं।”
कई सदियों बाद यह विचार और भी अहम हो गया है। 19वीं सदी में अंग्रेज़ लेखक बेंजामिन जोवेट ने प्लेटो की इस बात का अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हुए लिखा था—‘The true creator is necessity, who is the mother of our inventions.’
समय के साथ यह वाक्य छोटा होकर मशहूर हुआ—Necessity is the mother of invention.’
जिसका सीधा मतलब है—ज़रूरत ही खोज की जननी है।
प्लेटो का यह वाक्य दुनिया की हर भाषा में कहावत जैसा सम्मान पाता है। यह सच तो ही है, साथ ही हर नई खोज के कारण के पीछे यह वाक्य बिलकुल फ़िट बैठता है। इन्वेंशंस या एक्सप्लोरेशंस के पीछे ज़रूरत का फ़ैक्टर प्रमुख है। कितने ही शोध इसलिए होते हैं कि उसकी ज़रूरत महसूस होने लगती है। हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी आसान बने इसलिए शोध होते हैं। हमारी सुख-सुविधा में वृद्धि हो इसलिए शोध होते हैं। इसका अर्थ यह है कि मानव जीवन में उसकी ज़रूरत महसूस होती थी। एआई के आगमन के साथ डीपफ़ेक की एक बुराई भी शामिल हो गई और डीपफ़ेक से लड़ने की ज़रूरत महसूस होने पर एक नया आविष्कार हुआ, जिसे नाम दिया गया—डीपफ़ेक डिटेक्टर।
2022 में चैटजीपीटी का परीक्षण हुआ, उसके बाद टेक्नॉलोजी की कंपनियों के बीच एआई प्रतियोगिता शुरू हो गई। माइक्रोसॉफ़्ट की आर्थिक सहायता से ओपन एआई ने चैटजीपीटी के बाद सर्चजीपीटी का टूल लाँच किया। तो गूगल ने बार्ड और जेमिनाई को मैदान में उतारा। मेटा ने एआई की ब्लू रिंग यूज़र्स के हाथ में पहनाई! सभी क्षेत्र एआई से प्रभावित हुए। नए-नए एआई टूल्स के प्रयोग पूरे ज़ोर-शोर से चले और इस तरह 2023 का साल एआई टेक्नॉलोजी के नाम से रहा। एआई के सिक्के का एक पहलू बहुत उज्ज्वल था। उससे लोगों को सर्च करने में सरलता पड़ने लगी। जानकारी आसानी से मिलने लगी। सोशल मीडिया कैप्शन लिखने में आसानी आई। हेल्थ-एजुकेशन-रिसर्च समेत क्षेत्रों में ऐसा तो बहुत हुआ, पर दूसरी साइड बहुत भयावह थी। एआई की डार्क साइड की सबसे चौंकाने वाली तस्वीर का नाम था–सिंथेटिक मीडिया। किसी व्यक्ति की फोटो-वीडियो-ऑडियो के आधार पर एआई टूल की मदद से कुछ मिनट की प्रोसेस के बाद ऐसा वीडियो या फोटो बनाया जा सकता था।
फ़ेक इमेज का सिलसिला तो फोटोशॉप के ज़माने से चलता आ रहा था, लेकिन एआई के कारण सोशल मीडिया में सिंथेटिक मीडिया यानी डीपफ़ेक ऑडियो-वीडियो का ज़हर घुल गया। 2023 का साल एआई इनोवेशन के नाम था तो 2024 का साल डीपफ़ेक के हाहाकार के नाम दर्ज हुआ। अभिनेत्रियों से लेकर राजनेताओं तक के एआई जनरेटेड सिंथेटिक मीडिया ने तहलका मचा दिया। सिंथेटिक का अर्थ है कृत्रिम या बनावटी। एआई की मदद से उसे इतनी सटीकता से बनाया जाता है कि वह कृत्रिम होने पर भी बिल्कुल कृत्रिम नहीं लगता। फ़ेक हो तो उसके सही-ग़लत की परख हो सकती है, लेकिन डीपफ़ेक में इतना अवसर ही नहीं रहता। धीरे-धीरे दुनिया की समझ में आया कि डीपफ़ेक का परिणाम जो सामने दिखाई देता था उससे कहीं ‘डीप’ था।
2024 का साल मानव इतिहास में अलग इस तरह था कि यह ग्लोबली चुनाव का साल था। दुनिया की 800 करोड़ की आबादी में से 370 करोड़ लोग वोट करने वाले थे और उनमें से 200 करोड़ लोगों ने वोटिंग की। भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, मैक्सिको, दक्षिण अफ़्रीका समेत 64 देशों में चुनाव हुए। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के युग में आयोजित यह पहला चुनाव था। ग्लोबली इस चुनाव में एआई का सीधा प्रभाव दिखाई दिया। द इंटरनेशनल पैनल ऑन द इन्फ़ॉर्मेशन एन्वायरमेंट की रिपोर्ट में दावा किया गया था कि 2024 की चुनावों में 80 प्रतिशत देशों में एआई का दुरुपयोग हुआ। एआई जनरेटेड कंटेंट क्रिएशन की भरमार देखी गई।
अनेक उम्मीदवारों ने या उनके समर्थकों ने या उनकी सोशल मीडिया कैंपेनिंग टीम ने विरोधियों की छवि ख़राब करने के लिए डीपफ़ेक ऑडियो-वीडियो का खुलकर उपयोग किया। सोशल मीडिया में ऐसे डीपफ़ेक कैंपेन का इतना दबदबा देखने को मिला कि इलेक्शन अथॉरिटी के लिए भी फैक्ट चेकिंग का काम लोहे के चने चबाने जैसा बन गया। फ़िल्म स्टार्स, स्पोर्ट्स पर्सन्ज़ की तरह राजनेताओं के वीडियो-ऑडियो और तस्वीरें पाना आसान होता है। वीडियोज़ में एआई जनरेटेड ऑडियो मिक्स करके किसी भी नेता की छवि को ख़राब करना या किसी नेता की छवि किसी ख़ास जाति-धर्म में मज़बूत बनाना काम एआई से हुआ। यहाँ तक कि एक एक्सपर्ट ग्रुप के रैंडम सैंपल सर्वे में 90 प्रतिशत सोशल मीडिया कैंपेन में डीपफ़ेक का उपयोग हुआ पाया गया। पहली नज़र में आधिकारिक लगने वाले वीडियो या फोटो का फैलाव अजीब-गरीब नाम वाले एकाउंट्स से होता और उसका कंटेंट डीपफ़ेक से तैयार होता। इसका प्रमाण बहुत बढ़ गया था।
इस चुनाव के समय टेक्नो-एक्सपर्ट्स की समझ में आया कि डीपफ़ेक से न केवल किसी की छवि ख़राब की जा सकती है, बल्कि किसी देश की सत्ता में किसे बैठाना है और किसे दूर रखना है, इस शक्तिशाली निर्णय में भी डीपफ़ेक अहम भूमिका निभाता है। और तभी दुनिया को डीपफ़ेक डिटेक्टर की ज़रूरत समझ आई।
1997 में वीडियो री-राइट नाम का एक प्रोग्राम डिज़ाइन हुआ था। वह प्रोग्राम वीडियो में एडिटिंग की सुविधा देता था। शुरू में क्रांतिकारी लगे उस खोज के बाद विवाद का कारण बन गया। अगर इस तरह वीडियो में एडिटिंग हो सकती हो तो फिर असली-नक़ली का फ़र्क़ कैसे किया जाए? उसके जवाब में कई शोधकर्ताओं ने ओरिजिनल वीडियो को पहचान सकें ऐसी तकनीक विकसित की। वीडियो की लाइटिंग, कलरटोन आदि का अध्ययन करके कई सॉफ़्टवेयर में मिलावट पहचान की जाती थी। जैसे वीडियो री-राइट प्रोग्राम में डीपफ़ेक की जड़ें थीं, वैसे ही ऐसे सॉफ़्टवेयर में डीपफ़ेक डिटेक्टर की जड़ें थीं। लेकिन फ़ेक डिटेक्शन पर सही काम 2018 के बाद हुआ।
सोशल मीडिया की लोकप्रियता के बाद कई ऐप्स फोटो में एडिटिंग के टूल्स देती थीं। उसके परिणामस्वरूप ऑनलाइन फ़ेक सामग्री बढ़ती जाती थी। उसे पहचानने के लिए कई यूनिवर्सिटीज़ में फ़ेक डिटेक्टर बनने लगे। फ़ेस रिकॉग्निशन टेक्निक, लाइटिंग्स और शैडो आदि की मदद से डीपफ़ेक डिटेक्टर्स बनते थे, जिनमें एआई से जनरेट हुए कंटेंट को पहचानने की क्षमता होती थी। उसी तरह वीडियो या ऑडियो में जो आवाज़ है, वह असली है या एआई से छेड़छाड़ करके बनाई गई है, यह भी तकनीक से पहचानना सम्भव हुआ।
फ़ेसबुक, माइक्रोसॉफ़्ट जैसी कंपनियों ने तो एआई डीपफ़ेक डिटेक्टर्स को विकसित करने के लिए एक्सपर्ट्स को चैलेंज भी दिया। अगर कोई शोधकर्ता डिटेक्टर बनाकर इन कंपनियों को दे तो बदले में अच्छी-ख़ासी रक़म मिलती थी। उसके परिणामस्वरूप ऐसे डिटेक्टर्स के निर्माण को गति मिली। सॉफ़्टवेयर बनाने वाली कई कंपनियाँ इस क्षेत्र में कूद पड़ीं और अब तो मोबाइल यूज़र्स से लेकर ओरिजिनल वीडियो कंटेंट बनाने वाली कंपनियाँ डीपफ़ेक डिटेक्टर ख़रीद सकती हैं। आपका ओरिजिनल कंटेंट किसी ने कॉपी किया हो तो वह भी इन सॉफ़्टवेयर-ऐप्स की मदद से पहचाना जा सकता है।
एआई चैटबॉट्स ऑफ़र करने वाली कंपनियाँ अब एआई से जनरेट कंटेंट में एआई का प्रतीक (सिंबल) रखती हैं। एआई से जनरेट कंटेंट स्पष्ट अलग दिखाई दे, ऐसा लाइट और कलरटोन रखा जाता है। लेकिन डीपफ़ेक से असली जैसा दिखने वाला नक़ली कंटेंट जनरेट होता है, उसे पहचानना कठिन है। क्योंकि वह जनरेटिव एआई से या पेड एआई टूल्स से बनाया जाता है या तो अथेंटिक न हों ऐसे सोर्स की वेबसाइट या ऐप से बनाया जाता है। नंगी आँख से परखा न जा सके, उसे पहचान सके ऐसे डिटेक्टर्स की अब माँग होने लगी है। माँग बढ़ी तो आपूर्ति भी बढ़ी और उसके परिणामस्वरूप डीपफ़ेक डिटेक्टर्स का मार्केट लगातार बढ़ता जा रहा है।
2024 में डीपफ़ेक डिटेक्टर्स का वैश्विक मार्केट 26 करोड़ डॉलर यानी लगभग 23 अरब रुपए था। डीपफ़ेक के हाहाकार के बाद अभी यह बढ़कर 58 करोड़ डॉलर यानी लगभग 51 अरब रुपए हो गया है। 2026 के अंत तक यह 100 करोड़ डॉलर को पार कर जाएगा और अनुमान है कि 2030 तक डीपफ़ेक डिटेक्टर्स का वैश्विक मार्केट 210 करोड़ डॉलर तक पहुँच जाएगा। 2018 तक बिखरे हुए प्रयोग चलते थे, तब डीपफ़ेक डिटेक्टर्स का मार्केट इतना बड़ा होगा, इसकी कल्पना नहीं थी।
कई टेक्नॉलोजी कंपनियों के लिए डीपफ़ेक की आफ़त बिज़नेस का अवसर लेकर आई। डीपफ़ेक के कारण सही-ग़लत की परख की ज़रूरत पैदा हुई और उसी ज़रूरत से डीपफ़ेक डिटेक्टर्स का बिज़नेस खिला। प्लेटो ने सही कहा था-हमारी ज़रूरतें ही असली क्रिएटर हैं।
वायरस के कारण एंटीवायरस का बिज़नेस प्रयोग के लिए 1971 में पहला कंप्यूटर वायरस क्रीपर बनाया गया था। अमेरिकी रिसर्च एंड डेवलपमेंट कंपनी बीबीएन के लिए बॉब थॉमस नाम के कंप्यूटर इंजीनियर ने यह प्रोग्राम बनाया था। उसके बाद 1972 में रे टॉमलिनसन ने रीपर नाम का एंटीवायरस बनाया। वह दरअसल क्रीपर की नक़ल ही था, लेकिन उसका काम कंप्यूटर को सुरक्षित करना था। कंप्यूटर्स का उपयोग बढ़ा तो वायरस का दुरुपयोग पूरी कंप्यूटर सिस्टम को हैक करने में होने लगा। वायरस के सामने सिस्टम सुरक्षित करने की ज़रूरत पैदा हुई और उस ज़रूरत पर पूरा एंटीवायरस का बिज़नेस खड़ा हुआ।
आज कंप्यूटर्स, लैपटॉप और मोबाइल पर लगातार वायरस का ख़तरा रहता है, इसलिए एंटीवायरस अनिवार्य है। आज एंटीवायरस का वैश्विक मार्केट साढ़े चार अरब डॉलर है और आने वाले छह-सात सालों में यह दोगुना होकर आठ अरब डॉलर तक पहुँच जाएगा।
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