नाराज़ मित्र
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
राकेश सिन्हा बहुत कम बोलने वालों में थे। अंतर्मुखी स्वभाव के कारण वह लोगों से ज़्यादा बातचीत नहीं करते थे। इसलिए उनके ज़्यादा दोस्त-यार नहीं थे। गिनती का उनका एक ही मित्र था अमृतलाल, जो उम्र में उनसे क़रीब दस साल बड़ा था। अमृत राकेश का पड़ोसी भी था। राकेश जितने शांत स्वभाव के थे, अमृत उतना ही शरारती और बकबक करने वाला था। उसकी इस आदत से राकेश कभी चिढ़ भी जाते, पर उम्र का ख़्याल करते हुए अमृत से कुछ कह नहीं पाते थे।
एक दिन शाम को बाहर लाॅन में पड़ी कुर्सी पर राकेश बैठने जा रहे थे कि अमृत ने पीछे से धीरे से कुर्सी खींच ली। राकेश नीचे गिर पड़े। राकेश के नीचे गिरने पर अमृत ताली बजा कर हँसने लगा। एक मित्र के रूप में अमृत के मज़ाक़ और हँसी में निर्दोषता थी। पर राकेश चिढ़ गए और उनका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उनके मुँह से जो निकला, वह तो उन्होंने अमृत को कहा ही, उन्हें घर से भी निकाल दिया। पर उसी दिन से उनके मन को चैन नहीं पड़ रहा था।
अचानक स्कूटर में ब्रैक लगाया और मन में चल रहे विचारों की कड़ी टूटी। राकेश आगे सड़क पर लगे जाम के खुलने का इंतज़ार करने लगे। वह जहाँ खड़े थे, उसी के सामने वाले घर के बरामदे में माँ-बेटे बातें कर रहे थे। बेटा कह रहा था, “मम्मी क्या करूँ, जी ऊबता है . . .”
“तो जाओ खेलो न।”
“किस के साथ खेलूँ? मेरा तो कोई दोस्त ही नहीं है।”
बात छोटी थी, पर जीवन की ऊब को दूर करने के लिए एक मित्र का होना ज़रूरी है, पहली बार इस बात की अनूभूति राकेश को यह बात सुन कर हुई थी।
मोहल्ले की गली की नुक्कड़ पर स्थित पान की दुकान के पास स्कूटर खड़ी कर के वह दुकान पर पान लेने पहुँचे। उन्होंने देखा कि दुकान के पीछे दो मित्र एक ही सिगरेट में बारीबारी से कश मार रहे हैं। उन दोनों मित्रों को इस तरह सिगरेट पीते देख कर उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई। सालों पहले अमृत के साथ मारी सिगरेट की कशें याद आ गईं।
तभी सामने वाली विशाल कोठी से एक आदमी बड़बड़ाते हुए निकला और कोठी के सामने खड़ी मर्सिडीज़ में बैठ कर चला गया। पान की दुकान पर खड़े-खड़े राकेश उस आदमी को देखते रहे। राकेश को उस आदमी की ओर देखते पान लगाते हुए पान की दुकान वाले ने मर्सिडीज़ पर नज़र डालते हुए कहा, “राकेशजी, यह एक नंबर वाला मल्होत्रा मरेगा तो इसे उठाने वाले चार आदमी भी नहीं मिलेंगे। न कोई सगा-संबंधी है न कोई यार-दोस्त। इतने पैसे का यह पता नहीं क्या करेगा? जब अपने से हँस कर बात करने वाला एक मित्र भी न हो।”
पान की दुकान वाले के शब्दों में राकेश के लिए एक अनोखा संदेश था। अचानक उनके मुँह पर एक अनोखी मुस्कुराहट आ गई। अमृत रोज़ाना जो पान खाते थे, उन्होंने वह पान पैक कराया और स्कूटर अपने घर के बजाय अमृतलाल के घर के सामने जा कर रोक दी।
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