स्त्री क्या है?
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
स्त्री क्या है?
ब्रह्म है? जीव है? या जगत है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई ‘सार’ है?
तलवार की ‘धार’ है?
या रात के बाद का ‘सवेरा’ है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई ‘छाया’ है?
या मन को मोहने वाली कोई ‘माया’ है?
स्त्री कोई ‘सुर’ है?
स्त्री कोई ‘उर’ है?
या फिर यह कोई ‘कोहिनूर’ है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई ‘सवाल’ है?
या फिर सवाल में छुपा ‘जवाब’ है?
स्त्री पुरुष की ‘ढाल’ है?
माँ का ‘दुलार’ है?
या फिर पत्नी या प्रेमिका का ‘गाल’ है?
स्त्री क्या है?
यह कैसे जान सकता हूँ?
पर इतना ज़रूर जानता हूँ।
कि स्त्री के बिना तो . . .
अयोध्या के ‘राम’, द्वारिका के ‘श्याम’
या नीलकंठ द्वारा भस्म किया गया ‘काम’ भी,
एकदम ख़ाली होता . . .
क्योंकि . . . स्त्री ‘फेफड़े’ में आए तो ‘हवा'
और ‘दिल’ से गुज़रे तो ‘दवा’ बन जाती है।
स्त्री क्या है?
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