जीवन की राह-ज़िंदगी के प्रति चाह
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
जिस तरह दृष्टिहीन व्यक्ति ट्रैफ़िक और भीड़भाड़ के बीच अपना रास्ता सुरक्षित खोज लेता है, उसी तरह हमें भी कोलाहल और चुनौतियों के बीच से गुज़र कर जीवन जीना है।
‘Hear Yourself’ (अपने अंतर्मन को सुनो) पुस्तक में आध्यात्मिक लेखक प्रेम रावत ने हम सब को जीवनबोध देने वाला अनूठा अनुभव प्रस्तुत किया है। वह लंदन के ट्रैफ़िक और फ़ुटपाथ पर राहगीरों की आवाजाही से भरे और भारी भीड़ वाले इलाक़े से गुज़र रहे थे। ऑफ़िस जाने का समय था, इसलिए युवाओं की चाल में तेज़ी और तनाव, दोनों का मिश्रण दिखाई दे रहा था। कुछ लोग आपस में हल्के से टकरा भी जाते थे या फिर रास्ते में आमने-सामने आ जाते थे तो कंधे उचकाकर उलझन की मुद्रा में हल्का-सा दाएँ या बाएँ हो कर आगे बढ़ने का मार्ग खोज लेते थे। बाज़ार का इलाक़ा होने से वातावरण शोरगुल से भरा था। लगभग सभी युवाओं के कानों में स्मार्टफोन से जुड़े ‘ईयरबड्स’ लगे थे। सब व्यस्त और मानसिक रूप से त्रस्त नज़र आ रहे थे। लेखक प्रेम हैरावत की कार भी धीमी गति से आगे बढ़ रही थी।
अचानक उनकी नज़र तेज रफ़्तार से टकराते और दुर्घटना से बचते राहगीरों के बीच एक राहगीर पर पड़ी। उसकी चाल धीमी थी और क़दम कुछ तिरछे-टेढ़े पड़ रहे थे। उसके हाथ में एक छड़ी थी, जिसे वह दाएँ-बाएँ पैरों से मुश्किल से एक फ़ुट की दूरी पर ज़मीन यानी रास्ते को छुआ कर एक-एक क़दम आगे बढ़ रहा था। हाँ, वह व्यक्ति प्रज्ञाचक्षु (अंधा) था।
आम तौर पर लेखक ने ऐसे प्रज्ञाचक्षु व्यक्ति को इस तरह चलते भारत में कई बार देखा था। हमारे लिए भी ऐसा दृश्य कोई विशेष नहीं है। पर कभी-कभी वही रोज़मर्रा का दृश्य भी गहन निरीक्षण का विषय बन जाता है। वर्षों से जो विचार या प्रेरणा नहीं मिल पाती, वह अचानक किसी तेजपुंज के लिए चिनगारी बन जाती है।
प्रेम रावत को वह दृश्य देख कर उनके जीवन में पहली बार ऐसा विचार आया कि हमारे संसार में जहाँ भी देखो वहाँ सड़क और बाज़ार जैसी ही भीड़, कोलाहल, तनाव और टकराव है। आँखों से देखने वाले राहगीर भी यदि सावधान न रहें तो दुर्घटना या टकराव का शिकार हो जाते हैं, लेकिन यह प्रज्ञाचक्षु व्यक्ति अपनी सेंसरयुक्त छड़ी के साथ कितने आत्मविश्वास से धीमी पर दृढ़ गति से एक-एक क़दम बढ़ रहा है। उसे अपने आसपास कितनी अव्यवस्था है, इसका अहसास नहीं है। उससे वह प्रभावित नहीं है, क्योंकि उसने अपनी मंज़िल तय कर ली है और उसमें वह स्पष्ट है। उसकी सारी एकाग्रता अपने हाथ में पकड़ी छड़ी को दाएँ-बाएँ घुमा कर इतनी ही सावधानी बरतने में है कि अगले क़दम में कोई विघ्न न पड़े।
सम्भव है कि यदि यह व्यक्ति देखने लगे तो घबरा जाए और इतनी सहजता से चल ही न पाए। क्योंकि सिर पर टूट पड़ते तेज़ रफ़्तार वाले राहगीर, वाहन, और भारत जैसा देश हो तो रास्ते के बीच खड़े पशु भी सामने आ जाएँ। यह भी नहीं कि यह प्रज्ञाचक्षु व्यक्ति आसपास की भीड़, दौड़-धूप, अराजकता, उतावलापन और ट्रैफ़िक से अनजान है। लेकिन उसने अपनी सीमा को ही ख़ूबी में बदल दिया है। उसे वैसे भी दिखाई नहीं देता, इसलिए वह बाहरी जगत के इस तनाव और भयावह हलचल से अप्रभावित रहता है।
वह अंधा है, लेकिन मंज़िल पाने की अंधी दौड़ उसके लिए नहीं है। भीड़ के बीच होने पर भी यह राहगीर अकेला है। उसे तो बस इतनी ही जागरूकता और सावधानी रखनी है कि उसके अगले दो क़दम का मार्ग स्पष्ट हो। उसकी सेंसरयुक्त छड़ी विघ्न का कोई संकेत न दे। इस राहगीर को लंबी छलाँग नहीं लगानी और न ही उसे कोई उतावलापन या व्यर्थ की आकांक्षा है। कभी-कभी वास्तविकता को स्वीकार करना भी पड़ता है।
हम इस हाथ में छड़ी लेकर क़दम-क़दम मंज़िल पाने वाले प्रज्ञाचक्षु व्यक्ति से बड़ा बोध प्राप्त कर सकते हैं। हम रोज़मर्रा के जीवन में इसलिए त्रस्त और तनावग्रस्त रहते हैं, क्योंकि भीड़-भाड़ और ट्रैफ़िक में घूमते आँख से देखने वाले राहगीर की तरह हम वह सारा तनाव ज़रूरी न होते हुए भी अपने भीतर समा लेते हैं।
जीवन में कितने ही व्यक्तियों, व्यक्ति समूह, परिवार, पड़ोसी, दफ़्तर के कर्मचारी और अब तो जिनका कोई लेना-देना या नाममात्र का परिचय भी नहीं है, ऐसे सोशल मीडिया के सहयात्री, ये सब अपनी-अपनी मान्यता, ईर्ष्या, जीवन दृष्टि, सोच, अनदेखा, अहंकार ठालते रहते हैं। बिना कारण वे आपको अपने व्यवहार और विचार-जगत में खींचना चाहते हैं। आप जिस शतरंज की बाज़ी में हैं ही नहीं, अनजान भी हैं, फिर भी एक वर्ग ऐसा मान लेता है कि आप उस खेल में हैं और वह चालें चलता रहता है।
चारों ओर कलह, कंकाश और दुख न हो तब भी रोना रोने वाला वर्ग आपकी शान्ति और जीवनलक्ष्य छीन ले, ऐसा वातावरण बना देता है। किसी की अच्छी बात हो तो जगह छोड़ देना या बात काट देना और नकारात्मक बातें जानने के लिए ही अब सम्बन्ध रह गए हैं। देखिए, अगर आप किसी के साथ किसी की प्रशंसा या उसकी बुराई उजागर करेंगे तो वह व्यक्ति आपसे सहमत नहीं होगा।
हमें अपने जीवन में कोलाहल, भीड़ और दुर्घटना जैसे बन सकने वाले हालात में भी प्रज्ञाचक्षु की तरह सावधानी की लाठी लेकर निकलना है। आसपास की अधिकतर नकारात्मक दुनिया से अलिप्त रह कर बस अपने आसपास और आगे का और वह भी एक-एक क़दम का मार्ग तय करते हुए मंज़िल अर्थात् सुखद व दिव्य अनुभूति तथा शांतिमय जीवन प्राप्त करना है। यानी जलकमलवत की स्थिति प्राप्त करनी है।
यह भी नहीं कि चारों ओर केवल नकारात्मकता और चालाकी ही है। वास्तव में दुनिया तो उदार और उदाहरणीय व्यक्तियों से चल रही है। छोटे इंसानों की बड़ी बातें ही मानव-जगत के लिए आशा के समान हैं। जिस प्रकार लेखक ने प्रज्ञाचक्षु व्यक्ति से बोध पाया, वैसे ही हम भी ऐसा ज्ञान पा सकते हैं।
यदि व्यक्ति में संवेदना हो और ज्ञान पाने की प्यास निरंतर जलती रहे तो वह हर प्रसंग, दृश्य और सामने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया से सीखता रहता है। क्या करना चाहिए, यह भी ज्ञान है और क्या नहीं करना चाहिए, यह भी ज्ञान का मार्ग है। व्यक्ति के अनुभव, निरीक्षण और सामने आए दृश्य का मूल्यांकन ही ज्ञान का मार्ग है।
एक ही समूह के यात्रियों की आँखों के सामने एक ही स्थल, दृश्य या अनुभव आता है, लेकिन सबकी दृष्टि और सोच अलग-अलग होती है। फ़िल्म या खेल का मैच तो सब देखते हैं, तो फिर समीक्षक की ज़रूरत क्यों पड़ती है? यही तो गुरु का कार्य है। पर यदि हम स्वयं ऐसी दृष्टि और निरीक्षण विकसित करें और उनमें से सार्थक बोध प्राप्त करते रहें, तो जीवन ही बड़ी पाठशाला और ज्ञानशाला है।
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