पिज़्ज़ा
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
हाईवे पर बने विशाल फ़ूड ज़ोन में केवला को नौकरी मिल गई थी। बस, कोने में खड़े रहना था और टेबल ख़ाली होते ही उस पर पड़ी डिशें और नैपकिन सहित सारे कचरे को उठाकर डस्टबिन में डाल कर टेबल साफ़ करना था। पहले ही दिन महँगी गाड़ियों से आने वाले सुसंस्कृत लोगों को खाना ख़राब करते देख केवला को बहुत ग़ुस्सा आया था, पर वहाँ वह कुछ कह नहीं सकता था।
घर में मर गए बेटे के नन्हे से बच्चे को सूखी रोटी और लहसुन की चटनी खिलाते समय वह यही सिखाता था कि भोजन भगवान है, इसलिए इसे चूर भर भी थाली में नहीं छोड़ना चाहिए। पर उस हिसाब से देखा जाए तो यहाँ तो सभी थोड़ा-थोड़ा भगवान को छोड़कर चले जाते हैं। टेबल साफ़ करते समय केवला माफ़ी माँगते हुए कहता कि भगवान इन्हें माफ़ करना।
वहाँ खाने की चीज़ों के भाव अंग्रेज़ी में लिखे थे, इसलिए उसे पता नहीं चला कि कौन चीज़ कितने की है। पर जिस दिन उसे पता चला कि एक छोटी सी रोटी, जिस पर कुछ लगा होता है, लोग उसे पिज़्ज़ा कहते हैं, उसका भाव उसके एक सप्ताह के वेतन के बराबर है, उस दिन उसे सारी रात नींद नहीं आई थी।
रोज़-रोज़ आने वालों तमाम लोग उस पिज़्ज़ा को खाते थे। ख़ास कर छोटे बच्चे तो ज़िद कर के उसे मँगाते। जब भी केवला छोटे बच्चों को पिज़्ज़ा खाते देखता, उसे अपने पौत्र दीनू की याद आ जाती। बूढ़े केवला के दिल में एक युवा इच्छा जाग उठी कि एक दिन वह अपने दीनू को पिज़्ज़ा ज़रूर खिलाएगा।
साढ़े सात सौ में कितने दिन का राशन आ जाएग, यह सोच कर केवला पीछे हट जाता। पर एक दिन उसे लगा कि यहाँ रोज़ाना बच्चे ख़ुशी ख़ुशी पिज़्ज़ा खाते हैं तो उसके दीनू ने कौन सा गुनाह किया है?
केवला ख़ुद्दार था, इसलिए वह पिज़्ज़ा माँग नहीं सकता था। आख़िर उसने पूरे एक महीने दो घंटे अधिक काम कर के पिज़्ज़ा ख़रीद ही लिया। शाम को छुट्टी होने पर वह पिज़्ज़ा ले कर घर पहुँचा। डिब्बे में देना अच्छा नहीं लगा, इसलिए उसने टूटी-फूटी थाली में निकाल कर दीनू के आगे पिज़्ज़ा रख दिया। दीनू उसे प्यार से देखने लगा। केवला को लग रहा था कि पिज़्ज़ा मुँह में रखते ही दीनू उछल पड़ेगा। दीनू ने ऐसी रोटी पहली बार देखी थी। एक टुकड़ा तोड़कर मुँह में रख कर ज़ोर से बोला, “दादा यह तो एकदम फीका है, थोड़ी लहसुन की चटनी दो न।”
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