आर्टीफ़िशियल इंटेलिजेंस और बिना इंटेलिजेंस का जीवन
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
समय बदलता है, वक़्त निकल जाता है, नई खोजें होती हैं, अद्भुत शोध होते हैं, चंद्रमा पर घूम कर आते हैं और डिजिटल क्रांति का जयनाद होता है। फिर न जाने कौन, क्यों इस आर्टीफ़िशियल इंटेलिजेंस के ज़माने में मारण मंत्र, सम्मोहन विद्या आज़माने जैसे मामलों में श्रद्धा रखने वाले और उसी के अनुसार व्यवहार करने वाले मनुष्य मिलते हैं। वशीकरण और उच्चाटन विद्या को मानते हैं। भूत-प्रेत-चुड़ैल-डाकिनी का भयावह भ्रम कमज़ोर मन वाले मनुष्य में फैलता जाता है। जिसका डर लगता है, हमेशा उसी की बात करता है। विज्ञान के आकाश में भले उड़ते रहें, पर वास्तविक धरती पर सच्चाई भूलनी नहीं चाहिए।
कोई कहता है कि अष्टदल मंत्र लिख कर जपने से या होम करने से कोख छूटती है और संतान होती है तो 6 कोने का मंत्र लिख कर, श्वेत वस्त्र पहन कर, श्वेत आसन पर बैठ कर पूर्व दिशा में मुँह कर माला से सवा लाख बार जपने और अंगूर, चारोली, बादाम और गुग्गुल का होम करने से धन मिलता है और भविष्य में बरकत होती है। यही नहीं नया कपड़ा, नया गहना या नया कुछ भी पहनने के पहले काला धागा बाँधा जाता है। निमंत्रण में लोगों को खीर खिलाने से पहले दूध में लोगों की नज़र न लगे, दूध में कोयले का टुकड़ा डाला जाता है। इस तरह के न जाने कितने शकुन-अपशकुन से हमारा समाज घिरा पड़ा है।
जो परिस्थिति 1850 में थी, वही परिस्थिति 174 साल बाद आज भी है। इसमें कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया है। 1850 में गुजरात के एक कवि दलपतराम ने गुजरात वर्नाक्यलर सोसायटी के लिए ‘भूत’ पर एक लेख लिखा था, जिसकी अनेक आवृत्तियाँ अनेक भाषाओं में प्रकाशित हुई थीं। परन्तु हक़ीक़त यह है कि इतनी अधिक प्रगति होने के बाद भी समाज में पैदा होने वाले वहम में ख़ास बदलाव नहीं आया है।
आज भी देवी को रिझाने के लिए मासूम बच्चों की बलि दी जाती है। नज़र उतारने के लिए तरह-तरह के नुस्ख़े अपनाए जाते हैं। आकाशीय ग्रहों की चाल के अनुसार जीवन के बदलने की बात होती है और तमाम लोग उन्नति और अवनति के लिए ग्रहदशा को कारणभूत मानते हैं। इसके बाद राशि भविष्य का बोलबाला है। फल ज्योतिष की तमाम बातों में एकाध बात सच हो जाती है तो लोग मानने लगते हैं कि फल ज्योतिष सच बताने वाला शास्त्र है। इसके पीछे व्यक्ति की मान लेने वाली वृत्ति ज़िम्मेदार है और आज तो राजनेताओं से ले कर अपने वर्तमान या भविष्य से पीड़ित लोग इसकी शरण में पहुँच रहे हैं।
एक समय था, जब ऐसे वहम से लड़ने वाली अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति थे। रूढ़ियों का सामना करते हुए समाज से दो-दो हाथ करने वाले बहादुर थे। पर पता नहीं आज इसमें अकाल सा पड़ गया है। आज 2024 में भी लोग भूत-प्रेत की बातें सत्यघटना के रूप में करते हैं। कोई ख़ुद का अनुभव बताता है तो कहीं इमली, पीपल, बरगद या खंडहर में भूत होने की बात की जाती है, तो कहीं किसी के शरीर में सवार हो कर भूत बात करता है तो कहीं किसी जानवर का रूप ले कर, आग के शोले छोड़कर लोगों को डराता है। इस तरह की मान्यताओं के कारण बहुत लोग पूरे जीवन भय में जीते हैं। डर, विषाद, हताशा और आत्मविश्वास को गिरवी रख देते हैं।
आज जब आर्टीफ़िशियल इंटेलिजेंस की बात होती है तो भी इस समय तमाम बिना इंटेलिजेंस की बातें मानी जाती हैं। तब इस तरह को वहमों का मुक़ाबला करने वाले लोगों की याद आती है, जो समाज को एक सच्ची दिशा दिखाते थे। हमने मरने के बारे में तमाम शकुन और अपशकुन और मान्यताओं को इकट्ठा किया, जिनका आज के विज्ञान युग में शिक्षित लोग भी अंधा अनुकरण करते हैं।
इसका एक मार्मिक उदाहरण यहाँ पेश है। हमारे गाँव में एक वयोवृद्ध की मौत हो गई। उनके बेटे ने कहा कि आप दो लोगों को अंतिम संस्कार के लिए चलना है। पर धीरे-धीरे क़रीब 25 लोग इकट्ठा हो गए। बड़े वाहन की व्यवस्था करनी पड़ी। घाट पर उनके नाश्तेपानी की भी व्यवस्था की गई। यह स्वाभाविक है कि किसी की मौत होने पर उसके सगे-सम्बन्धी दुख में हिस्सेदार होने और आश्वासन देने के लिए आते हैं। पर जिनका मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं होता, उनका मरने पर अंतिम संस्कार में जा कर ख़र्च बढ़ाने का क्या अर्थ है?
इससे कितने लोगों का समय, शक्ति और धन बेकार जाता है। हमारे यहाँ मृत्यु की घटना को बारबार दोहराने का रिवाज़ है। मरने वाले के घर वालों को सांत्वना देने के बजाय बहुत लोग बार-बार उसके अच्छे-ख़राब जीवन के बारे में बातें करते हैं। इससे भी ख़राब रिवाज़ तो यह है कि जब भी कोई नज़दीकी रिश्तेदार आता है तो घर की महिलाओं को उसके सामने ज़ोर-ज़ोर से रोना पड़ता है। जबकि यह रिवाज़ महज़ दिखावा होता है। रोने के थोड़ी देर बाद सभी सामान्य नज़र आने लगते हैं।
इसके बाद दसवें दिन बाल बनवाने की बात तो साफ-सफाई से जुड़ी है, वह तो ठीक, पर पंडित को हज़ारों-लाखों के सामान का दान करना कहाँ तक उचित है। मरने वाला तो मर गया, उसके नाम से किया गया दान? इससे उसे क्या मिलेगा? घर वाले घर का एक आदमी खो कर वैसे ही दुखी होते हैं, उसमें इस तरह का ख़र्च उनके दुख को और बढ़ाता है।
फिर आता है तेरहवाँ दिन, जिस दिन पूरे समाज को पूड़ी-सब्जी और मिठाई खिलाई जाती है। आने वालों को आग्रह कर के खिलाया जाता है। जो लोग साधन-संपन्न होते हैं, उनके लिए तो कोई बात नहीं, पर ग़रीबों को यह सब क़र्ज़ ले कर करना पड़ता है। लोग अपना परिजन तो खोते ही है, लाखों का क़र्ज़ ऊपर से लाद लेते हैं। मृत्यु दुख का मौक़ा है। भले ही वह किसी वृद्ध की ही मृत्यु क्यों न हो। ऐसे मौक़े पर रोना और फिर उसके बाद मिठाई खाना भला यह कैसा रिवाज़ है? सगे-सम्बन्धी दुख बँटाने आते हैं। ऐसे में मौक़े को देख कर सादा भोजन ही उचित लगता है।
मृत्यु के बाद इस तरह के अजीब रिवाज़ और घटनाएँ देखने को मिलती हैं। विवाह और मृत्यु के वहम के बंधन में हम किस तरह बँधे हुए हैं। कोई अविवाहित लड़का हो, युवा हो या अधेड़, उसके मरने के बाद यह सारे कर्मकांड करने ही पड़ते हैं। कहा जाता है कि अगर यह सब नहीं किया गया तो मरने वाले की सद्गति नहीं मिलती। उसकी आत्मा भटकती रहती है।
ऐसी ही एक रिवाज़ पितृ को पानी देने की है। लोग लोटे में पानी ले कर बीच रास्ते में, नदी किनारे, पीपल के पेड़ में पितृ को तृप्त करने के लिए पानी डालते हैं। एक बार संत एकनाथजी कौतुक करते हुए नदी के जल में उतर गए और अंजुरी से दक्षिण दिशा में पानी उलेचने लगे। संत की विशिष्ट रीति से हैरान हो कर किसी ने पूछा, “अरे एकनाथजी, आप यह क्या कर रहे है?”
संत एकनाथजी ने कहा, “मैं अपने खेत की सिंचाई कर रहा हूँ।”
यह सुन कर सवाल करने वाले को हैरानी हुई। उसने पूछा, “आप नदी के बीच में खड़े हो कर अंजुली से पानी उलेच रहे हो, यह पानी आप खेत में कैसे पहुँचेगा?”
संत एकनाथ ने कहा, “अरे भाई, मेरा खेत तो नदी के पास है। अगर मेरा पानी मेरे खेत में नहीं पहुँच सकता तो जो तुम लोग अपने पितरों के लिए इतनी दूर से पानी उड़लते हो, तो वह उन तक कैसे पहुँचता होगा? जब आप के पूर्वज ज़िन्दा थे, तब उन्हें पानी दिया होता तो वे संतुष्ट होते। बाक़ी इस सब का क्या मतलब? इस तरह के वहम और रीति-रिवाज़ के पीछे समय और, बुद्धि गँवाना है।”
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