माँ

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 257, जुलाई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

प्रेमिका जितनी सुंदर नहीं होती
और थोड़ा बूढ़ी भी होती है। 
हमें जब समझ आ जाती है तो 
हम कहते हैं
‘माँ तुम कुछ समझती नहीं हो।’
फिर माँ कुछ बोलती नहीं है। 
चुपचाप घर के एक कोने में बैठ कर
अपने बाई से दर्द करते 
पैर को दबाती रहती है। 
बाद में एक दिन 
माँ मर जाती है
और हम दोनों हाथ जोड़ कर 
कह नहीं सकते
माँ मुझे माफ़ कर देना। 
महिलाओं के दो स्तनों के बीच से गुज़रते राजमार्ग पर
भाग भाग कर एक बार
हाँफ जाते हैं तो इच्छा होती है
माँ की बूढ़ी परछाईं में बैठ कर आराम करने की
तब ख़्याल आता है कि
माँ तो मर गई है। 
माँ प्रेमिका जितनी सुंदर नहीं होती। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
काम की बात
सिनेमा और साहित्य
स्वास्थ्य
कविता
कहानी
किशोर साहित्य कहानी
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सिनेमा चर्चा
ललित कला
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में