विरासत
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
महेश प्रसाद के घर आते ही बेटे ने कहा, “पापा, वर्मा अंकल आर्टिगा कार ले आए हैं।”
महेश प्रसाद कपड़े उतार कर दिन भर की थकान का बोझ लिए सोफ़े पर बैठे ही थे कि पत्नी ने चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, “पूरे 13 लाख की कार ख़रीदी है वर्माजी ने, वह भी कैश में।”
महेश प्रसाद चाय पीते हुए ‘हां हूँ‘ करते रहे। जब पत्नी का धैर्य जवाब दे गया तो उसने थोड़ा खीझ कर कहा, “हम लोगों को भी अपनी एक गाड़ी ले लेनी चाहिए। तुम मोटरसाइकिल से ऑफ़िस जाते हो, यह अच्छा नहीं लगता। क्योंकि बाक़ी सभी लोग गाड़ी से ऑफ़िस जाते हैं। अफ़सरों में एक तुम ही हो, जो बाइक चलाते हुए ऑफ़िस जाते हो। यह कितना ख़राब लगता है। तुम्हें भले ही न लगता हो, पर मुझे तो लगता है।”
“घर की किश्त जमा करने और बच्चों के पढ़ाई-लिखाई का ख़र्च निकालने के बाद इतना नहीं बचता कि हम गाड़ी ले सकें। फिर इसके अलावा भी तो बहुत ख़र्चे हैं,” महेश प्रसाद ने कहा।
“बाक़ी लोग भी तो ख़र्च करते हैं, साथ ही अपने शौक़ पूरे करते हैं। तुम से कम तनख़्वाह पाने वाले लोग भी स्कॉर्पियो से चलते हैं। पता नहीं कहाँ तुम पैसे ख़र्च कर देते हो,” पत्नी ने ताना मारा।
“अरे भई, पूरा का पूरा वेतन निकाल कर तुम्हारे हाथ में ही तो दे देता हूँ। अब तुम जानो कहाँ ख़र्च होता है,” महेश प्रसाद ने कहा।
“मैं कुछ नहीं जानती। तुम गाँव की अपने हिस्से की ज़मीन बेच दो। आख़िर उससे हमें मिलता ही क्या है? यही तो उम्र है कि हम शान की ज़िन्दगी जी लें। मर जाएँगे तो ज़मीन धरी की धरी रह जाएगी। आख़िर क्या करोगे उसका? मैं तो कह रही हूँ कि कल ही गाँव चल कर उसका सौदा कर देते हैं,” पत्नी ने सलाह दी।
“अच्छा ठीक है, पर तुम्हें भी साथ चलना होगा,” महेश प्रसाद ने कहा।
पत्नी ख़ुशी-ख़ुशी मान गई। शाम होते-होते पूरे महल्ले में ख़बर फैल गई कि सरला भी जल्दी ही गाड़ी लेने वाली है।
अगले दिन महेश प्रसाद और सरला गाँव पहुँच गए, जहाँ उनके बड़े भाई का परिवार रहता था। चाचा को आते देख कर बड़े भाई के बच्चे दौड़ पड़े। बच्चों ने उन्हें गली में ही रोक कर कहा, “चाचा, आप लोग यहीं रुकिए, माँ आ रही हैं।”
महेश प्रसाद और सरला कुछ समझ पाते, तब तक उनकी भाभी लोटे में पानी लेकर आ गईं और दोनों कि जूड़ उतार कर बोलीं, “देवरजी अब घर चलो।”
बहुत दिनों बाद वे लोग गाँव आए थे। कच्चा घर एक तरफ़ गिर गया था। एक छप्पर में दो गाएँ बँधीं थीं। बच्चों ने घर के आसपास फुलवारी बना रखी थी। थोड़ी सब्ज़ी भी लगा रखी थी। वहाँ की सुगंध ने सरला का मन मोह लिया। भाभी ने उसे अंदर आने को कहा, पर वह बोली, “दीदी यहीं ठीक है।”
वहीं रखी खटिया पर सरला बैठ गई थी। महेश प्रसाद के बड़े भाई कथा कहते थे। एक बच्चा दौड़ कर उन्हें बुलाने गया। उस समय वह राम और भरत का संवाद सुना रहे थे। बच्चे ने उनके कान में कुछ कहा तो उनकी आँखों से झरझर आँसू झरने लगा, कंठ अवरुद्ध हो गया। जजमानों से क्षमा माँगते हुए उन्होंने कहा, “आज भरत वन से वापस आया है राम की नगरी में।”
कथा सुनने वाले समझ नहीं सके कि महाराज आज यह उल्टी बात क्यों कह रहे हैं। नरेश पंडित ने अपना झोला उठा कर भगवान को हाथ जोड़ा और घर के लिए चल पड़े।
महेश ने जैसे ही बड़े भाई को देखा दौड़ पड़ा, पंडितजी के हाथ से झोला छूट गया और भाई को बाँहों में भर लिया। दोनों भाइयों को इस तरह लिपट कर रोते देख कर सरला हैरान थी। उसकी भी आँखें नम हो गईं थीं। भाव के बादल किसी भी सूखी धरती को हरा-भरा कर देते हैं।
सरला ने भी जेठ के पैर छुए। पंडितजी के आशीर्वाद के शब्दों को सुन कर वह अंतस तक भरती गई।
दो छोटे-छोटे कमरों में रहने की आदी सरला की आँखेंं सामने की हरियाली और निर्दोष हवा से सिर हिलाती नीम, आम और पीपल को देख कर सम्मोहित सी हो रहीं थीं। लेकिन आर्टिगा का फोटो बारबार उस सम्मोहन को तोड़ रहा था। वह खेतों को देखती थी तो उसकी क़ीमत का अंदाज़ा लगाने लगती।
दोपहर में खाने के बाद पंडितजी रोज़ाना बच्चों को रामचरित मानस पढ़ कर सुनाते थे। उस दिन घर में दो सदस्य और बढ़ गए थे। अयोध्याकांड चल रहा था। मंथरा कैकेयी को समझा रही थी कि भरत को राज कैसे मिल सकता है।
पाठ के दौरान सरला असहज होती जा रही थी, जैसे किसी ने उसकी चोरी पकड़ ली हो। पाठ ख़त्म हुआ। रामायण रख कर पंडितजी गाँव देहात की समसामयिक बातें सुनाने लगे। सरला को इसमें बड़ा मज़ा आ रहा था। उसने पूछा कि क्या सभी खेतों में फ़सल उगाई जाती है? पंडितजी ने सिर हिलाते हुए कहा, “नहीं, एक हिस्सा परती पड़ा है।”
सरला को लगा कि बात बन गई। उसने कहा, “क्यों न उसे बेच कर हम कच्चे घर को पक्का करवा लें।”
पंडितजी आश्चर्य से बोले, “बहू, यह दूसरी गाय देख रही हो, दूध नहीं देती, पर हम इसकी सेवा कर रहे हैं। इसे कसाई को नहीं दे सकते। तुम्हें पता है, इस परती खेत में हमारे पुरखों की मेहनत लगी है। यह हमारी विरासत है और विरासत को कभी बेचा नहीं जाता। विरासत को सँभालते हुए हमारी न जानें कितनी पीढ़ियाँ खप गईं। कितने बलिदानों के बाद आज भी हमने अपनी धरती माता को बचा कर रखा है। बहुत लोगों ने खेत बेच दिए, उनकी पीढ़ियाँ अब मनरेगा में मज़दूरी कर रही हैं या शहर के महासमुद्र में कहीं विलीन हो गई हैं। बहू, जब तक हमारे पास ज़मीन है, हमें कभी भूखा नहीं सोना होगा। यह धरती माता पैसे भले न दें, पर पेट भर रोटी ज़रूर देती हैं।
“तुम अपनी ज़मीन पर बैठी हो, जब तक तुम्हारे यह खेत हैं, तब तक तुम इन खेतों की रानी हो। इन खेतों की सेवा ठीक से होगी तो देखना यह माता कैसे मिट्टी से सोना देती है। शहर में जो ‘हर‘ लगा है न बेटा, वह सब कुछ हरने पर तुला है, सम्बन्ध, भाव, प्रेम, खेत, मिट्टी, पानी हवा सब कुछ।
“आज तुम लोग आए तो लगा कि मेरा गाँव शहर को पटखनी दे कर आ गया है। शहर को जीतने नहीं देना बेटा। शहर की जीत आदमी को मशीन बना देती है। हम लोग रामायण पढ़ने वाले लोग हैं, जहाँ भगवान राम सोने की लंका को जीतने के बाद भी उसे त्याग कर अयोध्या वापस आ गए थे। अपनी माटी को स्वर्ग से भी बढ़ कर मानते हैं हम।”
तब तक अंदर से जेठानी आईं और सरला को अंदर ले गईं। कच्चे घर में गरमी नहीं थी। उसकी मिट्टी की दीवारों से उठती ख़ुश्बू सरला को अच्छी लग रही थी। जेठानी ने एक पोटली सरला के सामने रख कर कहा, “मुझसे लल्ला ने बता दिया था। इसे ले लो और देखो इससे कार आ जाए तो ठीक वरना हम इनसे कहेंगे कि खेत बेच दें।”
सरला ने मुस्कुरा कर कहा, “विरासत कभी बेची नहीं जाती दीदी। मैं कभी बड़ों का साथ नहीं रही न, इसलिए मैं विरासत को कभी समझ नहीं पाई। अब यहीं इसी खेत से सोना उगाएँगे और फिर गाड़ी ख़रीद कर आप दोनों को तीरथ पर ले जाएँगे,” इतना कह कर सरला रो पड़ी, “क्षमा करना दीदी।”
दोनों बहने रोने लगीं। बरसों बरस की कालिख धुल गई।
अगले दिन जब महेश और सरला जाने के लिए तैयार हुए तो सरला ने अपने पति से कहा, “सुनो, मैंने कुछ पैसे गाड़ी के डाउन पेमेंट के लिए जमा किए थे, उससे परती पड़े खेतों पर अच्छी तरह से खेती करवाइए। अगली बार उसी फ़सल से हम एक छोटी सी कार लेंगे और भैया और दीदी के साथ हरिद्वार चलेंगे।”
शहर हार गया। न जाने कितने सालों बाद गाँव अपनी विरासत को मिले इस सम्मान पर गर्वित हो उठा।
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