त्योहार के मूल को भुला कर अब लोग फ़न, फ़ूड और फ़ैशन की मस्ती में चूर

01-10-2025

त्योहार के मूल को भुला कर अब लोग फ़न, फ़ूड और फ़ैशन की मस्ती में चूर

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

दुनिया के विकसित देशों में दंभ, भ्रष्टाचार, तनाव, अपराध, मिलावट, नैतिक अद्यपतन और मानसिक तनाव का प्रकोप क्यों है? 

 

नवरात्र का अर्थ है नौ चक्र, नौ ग्रह, नौ नकारात्मक वृत्तियों पर विजय पाने का अवसर; माता दुर्गा ने नौ दिन तक महिषासुर राक्षस से युद्ध कर उसका अंत किया था। उसी की स्मृति में नवरात्र का यह पर्व मनाया गया। 

इस समय जो स्थिति है, उसे देखते हुए लगता है कि नवरात्र या हिंदू धर्म के बाक़ी त्योहार कहीं केवल फ़ूड, फ़ैशन और फ़िएस्टा बन कर न हर जाएँ? एक ओर सोसायटी और पार्टी प्लॉट में मेगा गरबों में युवा उछल रहे होते हैं तो दूसरी ओर घरों में ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म पर किसी थ्रिलर में नारी शक्ति को कुचलते हुए कलियुग के महिषासुर कभी किसी युवती के चेहरे पर एसिड डाल रहे होते हैं या किसी रिसॉर्ट में बलात्कार करते हुए अट्टहास करते दिखाई देते हैं। 

सोसायटियों में जब भी कोई त्योहार मनाया जाता है तो आयोजकों की ओर से लाउडस्पीकरों पर घोषणाएँ होती हैं कि ‘नाश्ते (जिसे प्रसाद भी कहा जाता है) का समय हो गया है, सभी सदस्य कृपया कॉमन प्लॉट में आ जाएँ।’ और फिर तुरंत ही अब तक ख़ाली लगने वाला मैदान भर जाता है। 

त्योहार अगर सामाजिक मेलजोल और सांस्कृतिक चेतना के विस्तार का साधन बनें तो यह स्वागतयोग्य है। लेकिन आज त्योहारों का उत्सव इतना अधिक बढ़ गया है कि हमें लगता है कि वाह! हिंदू धर्म और संस्कार विश्वव्यापी प्रसार पा रहा है। लेकिन सही बात तो यह है कि समाज और प्रत्येक परिवार का मानसिक और जीवनस्तर निरंतर गिरता जा रहा है। 

दुनिया के देशों के पास भारत जितने देव–देवियाँ, गुरु, संत, धर्मग्रंथ और लोकसंस्कृति के त्योहारों की क़तार नहीं है। ‘कंकर में शंकर, कण–कण में भगवान, नदी माता और पर्वत पिता’ जैसी गहन दार्शनिक मान्यताएँ कहीं और नहीं हैं। प्रत्येक मानव को दूसरे मानव में भगवान के दर्शन करने की सीख भी केवल यहीं है। 

हम प्रतिदिन अलग-अलग भगवान की पूजा करते हैं। नारी को सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा ही नहीं, बल्कि नवशक्ति के रूप में सम्मान देने का तत्त्वज्ञान भी हमारी परंपरा में है। विश्व के किसी भी देश में नारी का इतना गौरव स्थापित नहीं किया गया। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म में महिलाओं के लिए अपेक्षित आचारसंहिता और संस्कार का भी अलग शास्त्र है। 

देश की युवा पीढ़ी इतने सारे उत्सव की संभावनाओं के बावजूद तनाव और डिप्रेशन में पहले कभी नहीं रही थी। तलाक़ के मामले भयावह गति से बढ़ रहे हैं। परिवार टूट रहे हैं, वृद्धाश्रमों में वेटिंग चल रही है। ड्रग्स, सेक्स और मांसाहार बढ़ता जा रहा है। बाक़ी कुछ सोशल मीडिया ने पूरा कर दिया है। भारत जैसा दंभ, नागरिकों की गिरी हुई शिष्टता और विकृत मानसिकता किसी अन्य विकसित देशों में नहीं देखने को मिलती। 
इस स्थिति का मूल कारण यही है कि त्योहार केवल भौतिक उत्सव बन कर रह गए हैं और परंपरा ख़ुद को उजला दिखाने का मंच बन गई है। आचरण में बड़ा खोखलापन दिखाई देता है। धर्म और आध्यात्म के अवसर को व्यापार बना दिया गया है। 

व्यक्ति को समाज को यह दिखाने के लिए जीवन नहीं बिताना है कि वह सभ्य समाज का हिस्सा है, बल्कि उसे स्वयं को यह प्रतीत कराना है कि वह साल दर साल अधिक परिपक्व और उत्तम बन रहा है। 

कई लोग गर्व से कहते हैं कि ‘हमने तो इतनी दिवालियाँ देखी हैं।’ लेकिन दिवाली केवल देखने की नहीं होती, बल्कि यह गिनने की भी होती है कि हमने मन के भीतर कितने दीप जलाए हैं और कितने जोड़े हैं। 

हमारे शास्त्रों और पूर्वजों का मूल आशय यह था कि व्यक्ति और समाज हर त्योहार से जुड़े देव-देवियों के तत्त्व को समझ कर उसे जीवन में उतारें, ताकि एक आदर्श मनुष्य और समाज का निर्माण हो सके। त्योहार और धर्म का भी एक विज्ञान है। यह ज्ञान भारतवासी पाए और विश्व को दिखाए कि देखो हिंदू धर्म कितना आधुनिक है और ब्रह्मांड के रहस्यों को सदियों से जानता है। 

हम देव-देवियों का सहारा लेकर केवल स्थूल रूप में त्योहार मनाते हैं। आचरण के द्वारा स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं होता। ऐसे दृष्टिकोण के कारण हिंदू मत तो संगठित होता है, परन्तु देश हिंदू धर्म की कल्पना के अनुसार या रामराज्य जैसा गुणवत्तापूर्ण नहीं बन पाता, क्योंकि धर्म और त्योहार का मूल हृदय कोई नहीं समझ पाता। इंद्रियों के आनंद में ही त्योहार समाप्त हो जाते हैं। भ्रष्टाचार, अनैतिकता हावी हो गई है। मिलावट अपनी हद पार कर रही है। विकसित देशों की तुलना में भारत में नागरिकों का जीवन स्तर बहुत पिछड़ा हुआ दिखाई देता है। 

भगवान गणपति को अगले वर्ष जल्दी आने का कह कर हम उनकी मूर्ति का विसर्जन कर देते हैं और फिर हम जैसे थे, वैसे बन जाते हैं। पर्युषण के बाद मिच्छामी दुक्कड़म् और प्रतिक्रमण के तुरंत बाद ही इंद्रियों का आक्रमण शुरू हो जाता है। नौ नवरात्रों के बाद माताजी का गरबा समेट कर हम फिर पूर्ववत हो जाते हैं। नए साल के संकल्प लाभ पंचमी तक ही दम तोड़ देते हैं। 

उपवास के विज्ञान और आहार-विहार के नियमों के महत्त्व को अधिकांश धर्मों ने स्थान दिया है। तप होने से प्रायश्चित और करुणा के गुण प्रकट होते हैं। आराधना और अनुष्ठान से स्थूल और सूक्ष्म शरीर विकार और मलिनता के अतिरेक से शुद्ध होता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इसे ‘डिटॉक्स’ कहता है। नवरात्र के उपवास, पर्युषण की उपासना या रोज़े में बहुत समानता है। लेकिन यहाँ भी यही देखा जाता है कि उपवास टूटने के बाद वर्ष के बाक़ी दिनों में पेट जंक बॉक्स बन जाता है। हमारी मनोवृत्ति फिर से विकृति धारण कर लेती है। नवरात्र के नौ दिनों में मांसाहार और मद्यपान न करना और नवरात्र ख़त्म होते ही ‘चीयर्स’ करना और मांसाहार पर टूट पड़ना यही विडंबना है। 

भले ही उपवास का इतना अतिरेक न करें, लेकिन उपवास का उद्देश्य यह है कि वह आपको यह दिखाए कि आप आहार संयम कर सकते हैं। इस आत्मविश्वास को पूरे वर्ष व्यक्त करना है। हम बीमारी के समय डॉक्टर और विज्ञान की बात मानते हैं, परन्तु धर्म और परंपरा ने जो कहा है, उसे केवल त्योहार तक ही सीमित रखते हैं। 
अब थोड़ा नवरात्र के तत्त्वज्ञान की झलक लें। यह त्योहार नौ रातों का ही क्यों है? इसका एक कारण यह है कि हमारे शरीर में नौ चक्र होते हैं। कॉस्मिक और अर्थ (पृथ्वी) दो चक्र हमारे शरीर को प्रभावित करते हैं, लेकिन वे शरीर के भीतर नहीं हैं। शरीर में मस्तिष्क, तीसरी आँख, कंठ, हृदय, हृदय के नीचे सौर चक्र, फिर नाभि और मूलाधार, इस तरह सात चक्र होते हैं। सात शरीर के और दो बाहरी, इस तरह कुल नौ चक्र हुए। यही नौ दिव्यशक्तियों के पुंज हैं। नवरात्र की विधिवत पूजा, उपवास और हवन से इन नौ चक्रों की सूक्ष्म शक्ति हमारे भीतर प्रवाहित की जा सकती है। माताजी की भक्ति ही शक्ति की पूजा और प्राप्ति है। प्रत्येक दिन माताजी के नौ स्वरूपों को समर्पित है। नौ चक्रों की तरह नौ ग्रह भी हैं, इसलिए ग्रहों पर विजय भी शक्ति की पूजा से सहज ही मिल जाती है। 

माता ने दुर्गा स्वरूप धारण कर नौ दिनों तक युद्ध करके महिषासुर राक्षस का अंत किया। संयोग से भगवान राम ने भी माताजी की शक्ति का आशीर्वाद लेकर रावण के साथ नौ दिनों तक भीषण युद्ध किया और विजयादशमी को विजय की घोषणा हुई। तभी हम दशहरा मनाते हैं। 

इन दिनों में जितने दिन सूर्य में ऊर्जा होती है, उतनी ही रातों में भी प्राणशक्ति होती है। आकाशमंडल और तारों का नौ दिनों तक आनंद ही नहीं लेना है, बल्कि उनकी चुंबकीय ऊर्जा और तरंगों का चक्राकार घूमना एक प्रकार का गतिशील ध्यान (डायनेमिक मेडिटेशन) बन जाता है। झूमना, नृत्य करना इसी का रूप है। त्योहार नौ चक्रों को उजागर करने का उपक्रम बन जाता है। शरीर में जोश और उमंग भरने वाले रासायनिक स्त्राव भी प्रवाहित होते हैं। ‘ट्रांस’ की अवस्था प्राप्त हो सकती है। 

तो आइए, नवरात्रि ही नहीं, हर त्योहार को हम रोज़ाना अपने जीवन में, अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर में, अपने रक्त में घोल कर मनाएँ। त्योहार के हृदय को अधिक महत्त्व दें। 

नवरात्र और दशहरा हमें यह बोध कराते हैं कि हमारे भीतर भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, भय, ईर्ष्या, जड़ता और नफ़रत जैसे नौ असुर रहते हैं। पूजा, संयम और साधना से नौ दिनों में इन असुरों को हवन में आहुति देकर दसवें दिन विजय का उत्सव मनाएँ। 

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