काॅलेज रोमांस: सभी युवा इतनी गालियाँ क्यों देते हैं

01-04-2023

काॅलेज रोमांस: सभी युवा इतनी गालियाँ क्यों देते हैं

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

काॅलेज रोमांस सिरीज का एक सीन है, जिसके एक एपीसोड में एक गर्लफ्रेंड अपने ब्वॉयफ्रेंड से कहती है कि अगर तुम गालियाँ बोलना बंद नहीं करोगे तो न तो तुम्हें किस मिलेगी और सेक्स के बारे में तो भूल ही जाइए। इसी एपीसोड के अंत में वही लड़की ख़ूब गंदी-गंदी गालियाँ बोलती है। ‘वेलकम टू द रियल वर्ल्ड ऑफ़ यूथ ऑफ़ इंडिया’ (भारत की युवाओं के वास्तविक संसार में स्वागत है)। सीयाचीन या जापान तो पता नहीं, पर भारत के युवाधन की यही वास्तविकता है। जिसमें हर लड़का या लड़की शामिल होगी। ख़ूब प्रगति करेगी, देश का नाम भी रोशन करेगी, काॅलेज लाइफ़ भी एन्जॉय करेगी, पर गालियाँ तो बोलेगी ही। जब कोई अपवाद गालियाँ न बोले तो उसके कानों में अविरत मेघवर्षा चालू रहेगी ही। 

सच में मज़े की बात यह है कि दिल्ली हाईकोर्ट के जज ने कहा है कि सीरीज़-सीरियल-फ़िल्मों में आने वाले पात्र गालियाँ बोलें या ख़राब भाषा का प्रयोग करें, यह उचित नहीं कहा जा सकता, एफ़आईआर होनी चाहिए। इस बात पर हँसी आती है, क्योंकि ये जज दिल्ली के हैं। गालियों के लिए तीन शहर प्रख्यात हैं: गुजरात में सूरत और देश की राजधानी दिल्ली, इसके अलावा वाराणसी। यहाँ गालियाँ कल्चर हैं, रोज़ाना का एक हिस्सा हैं, विचारप्रक्रिया का स्तंभ हैं, बोलचाल की रीति और रस्म हैं। भारत के किसी भी बड़े काॅलेज या यूनिवर्सिटी के काॅरिडोर में एक चक्कर मारो या कैंटीन में बैठो, गालियाँ कान में न पड़ें तो कहिए। गालियों के लिए अब लड़की या लड़के के बीच कोई अंतर नहीं रहा। गालियाँ बहुत सहज हैं। अपने इमोशंस (भावनाओं) को अच्छी तरह पहुँचाने के लिए गालियाँ ही श्रेष्ठ शस्त्र हैं यह लगभग सभी मानने लगे हैं। इसलिए इस पर विवाद करने का कोई मतलब नहीं है। हिमालय को चादर से नहीं ढका जा सकता। 

‘काॅलेज रोमांस’ नॉर्मल काॅलेज सीरीज़ है। काॅलेज में पढ़ने वाले युवा तीन सालों में किस में से गुज़रते हैं? सभी के क्या इशू होते हैं? प्रेमप्रकरण, सेक्स की इच्छा, पढ़ने की इच्छा नहीं, सीनियर-जूनियर के बीच तफ़ावुत, कैरियर बनाने का प्रेशर, लव और लफड़ा, ब्रेकअप और प्रणयत्रिकोण, लाँग डिस्टेंस रिलेशनशिप आदि। इसके ऊपर यह छाप पड़े कि भारत का युवाधन तो मेहनत करता ही नहीं है। नहीं, ऐसा तो नहीं है। एक वर्ग ऐसे युवाओं का है, जो ख़ूब मेहनत करता है, ख़ूब पढ़ता है और कैरियर में शिखर पर बैठता है। पर जवानी के जोश में आने वाले आवेग और हार्मोन के उछाल को बहुत कम लोग कंट्रोल कर पाते हैं। इसलिए बहक जाने के चांस अधिक होते हैं। ‘टीवीएफ-द वायरल फीवर’ की ‘काॅलेज रोमांस’ सीरीज़ में ऐसे ही बहक चुके युवाओं की बात है। 

यहाँ गालियों की सराहना नहीं हो रही है। इस लिखने वाला भी बोली जाने वाली गालियों से असहमत है। लगभग सभी गालियों में स्त्रियों का ही अपमान होता है और मानवशरीर के अंग-उपअंग को विकृत रूप से पेश किया जाता है। गालियाँ बिलकुल नहीं होनी चाहिए। पर यह आदर्शवाद घर में ही चल सकता है, बाहर की दुनिया अलग है। एक-एक जन को नहीं समझाया जा सकता। दुनिया नहीं बदली जा सकती। गालियों का आदी बनना होगा। भारतीय गाली बोलते हुए ही बड़े होते हैं। पश्चिमी देशों में बहुत पहले से ही गालियों के मामले में रुचि नहीं थी। यह अच्छी बात है, पर यह कहने का कोई अर्थ नहीं है। ‘काॅलेज सीरीज़’ मज़ा दिलाए ऐसी टाइम-पास सीरीज़ है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक आलेख
लघुकथा
कविता
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
कहानी
सिनेमा चर्चा
साहित्यिक आलेख
ललित कला
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
किशोर साहित्य कहानी
सिनेमा और साहित्य
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में