दोस्ती
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
तहसील का बाज़ार होने की वजह से बाज़ार बहुत बड़ा नहीं था। इसी बाज़ार में दिलीप सोनी की गहनों की दुकान थी तो उसी के ठीक सामने नरेश की स्टेशनरी की दुकान थी। दोनों में बचपन से ही पक्की दोस्ती थी। पर सोमनाथ की यात्रा में जो हुआ, उसके बाद नरेश ने दिलीप से सम्बन्ध लगभग तोड़ लिया था।
सत्तर साल के रतिलाल का बाज़ार में अनाज का बहुत बड़ा कारोबार था। अपनी दुकान पर जाने से पहले वह दिलीप की दुकान पर रुक कर उसका हालचाल ज़रूर पूछते और ज़रूरी होता तो सलाह भी देते। बुज़ुर्ग होने की वजह से बाज़ार में सभी उनकी इज़्ज़त करते थे।
उस दिन भी वह अपनी दुकान पर जाते समय दिलीप की दुकान के सामने रुक कर हालचाल पूछने के बाद बोले, “दिलीप, तुम और नरेश यानी कृष्ण-सुदामा की जोड़ी। पर इधर सुदामा के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। इधर देख रहा हूँ वह तुम्हारी दुकान पर नहीं आता?”
“काका, कुछ भी कहने जैसा नहीं है। उस मूर्ख को दोस्ती क़द्र करना ही नहीं आता। हमारा एक थाली में खाने का सम्बन्ध था। रोज़ाना उसे चाय पीने के लिए बुलाता था। पूरे गाँव को हमारी दोस्ती के बारे में पता था। सभी कहते थे कि दिलीप और नरेश यानी कृष्ण-सुदामा की जोड़ी। अब उस दोस्ती में दरार पड़ गई है। अगर मेरी कोई ग़लती है तो उसे सामने आ कर कहना चाहिए। उसने आ कर सिर्फ़ यही कहा कि ‘अब सब ख़त्म हो गया है। बात करके और कड़वाहट नहीं पैदा करना है। तुम अपने परिवार के साथ मज़े करो और मैं अपने घर-परिवार में सुख से रहूँगा।’ बस, इतना कह कर वह मेरी दुकान से चला गया।”
दिलीप ने उदास हो कर कहा, “इस बात को आज एक सप्ताह हो गया है। नरेश अपनी दुकान पर जाने के लिए यहीं से निकलता है। पर मेरी दुकान के सामने आता है तो गर्दन घुमा कर तेज़ी से निकल जाता है। भूल से भी मेरी और उसकी नज़र न मिल जाए, इसलिए इधर देखता भी नहीं है।”
एक लंबी साँस ले कर दिलीप ने आगे कहा, “मेरी मिसिस का मायका अहमदाबाद में है। उसके दो सगे भाई हैं, पर दोनों भाई दुबई में रहते हैं। इसलिए वह बेचारी तो सालों से नरेश को भाई मान कर उसे राखी बाँधती आई है। खाने के समय कभी नरेश घर आ जाता था तो कपिला उसे प्यार से खाने के लिए बैठा देती थी। सगे भाई जैसा हेत रखती थी, फिर भी उस बांगड़ू ने एक झटके में सम्बन्ध तोड़ दिए। वह बेचारी भी बहुत दुखी है। पर लाचार हूँ काका। नरेश ने तैश में आ कर सम्बन्ध तो तोड़ लिया है तो अब मैं उसके पैर पकड़ने नहीं जाऊँगा।”
“तुम्हारा वह सुदामा इस समय संकट में है। तुमने तो अपने बाप की सोने-चाँदी की दुकान सँभाल कर धंधे को आगे बढ़ाया। नरेश को भी वारिस में स्टेशनरी की दुकान मिली, पर धंधे की जानकारी न होने से दुकान नुक़्सान में चली गई। तुम्हें पता है? फोटोस्टेट की मशीन तो ली, पर गले में फँदा पड़ गया हो, इस तरह परेशान है। जब देखो, तब वह ख़राब ही रहती है। पूरे महीने फोटोस्टेट करके जो कमाता है, उसे मैकेनिक एक झटके में ले कर चला जाता है।” इसके बाद रतिकाका ने धीमे से आगे जोड़ा, “सुना है उसकी पत्नी का हार्ट का ऑपरेशन कराना है। फोटोस्टेट मशीन की तरह पत्नी का हार्ट भी दुखी करने वाला निकला। डॉक्टर ने समय दिया है कि उसी समय के अंदर अहमदाबाद जा कर ऑपरेशन नहीं कराया तो अधिक से अधिक वह छह महीने जिएगी। न जाने कब गुब्बारा फूट जाएगा। दोनों बच्चे अभी बहुत छोटे हैं। उस बेवुक़ूफ़ को दुकान चलाना ही नहीं आता तो वह घर और दुकान दोनों साथ-साथ कैसे सँभाल सकेगा? मुश्किल सवाल तो यह है कि पत्नी का ऑपरेशन कराने के लिए वह चार लाख रुपए कहाँ से लाएगा? सुना है देवनाथ गुप्ता के पास ब्याज पर रुपए लेने गया था?”
रतिलाल की आवाज़ में गंभीरता घुली थी, “मेरी बात सुनो। तुम कैसे भी हो, तुम्हारा हँसी-मज़ाक़ नरेश सहन कर सकता है। उस ग़रीब को पैसे का लालच दे कर तुम उसकी वीडियो बनाते हो। तब भी मन बड़ा कर के वह हँसता रहता है। अगर किसी दूसरे से इस तरह का मज़ाक़ करते तो वह तुम्हारी पिटाई कर देता।” एक बुज़ुर्ग की तरह रतिलाल ने कारण ढूँढ़ निकाला, “बेटा, तुम बुरा मत मानना, पर ग़लती तुम्हारी है। गाँव में दोस्तों के बीच तो तुमने उसकी सैकड़ों बार फ़ज़ीहत की होगी, पर सोमनाथ के मंदिर में तो तुमने हद ही कर दी थी। अब तुम उसके साथ इस तरह करोगे तो वह सम्बन्ध कैसे रख पाएगा।”
वह पूरी घटना इस तरह घटी थी। इसी सावन के तीसरे सोमवार को गाँव के क़रीब बीस दोस्त सोमनाथ के दर्शन करने गए थे। मंदिर के कंपाउंड में हज़ारों भक्तों की भीड़ के बीच दिलीप ने नरेश से कहा, “तुम दाहिना हाथ उठा कर एक बोलना, उसके बाद बायाँ हाथ उठा कर दो, फिर दाहिना हाथ उठा कर तीन, उसके बाद बायाँ हाथ उठा कर चार। अगर इस तरह एक हज़ार तक बोलने में तुम से कोई ग़लती नहीं हुई तो मैं तुम्हें एक हज़ार रुपए दूँगा। बोलो, लगानी है शर्त?”
नरेश तैयार हो गया तो दिलीप ने दूसरी शर्त जोड़ दी। उसकी एकाग्रता बनी रहे, इसके लिए उसे आँखों पर पट्टी बाँध कर ज़ोर-ज़ोर से बोलना होगा। नरेश ने यह शर्त भी मान ली। इसके बाद दो दोस्तों के रूमाल ले कर नरेश की आँखों पर कस कर बाँध दिया गया। तब दिलीप ने कहा, “रेडी।”
नरेश ने कहा, “हाँ।”
हज़ार रुपए की लालच में नरेश दायाँ-बायाँ हाथ उठा कर ज़ोर-ज़ोर से एक . . . दो . . . तीन . . . बोलने लगा तो बाक़ी दोस्तों को ले कर दिलीप वहाँ से दूर खिसक गया। मंदिर के कंपाउंड में भक्तों की जो भीड़ थी, उत्सुकतावश वह नरेश के अग़ल-बग़ल जमा हो गई। मंदिर की ओर मुँह कर के छत्तीस साल का यह हट्टा-कट्टा युवक आँखों पर पट्टी बाँधे हाथ ऊपर-नीचे कर के यह कैसी विचित्र हरकत कर रहा है? इस जिज्ञासा के साथ भीड़ बढ़ती ही गई। तमाम लोगों ने उसे पागल मान लिया।
नरेश पूरे उत्साह से अपने काम में लगा था। वहाँ इकट्ठा लोग उसे एकटक ताक रहे थे। “नौ सौ अट्ठान्नवे, नौ सौ निन्यान्नवे और यह एक हज़ार पूरा।” पसीने से लथपथ नरेश का गला सूख चुका था। आँख से रूमाल हटाते हुए उसने कहा, “मैं जीत गया दिलीप ला हज़ार रुपए।” वहाँ देखने वालों ने तालियों की गड़गड़ाहट से उसे बधाई दी। दोस्त भाग गए थे और उसे पागल समझ कर अनजान लोग शोर मचा रहे थे। तेज़ गर्मी के बीच धूप में खड़े हो कर यह कसरत करने से नरेश का गला सूख रहा था। पर नरेश को अब उसकी परवाह नहीं थी। उसे कोई दुख भी नहीं था। इस वेदना की अपेक्षा दिलीप जैसे जिगरी दोस्त ने इस तरह का भयानक मज़ाक़ करके लोगों के बीच पागलों में गिनती जो करा दी थी, उसकी असीम पीड़ा से वह व्याकुल हो रहा था। दिमाग़ की नसें फूल गई थीं। दिलीप या अन्य दोस्तों से बात किए बग़ैर क्रोध में तपता नरेश सीधे रोडवेज़ के बसस्टैंड पहुँच गया था।
इस घटना को याद कराते हुए रतिलाल ने दिलीप को समझाया, “दिलीप, तुम पैसे वाले हो और उस बेचारे का नसीब ख़राब है। फिर ग़रीब का भी तो स्वाभिमान होता है। वर्षों से तुम दोनों की दोस्ती देखी है, इसलिए दिल जलता है। इस समय वह परेशान और ज़रूरतमंद है। एक बुज़ुर्ग के रूप में तुम्हें समझाना मेरा फ़र्ज़ है। ग़लती तो तुम्हारी ही थी, इसलिए मन बड़ा कर के उसे माफ़ कर दो। उसके साथ खड़े हो कर दोस्ती निभाने का यही सही समय है।”
“सही कहूँ काका, यह जो हुआ है, उसे ले कर मेरा भी मन व्याकुल रहता है। वह बेवुक़ूफ़ मिले तो उसे समझाना कि मेरे मन में ज़रा भी कड़वाहट नहीं है। ग़ुस्सा थूक कर मेरे पास आए। मुझसे जो हो सकेगा, मैं मदद करने को तैयार हूँ।”
दिलीप ने चाय मँगाई तो चाय पी कर रतिलाल ने विदा ली।
शादी-ब्याह का मौसम चल रहा था, इसलिए पूरे महीने दिलीप धंधे में व्यस्त रहा। पिछले पंद्रह दिनों से नरेश बाज़ार में दिखाई नहीं दे रहा था। एक दिन अपनी दुकान पर जाते हुए रतिलाल आए, “सुनो, उस ग़रीब के सिर से एक परेशानी तो कम हुई।” उन्होंने बताया, “नरेश एक महीने से अहमदाबाद में था। भगवान की कृपा से पत्नी का ऑपरेशन अच्छी तरह हो गया था। न जाने किस से ब्याज पर रुपए लिए हैं?”
“जिसका कोई नहीं होता, उसका साथ क़ुदरत देती है। इस तरह के अभागों को क़ुदरत के अदृश्य हाथ का सहारा मिलता है,” संतोष की साँस ले कर दिलीप ने चाय मँगाई, “चलिए जो हुआ अच्छा ही हुआ। इस ख़ुशी में चाय पीते हैं।”
दो दिन बाद नरेश आया। दिलीप के सामने खड़े हो कर उसने काँपती आवाज़ में कहा, “दिलीप एक व्यक्तिगत बात कहने आया हूँ। मैंने बहुत बड़ा पाप किया है।” नरेश की आँखें नम थीं और आवाज़ में ऐसा अथाह संकोच था कि इतना कहने के बाद जैसे आगे कुछ कहने की हिम्मत ही न हो रही हो, इस तरह सिर नीचे किए चुपचाप खड़ा रहा।
“तुम्हें कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है भाई, मैं सब जानता हूँ। अब माफ़ी माँग कर तमाशा करने की ज़रूरत नहीं है। हज़ारों बार मज़ाक़ करके तुम्हें न जाने कितना दुख पहुँचाया है तो क्या मैंने कभी माफ़ी माँगी है? दोस्त किसे कहते हैं? जो हो गया, सो हो गया। अब अगर उसके लिए माफ़ी माँगनी पड़े तो इसे दोस्ती नहीं कहा जाएगा।”
आँखों में आँसू भरे नरेश हैरान था।
“नरेश सुनो, पंद्रह साल का था, तब से दुकान सँभाल रहा हूँ। इतनी सी जगह में ढ़ाई करोड़ का माल रखने वाले की नज़र भला कच्ची होगी? अंदर तिजोरी वाले कमरे में तुम्हारे अलावा किसी दूसरे को जाने नहीं देता। सोमनाथ मंदिर से आने के बाद तुम लड़ने आए तो उस समय मैं अंदर था। तुम्हारी आवाज़ सुन कर मैं तिजोरी बंद कर के बाहर आया, पर सौ-सौ ग्राम के तेरह बिस्कुट भगवान के फोटो के पास रखे थे। तू एकदम ग़ुस्से में जो मन में आ रहा था, वह बके जा रहा था, इसलिए एक अपराधी की भाँति मैं सिर नीचे कर के सुनने के अलावा कुछ कह या कर नहीं सकता था। पानी पीने तू अंदर गया तो सोने के बिस्कुट देख कर तुम्हारी आँखों में चमक आ गई। मेरे ऊपर ख़फ़ा हो कर दुश्मनी निकालने के लिए तुमने एक बिस्कुट उठा कर पैंट की जेब में डाल लिया। नरेश अंदर मैंने इस तरह शीशा लगवा रखा है कि यहाँ बैठे-बैठे सब देख सकता हूँ।”
दिलीप के आगे दोनों हाथ जोड़ कर नरेश ने पूछा, “दिलीप उस समय तुमने कुछ किया क्यों नहीं? उसी समय मुझे पकड़ कर दो तमाचा मार दिया होता तो मैं इस पाप से बच जाता।” नरेश की आवाज़ में अथाह पछतावा था, “दिलीप, तुमने ऐसा क्यों नहीं किया? सच कहूँ, रंगेहाथ पकड़ कर उस समय मारा होता तो इस समय से कम पीड़ा होती।” उसने दोनों हाथों से सिर पीटते हुए कहा, “पत्नी तो जितना नसीब में होता जी लेती, पर उसने मुझे मार डाला। दिलीप इस चोर को . . . दोस्त के साथ गद्दारी करने वाले इस . . . को उसी समय पीट देना चाहिए था। अपनी आँखों से देख कर भी तूने कुछ क्यों नहीं कहा?”
हँसते हुए दिलीप ने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा, “नरेश मेरी बात सुन, रंडीबाज़ी या दारू के लिए चोरी की होती तो तुरंत तेरी पिटाई कर के पुलिस को सौंप देता। उस समय तू मुझसे नाराज़ था। पत्नी को बचाने के लिए पैसे की तंगी से परेशान था। इसलिए अपनी बुद्धि के हिसाब से तूने दुश्मनी निकाली। सौ ग्राम सोने की अपेक्षा दोस्ती की क़ीमत बहुत ज़्यादा होती है। नरेश मूर्ख, इतने सालों की दोस्ती में तूने मुझे पहचाना नहीं? सोने के संताप में स्वजन का सत्यानाश करना मेरे स्वभाव में नहीं है।”
आभार भरी नज़रों से ताक रहे नरेश की आँखों में आँखें डाल कर दिलीप ने आगे कहा, “गाँव वाले हमें क्या कहते हैं, यह तो पता है न? कृष्ण हमेशा शान से लीला करते हैं, तो कभी-कभार सुदामा को भी तो मज़ाक़ करने का हक़ है।”
दिलीप ने हँसते हुए नरेश की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा, “धंधे वाला आदमी हूँ, इसलिए पूरा पैसा लूँगा। मन में ज़रा भी टेंशन लिए बग़ैर अपनी सुविधा के अनुसार हज़ार, दो हज़ार जितना भी हो सके, समय-समय जमा कराते रहना।”
दिलीप अपनी बात कह रहा था और आभारवश नज़रों से नरेश उसे ताक रहा था। उस करूण-मंगल के पलों में नरेश ने दिलीप को सीने से लगा लिया। उस समय दोनों दोस्तों की आँखें नम थीं।
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