रंगमंच

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

मैं पढ़ूँ ग़ज़ल तो ज़माना वाह वाह करता है, 
कोई बजाता है ताली तो कोई सोचता है 
तो कोई करता है टिप्पणी, 
अलग-अलग प्रसंग हैं यहाँ तमाम के, 
अनोखा रंगमंच है यह ज़िन्दगी, 
किरदार में रह कर लोग अभिनय शानदार करते हैं, 
कोई करता है प्रेम तो दग़ा हज़ार करता है 
मीठी-मीठी बातों से सौदा हज़ार करता है, 
कोई झेलता है घाव तो कोई घाव हज़ार करता है, 
मिन्नतों के साथ कोई मन्नत हज़ार करता है, 
मैं दुख पढ़ता हूँ अपना और 
ज़माना हँस हँस कर बात करता है, 
चुपके चुपके वह बातों में अपनी शिकायत करता है, 
कोई कहता है ख़ुद का क़िस्सा अनोखा और
 कोई दुख की भरमार करता है, 
अलग-अलग प्रसंग हैं यहाँ तमाम के, 
अनोखा रंगमंच है यह ज़िन्दगी, 
किरदार में रह कर लोग अभिनय शानदार करते हैं, 
कोई पहुँचता है सीधे और कोई मार्ग हज़ार करता है, 
धीरे-धीरे सपनों के कोई सौदे हज़ार करता है, 
कोई रखता है धीरज तो कोई आक्रोश हज़ार करता है, 
धीरे-धीरे सफलता का कोई सफ़र हज़ार करता है, 
मैं कहता हूँ सत्य और 
ज़माना मुँह से वाह वाह करता है, 
पीठ पीछे क्या पता तानों की बौछार करता है, 
भाईचारा यानी क्या! 
जिसमें राजा बने रंक के महल में रंक राज करता है। 

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