आज ख़ुश तो बहुत होगे तुम 

15-10-2023

आज ख़ुश तो बहुत होगे तुम 

वीरेन्द्र बहादुर सिंह  (अंक: 239, अक्टूबर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)


‘दीवार’ और हाजी मस्तान
 

अंडरवर्ल्ड पर फ़िल्मेंं बनाने का चलन मूल तो हॉलीवुड का है। माफ़िया शब्द इटालियन ‘माफियुसी’ से आया है, जिसका अर्थ होता है ‘शेरदिल’। हॉलीवुड में ‘गुड फेलास’, ‘द बिग हिट’, ‘गाडफादर’, ‘स्कारफेस’, ‘वंस अपॉन ए टाइम इन अमेरिका’ और ‘केसिनो’ जैसी फ़िल्मेंं बनी हैं और जिनकी अनेक विदेशी सिनेमा में नक़ल भी हुई है। भारत में संगठित अपराध की शुरूआत हुई 1940 से और इसके 3 संस्थापक थे, हाजी मस्तान, वरदराजन मुदलियार और करीम लाला। ये तीनों स्मगलर और गैंगस्टर थे। 80 के दशक में दाउद इब्राहिम का उदय हुआ और वह सही अर्थ में ‘माफ़िया’ बना। ‘दीवार’ 1975 में माफ़िया फ़िल्म नहीं थी, पर यह पहली हिंदी फ़िल्म थी, जिसके हीरो की प्रेरणा असली गैंग लीडर हाजी मस्तान से ली गई थी। 

‘दीवार’ दिलीप कुमार की ‘गंगा-जमुना’ (जिसमें दिलीप कुमार डाकू बन जाते हैं और उनके भाई नासिर हुसैन पुलिस आफिसर) और महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ (जिसमें एक आदर्श माँ अपने अपराधी बेटे को गोली मार देती है) का शहरी स्वरूप था। ‘दीवार’ में माँ, दो भाई और माँ-बेटे का, ये दोनों एंगल थे और उसमें हाजी मस्तान का चरित्र जोड़ा गया था, जो उसके गोदी कामदार तक मर्यादित था। 

‘रिटन बाई सलीम-जावेद’ नाम की किताब में सलीम खान ने कहा है, “मस्तान ने ही इस फ़िल्म को अपने जीवन की कहानी होने का दावा कर के अपनी महिमा बढ़ाई थी।” अमिताभ बच्चन ने एक इंटरव्यू में कहा था, “विजय का पात्र आंशिक रूप से हाजी मस्तान पर आधारित था। मैंने एक बार महालक्ष्मी रेसकोर्स पर हाजी मस्तान को देखा था।” अमिताभ ने कहा था, “वह एकदम स्थिर और सीधी तरह टुकुर-टुकुर देखता था और मुझे वह बहुत दिलचस्प लगा था। उसकी आँखें हमेशा नम रहती थीं।”

1926 में तमिलनाडु के रामनाथपुरम के नज़दीक पनाइकुलम गाँव में पैदा हुआ मस्तान हैदर मिर्ज़ा 17 साल की उम्र में मुंबई आया था और गोदी कामदार के रूप में काम करना शुरू किया था। उस समय समुद्र द्वारा स्मगलिंग होती थी और धीरे-धीरे उसकी रीति-नीति हाजी की समझ में आ गई। इसके बाद उसने ट्रांजिस्टर और घड़ियों की तस्करी शुरू की। मझगाँव गोदी पर उस समय पठान गैंग गोदी कामदारों से वसूली करता था। हाजी ने उनका आतंक कम करने के लिए 10 लोगों की टोली बना कर पठानों को मारमार के लस्त कर दिया था। फ़िल्म ‘दीवार’ में यह काम विजय ने अकेले किया था। 

‘ज़ंजीर’ (1972) में विजय के तेवर देखने में बाद सलीम-जावेद ने अमिताभ को ध्यान में रख कर ‘दीवार’ का रोल लिखा था। चोपड़ा को जब इस स्क्रिप्ट के बारे में पता चला था, तब उन्होंने राजेश खन्ना के साथ यह फ़िल्म करने का प्रस्ताव रखा था। पर सलीम-जावेद ने अमिताभ का आग्रह किया था। फ़िल्म ‘दीवार’ के निर्माता गुलशन राय ने खन्ना को साइन भी कर लिया था। एक इंटरव्यू में खन्ना ने कहा था, “सलीम-जावेद से मेंरे मतभेद थे, उन्हें अमिताभ को ले कर फ़िल्म करनी थी। पर ‘दीवार’ की दो रील देख कर मैंने कहा था, ‘वाह क्या बात है’।”

हाजी मस्तान का भी मत ऐसा था। मस्तान ने ‘दीवार’ की कहानी सुन कर वरिष्ठ पत्रकार अली पीटर जाॅन से तब कहा था, “मस्तान का रोल करने के लिए बेस्ट एक्टर चुना है इन लोगों ने। यूसुफभाई के बाद अगर कोई बढ़िया एक्टर इस देश में हुआ है तो वह है अमिताभ बच्चन। वह ज़रूर मेरे किरदार में जान डालेगा।”

अमिताभ के भाई के रूप में पहले शत्रुघ्न सिन्हा का विचार हुआ था। पर जावेद अख़्तर ने शशि कपूर को यह कह कर सेकेंडरी रोल के लिए मनाया था कि आप के हिस्से में एक अमर संवाद है: मेरे पास माँ है। शशि कपूर ने इसी एक लाइन के लिए अमिताभ के नीचे का रोल स्वीकार किया था। 

फ़िल्म ‘दीवार’ जैकपाट साबित हुई थी। जावेद अख़्तर अमिताभ बच्चन को ‘दीवार’ की स्क्रिप्ट सुना रहे थे, तब कुछ दृश्य के बाद बीच-बीच में वह अमिताभ से कहते थे, “ये आप के 15 हफ़्ते हो गए . . . ये आप के 25 हफ़्ते हो गए।” और स्क्रिप्ट पूरी कर के कहा था कि ये आप के 100 हफ़्ते हो गए। 

‘दीवार’ पूरे भारत के सिनेमा थिएटरों में 100 सप्ताह से अधिक समय तक ‘हाउसफुल’ की तख़्ती के साथ चली थी। इस फ़िल्म ने हिंदी सिनेमा के हीरो की शक्ल बदल दी थी और अमिताभ की व्यवस्था विरोधी ‘एंग्री यंगमैन’ और ‘एंटी हीरो’ की इमेज को पूरी तरह दर्शकों की चेतना में जड़ दिया था। 

जावेद अख़्तर कहते हैं, “अमितजी ने ‘ज़ंजीर’ में एंग्री यंगमैन का रोल किया था। पर उनका सिक्का चला ‘दीवार’ से। हम ने ‘मदर इंडिया’ और ‘गंगा-जमुना’ में एंग्री यंगमैन (सुनील दत्त और दिलीप कुमार) को देखा था, पर उसमें बहुत नौटंकी थी, क्योंकि उन फ़िल्मों में रोमांस था, तमाशा था और गाने थे। अमितजी के आने से एंग्री यंगमैन को पंख लगे। क्योंकि इसमें नौटंकी नहीं थी। उसका असर लोगों पर आज भी है।” 

फ़िल्म ‘दीवार’ में विजय के पिता (सत्येन कप्पू) के अंतिम संस्कार के दृश्य में अमिताभ ने ही यश चोपडा से कहा था कि अग्निदाह के समय वह अपने बाएँ हाथ में अग्नि पकड़ेगा, जिससे शर्ट की स्लीब्ज खिंचने पर दर्शक हाथ का टैटू ‘मेरा बाप चोर है।’ पढ़ सकें। यह अत्यंत प्रतीकात्मक दृश्य था। और पॉवरफुल साबित हुआ था। फ़िल्म ‘दीवार’ के विजय में अन्याय के प्रति इतना ग़ुस्सा था कि मात्र एक फाइट सीन होने के बावजूद पूरी फ़िल्म ऐक्शन फ़िल्म कही जाती है। फ़िल्म में हिंसा विजय के विचारों और प्यार में थी। 

‘दीवार’ में तमाम यादगार दृश्य व संवाद हैं। पर इसमें मंदिर का जो दृश्य है, वह अमिताभ के लिए बहुत कठिन दृश्य था। विजय नास्तिक और हमेशा मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा रहता है, पर वह नास्तिक नहीं है, गैरसांप्रदायिक है, और उसकी माँ और भाई दर्शन करने जाते हैं, इसके लिए उसे कोई परेशानी नहीं है। अमिताभ ने जावेद अख़्तर से कहा था कि मैं यह सीन नहीं कर सकता। यश चोपड़ा ने कहा था कि जितना समय चाहिए, वह देने को तैयार हैं। अमिताभ सुबह 11 बजे से रात 10 बजे तक सेट पर रहे थे और बीच-बीच में मेकअप रूम में जा कर शीशे के सामने इसका रिहर्सल किया था। 

अमिताभ कहते हैं, “हमें सुबह सीन शूट करना था। पर रात होते तक इसे किया। बहुत कठिन सीन था। विजय को ईश्वर में आस्था नहीं थी और माँ की बीमारी के कारण मंदिर जाना फ़र्ज़ बनता था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस सीन को कैसे करूँ। जावेद साहब ने कुछ संकेत दिए थे, क्योंकि उन्हें भी पता नहीं था मरने वाला आदमी क्या बोलता है।”

पूरे दिन राह देखने के बाद अमिताभ ने एक ही टेक में यह एकोक्ति की थी। हिंदी सिनेमा के इतिहास में यह दृश्य यादगार साबित हुआ। भारत की भक्ति परंपरा का सब से सशक्त दृश्य है। जिसमें मात्र ‘भक्त और भगवान’ ही है, बीच में कोई पुजारी, पुरोहित या कोई गुरु नहीं है। ईश्वर के साथ ‘नास्तिक’ विजय का यह डायरेक्ट डायलॉग था। 

“आज . . . ख़ुश तो बहुत होगे तुम। जो आज तक तुम्हारे मंदिर की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ा, जिसने आज तक तुम्हारे सामने सिर नहीं झुकाया, जिसने आज तक कभी तुम्हारे सामने हाथ नहीं जोड़ा . . . वो आज तुम्हारे सामने हाथ फैलाए खड़ा है।”

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