ठंडी सड़क (नैनीताल)-01
महेश रौतेला
‘चाँद के उस पार चलो’ फ़िल्म टेलीविज़न पर चल रही है। फ़िल्म के अन्तिम दृश्य नैनीताल के मैदान (फ़्लैट) में फ़िल्माया गया है। दृश्य लगभग रोमांटिक कहा जा सकता है। अन्त सुखान्त है। नायक और नायिका का मिलन। फ़िल्म तो समाप्त हो जाती है। लेकिन मल्लीताल के मैदान को देखकर मेरा मन उसके चारों ओर लधर जाता है। उस मैदान में नेताओं के भाषण भी सुने। खेल भी देखे। और ठंडी सड़क से जो विद्यार्थी लघंम, एसआर, केपी छात्रावासों से आते थे उनके दर्शन भी यदा-कदा हो जाते थे। मन की परतें जब खुलती हैं तो सबसे पहले वहाँ प्यार ही दिखायी देता है और बातें धीरे-धीरे आती हैं। कृष्ण भगवान को हम सबसे पहले उनके प्यार के लिए याद करते हैं और बाद में गीता के लिए। अयारपाटा को जाते रास्ते के सामने खड़े होकर पेड़ों और पहाड़ की छाया को बढ़ता देखता हूँ। जो दिन ढलने के साथ बढ़ती जाती है। इस बीच ठंड भी बढ़ती जाती है। बहुत देर तक प्रतीक्षा रहती थी किसी की। इस प्रतीक्षा में बहुतों का आना-जाना होता था।
एक दोस्त किसी को चाहता था, वह खड़े बाज़ार में रहती है, दूसरी मंज़िल पर। हम दो-तीन दोस्त उससे कहते थे, “तूने उसमें क्या देखा!”
वह कहता, “मुझे अच्छी लगती है।”
एक दोस्त फिर उससे कहता है, “एकदम बन्दर की तरह उसका मुँह है, छोटा-छोटा!”
वह कहता, “मुझे अच्छी लगती है।”
उसको चिढ़ाते-चिढ़ाते कंसल बुक डिपो के पास कैफ़े में समोसा और चाय पीते हैं। अब बातें प्यार से पढ़ायी पर आ जाती हैं। क्वान्टम सिद्धांत, कणों की तरंग गति, प्रकाश विद्युत प्रभाव (फोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट) आदि।
ठंड का स्वभाव जानना हो तो नैनीताल जाना चाहिए। ऐसी भावना मन में आती है। प्रशासनिक सेवा की परीक्षा देने के इरादे से एक बार कंसल बुक डिपो से इतिहास की मोटी किताब ख़रीद डाली। बाद में लगा किताब से अधिक वज़न उसकी अंग्रेज़ी का है। मुझे लगा कि अंग्रेज़ी के लिए अलिखित आरक्षण हमारी विदेह स्वतंत्रता में दिया गया है। अपने-अपने स्वार्थों के कारण हम इस पर ध्यान नहीं देते हैं। विदेह स्वतंत्रता पर देश रेंग तो सकता है लेकिन खड़े होकर चल नहीं सकता है।
दुकान से निकलते ही मुझे हमारी कक्षा की सहपाठी मिली। उसने मुझे बधाई नहीं दी, प्रथम आने की। उसकी द्वितीय श्रेणी आयी थी, तो मेरा बधाई देना तो उचित नहीं था। मैंने सुना था जब परीक्षा परिणाम आया था तो उस दिन वह बहुत रोयी थी।
मैं रिक्शा स्टैंड के पास पेड़ों के नीचे बैठ बीते युग को देखने लगा। मेरा दोस्त जो गर्मी के दो महीनों में पास के क्लब में काम करता था, उसकी बातें याद आने लगी। वह रात दो बजे डेरे में पहुँचता था। रास्ते में क़ब्रिस्तान पड़ता था, जिम कार्बेट के आवास (गर्नी हाउस) के पास। वह कहता था रात को एक बच्चा क़ब्रिस्तान से उसके साथ आता है और उसे छोड़ कर जाता है। एक दिन उसके साहस की मैंने परीक्षा लेनी चाही। मैं रात को डेरे (कोठी) के सामने के पेड़ की डाल पर बैठ गया और ज्योंही वह वहाँ पर पहुँचा, नीचे कूद गया। वह डर से घबरा गया और बेहोश हो गया। पाँच मिनट हिलाने के बाद होश में आया। मैंने कहा, “अरे विवेक, मैं हूँ।” उस दिन से उसकी सभी साहसिक गपों पर विराम लग गया। वह तीन साल से एक ही कक्षा में था। एक दिन उसके दोस्त से पता चला कि वह एक लड़की को पसंद करता है जो क्लब आया करती है। उसी से मिलने के लिए वह क्लब में काम करता है।
मुझे याद आया एक दिन कैपिटल सिनेमा घर में हमारा एक दोस्त लोकेश अकेले फ़िल्म देखने गया था। वहाँ सीमा अपनी मौसी के साथ आयी थी। मौसी ने धोती पहनी थी और पल्लू से सिर ढका था। वे आगे-पीछे बैठे थे। सीमा बोली, “कुछ बोलो।”
लोकेश चुप रहा। जब फ़िल्म समाप्त हुई तो सीमा ने अपना पता लिखा काग़ज़ लोकेश को दिया। साल में कई बार वह उस पते के अग़ल-बग़ल गया लेकिन घर तक कभी नहीं पहुँच सका। ‘लड़कियों की उम्र किसी का इंतज़ार नहीं करती है’। यह उक्ति उन दिनों बुज़ुर्गों की वाणी में सुना करते थे। हल्की धूप से ये रिश्ते हल्की उष्मा दे जाते हैं और दिन ढलते ही उछा (अस्त) भी जाते हैं।
आजकल भी शादी की बातें बहुत जगह होती हैं। साथ-साथ फोटो खींचकर उन तस्वीरों का दोस्तों में आदान-प्रदान भी हो जाता है और फिर कुछ समय बाद पता चलता है कि शादी कहीं और तय होने जा रही है।
तैंतालीस साल बाद मैं नैनीताल गया। माडर्न बुक डिपो में एक महिला को देखा। मैंने कुछ जानकारी लेने के लिये पूछा, “आप नैनीताल में रहती हैं क्या?” उसने हाँ में उत्तर दिया।
मैंने पूछा, “सामने डीएसबी के एक प्राध्यापक अक़्सर खड़े रहते थे। वे अभी यहाँ आते हैं क्या? मैं डीएसबी में पढ़ा हूँ।”
उसने कहा, “नहीं अब नहीं दिखते हैं। मैंने भी डीएसबी में पढ़ा है। मेरा नाम सीमा है।”
मैंने कहा लोकेश तो अब नहीं है। वह बोली, “हाँ उसके तीन दोस्त थे।”
मैंने अपना परिचय दिया। वह बोली, “लोकेश को मैंने आपको देने के लिए अपना पता दिया था। आप मेरा पहला प्यार हैं,” फिर मुस्करायी।
मैंने कहा, “मुझे कोई पता लोकेश ने नहीं दिया था।”
बहुत बातें होती थीं लेकिन असली बात नहीं हुई।
बाहर आकर हम बेंच में बैठ कर बातें करने लगे। संवेदनाओं और अनुभूतियों का उल्ट-पुल्ट हो रहा था। लग रहा था जैसे अंधाधुंध बर्फ़ गिर रही हो। दुकानें, बाज़ार, झील, पहाड़ियाँ पहले जैसी लग रही थीं। वह अपने माँ के साथ रहती थी। उसने अपना फोन नम्बर दिया और अब चलती हूँ कह कर उठी और झट से मुझे चूमा। मैंने कहा, “तुम तो अमेरिकन हो गयी हो।”
मैं उसे जाता देखता रहा और उसने दो बार पीछे मुड़कर देखा। मैं होटल में जाकर सोच रहा था, ऐसा क्यों हुआ होगा?
केपी छात्रावास में एक बार हम दो दोस्त किसी सांस्कृतिक काम के संदर्भ में गये थे। कुछ देर बाद एक छात्रनेता भी अपने समर्थकों को लेकर वहाँ आ गया। छात्रसंघ के चुनाव चल रहे थे। वह किसी लड़की से अनुरोध कर रहा था कि हल्द्वानी से फलाने-फलाने को बुला दे, प्रचार के लिए। वैसे जिनको बुलाने के लिए कह रहा था वे एक साल पहले पढ़ायी पूरी कर निकल चुके थे। उनके पहिचान और प्रभाव का उपयोग करना चाहता था। आख़िर चुनाव, चुनाव ही होते हैं। जिजीविषा को जगाने वाले!
फिर मेरा मन मैदान के किनारे आकर गुनगुनाता है:
ठंड में मूँगफली, सिर्फ़ मूँगफली नहीं होती,
प्यार की ऊष्मा लिए
पहाड़ की ऊँचाई को पकड़े होती हैं।
हाथों के उत्तर
चलते क़दमों के साथी,
क्षणों को गुदगुदाते
बातों को आगे ले जाते,
सशक्त पुल बनाते
उनको और हमको पहिचानते,
तब मूँगफली, सिर्फ़ मूँगफली नहीं होती।
(वही मूँगफली जो साथ-साथ मिलकर खायी थी)
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