रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 50
ऑटो से आते-जाते थुम्बा से त्रिवेंद्रम के बीच में ही वेली टूरिस्ट विलेज भी पड़ता था। जिसकी हर बार झलकियाँ मिलती रहतीं।
रिज़र्व ऑटो-रिक्शा से अब तक के आने-जाने में राजीव के हो रहे अपव्यय पर विचार करके मेघना ने कहा, “आज बस से चला जाए। इस बात पर क्या विचार है आपका जीजू-दीदी?”
“मुझसे क्या पूछना? . . . मैं तो आप दोनों का ग़ुलाम हूँ . . . जो आज्ञा दीजिए . . . मेरे लिए सिर आँखों पर,” हँसते हुए आत्मसमर्पण करते हुए राजीव ने कहा।
बस में उनके आपसी बातचीत हिंदी में सुनकर एक मलयाली भाषी महिला उनकी ओर आकर्षित होकर सामने आई।
अपने परिचय में अस्फुट (जो साफ़ ना हो) बताई कि हिंदी भाषा के प्रति अत्यधिक लगाव के कारण त्रिवेंद्रम विश्वविद्यालय से वह हिंदी में स्नातकोत्तर यानी M.A. कर रही है। यहाँ पर किसी अच्छे हिंदी के जानकार से बातचीत करके आपसी संवाद के ज़रिए भावाभिव्यक्ति संबंधित झिझक मिटाने में दिक़्क़त होती है।
औपचारिक परिचय के बाद वह पूछती है, “आपका . . . भर्ता . . . क्या करता है?”
रागिनी मलयाली टोन में इस वाक्य के अर्थ समझने में असमर्थ रही। कुछ देर के लिए आश्चर्य से उसे देखते हुए उसके हाव-भाव और अर्थ के प्रति स्पष्टीकरण के लिए पूछी, “क्या?”
फिर वह राजीव के प्रति संकेत करती हुई, “वह आपका हसबैंड (भर्ता)!”
रागिनी सुनकर एक ठहाका मारकर हँस पड़ी, “भर्ता संस्कृत में है। जिसका अपभ्रंश भर्तार होता है। हिंदी में पति कहलाता है।”
“अच्छा! . . . ऐसा क्या? . . . हमारे किताब में भर्ता लिखा है . . . इसलिए ऐसा मैं बोली।” भाषा संबंधी छोटी-छोटी अशुद्धियों (लिंग, वचन, क्रिया संबंधित सावधानियों) के प्रति समझते-समझाते हुए ऐसे ही एक-डेढ़ घंटे का समय उन मलयाली महिला से बातों-बातों में कैसे निकल गया कुछ पता ही नहीं चला।
जिसे देखकर राजीव ने चुटकी लेते हुए कहा, “लो हिंदी की मैडम को राह चलते विद्यार्थी मिलते रहते हैं। जानती हैं मेघना! रागिनी का स्कूल, घर-बाहर, राह चलते, बस में, कहीं भी, कभी भी उपलब्ध है। इसे कहते हैं दीवानगी। धन्य हो देवी!” हाथ जोड़ते हुए बोले, “वो क्लास भी इतना अपनत्वपूर्ण ज्यों, जाने कितने जन्मों का रिश्ता हो?”
“तो इससे आपको क्यों ईर्ष्या हो रही है? मेरे उसके बातचीत में आपका क्या घट गया?”
अक्टूबर के महीने में केरल में अच्छी वर्षा होती है। जिसके कारण धूप-छांँव के लुका-छिपी में बादलों का बरसना और छिप जाना कोई बड़ी बात नहीं है। सड़क पर कहीं-कहीं गड्ढों में जमा पानी देखकर करुणा का अपना प्रिय काम उन गड्ढों में छुबकने की आतुरता को नियंत्रित करने के लिए गोद में लेने की विवशता थी। या तो संयुक्त रूप में पकड़ कर चलने की। ताकि जैसे ही गड्ढे दिखाई देते राजीव और रागिनी करुणा के हाथों को पकड़े हुए ऊपर की ओर उठा देते। जिससे वह गड्ढे तक पहुँच नहीं पाती तो फिर छुबकती कहाँ?
पहली बार करुणा किसी चिड़ियाघर में जा रही थी। अभी तक तो बहुत सीमित रूप में पशुओं-पक्षियों को देखी-जानती-समझती थी। अब तक तो उसने ज़्यादा से ज़्यादा डिस्कवरी और एनिमल प्लैनेट पर ही तो देखा था। जिससे उसकी बौद्धिक क्षमता बेहतर हुई थी जिसमें कोई संदेह नहीं था।
हाथी तो दक्षिण भारत के प्रत्येक त्योहार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उत्तर भारत में जैसे हनुमान जी का मंदिर हर कहीं उपलब्ध है वैसे ही दक्षिण भारत के गली-मुहल्लों में छोटा-बड़ा एक न एक गणेश मंदिर मौजूद हैं।
साफ़-सुथरे व्यवस्था के साथ केरल के त्रिवेंद्रम का चिड़ियाघर बेहतरीन रख-रखाव के साथ अपने अति विशिष्ट रूप में है। बाहर में ही टिकट काउंटर पर आदमी के साथ-साथ कैमरा या विडियो रिकॉर्डिंग के लिए उचित मूल्य चुका कर प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते हुए, सघन पेड़ों की छाया में प्रत्येक सुविधा का बेहतरीन लाभ उठाने की व्यवस्था है।
और फिर क्या? करुणा का उल्लसित शोर भी अपने चरम पर था। जितना कुछ जानती थी उसे पहचानने के बाद ज़ोर से चिल्लाती और जो भूल गई थी या अनभिज्ञ थी तो हर उत्सुकतावश सवाल के साथ पूछती, “ये क्या है माँ? . . . हो . . . हिरण . . .! . . . शुतुरमुर्ग! . . .
“हाथी मोर . . . बाघ! . . . शेर . . . मगरमच्छ! . . . बंदर! . . . जिर्राफ!
“. . . . . . हिप्पो! . . . . . . . . गैंडा!”
यह जियोलॉजिकल गार्डेन भारत में सबसे बड़े विशालकाय एनाकोंडा से लेकर एक से एक सरीसृपों का केंद्र है . . . प्रत्येक बाड़े के पास करुणा बिंदास उछलती-कूदती, गाती हुई नाचना शुरू कर देती। वह भी इस हद तक कि आते-जाते लोगों की उत्सुकता का केंद्र बिंदु बन जा रही थी। मुस्कुराते हुए लोग चिड़ियाघर के जानवरों के बदले उसके शरारती अंदाज़ को देखने लगते।
शरारती बेटी के पिता राजीव ने रागिनी से कहा, “यहाँ पूरे चिड़ियाघर के जानवरों से ज़्यादा मज़ेदार तो तेरी बेटी है। देखो कैसे लोग मुड़-मुड़ कर उसे ही देख रहे हैं। बिलकुल तुझ पर ही गई है।”
“मुझसे तो इसकी न शक्ल मिलती है और न ही अक़्ल! अब ज़बरदस्ती मेरी तुलना, मेरी बेटी से कर रहे हैं तो मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है। आख़िर मैं उसकी माँ हूँ। पर जाकर किसी से भी पूछिएगा तो सभी आपसे कहेंगे कि आप पर बेटी गई है,” हँसते हुए रागिनी ने, राजीव का प्रतिवाद किया।
नेपियार संग्रहालय भारत के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक है। जो भारतीय सीरियन वास्तुशैली में निर्मित है। जहाँ पर ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तुएँ, मूर्तियाँ, आभूषण, हाथी दाँत की कलात्मक वस्तुएँ तथा 250 वर्ष पुरानी आकर्षक नक़्क़ाशी की कलात्मकता है। जिसमें मेघना का मन तो बिलकुल ही नहीं लग रहा था। वह सिर्फ़ औपचारिकता पूरी करते हुए देखकर करुणा को लिए हुए बाहर एक तरफ़ बैठ गई। रागिनी की स्वाभाविक कमज़ोरी है प्राचीन विरासत! जिनके कण-कण में व्याप्त अपने देश की संस्कृति की उज्ज्वल-मनोरम झलकियाँ देखती है।
श्रीचित्रा कला दीर्घा जो नेपियार संग्रहालय के आस-पास ही है। पर थोड़ी देर होने से नहीं जा पाए क्योंकि तब तक बंद हो गया था।
जलीय जीवों का एक अलग संग्रहालय भी है। जो देखने गए थे। जिसमें अलग-अलग क़िस्मों की रंग-बिरंगी सैंकड़ों प्रजातियों से परिचित होने का अवसर मिला।
कोवलम बीच के लिए रविवार के प्रतीक्षा में ‘पानी-पानी हो गया आदमी’ कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हद वर्षा हुई थी उस दिन! ज्यों आज छोड़, कल नहीं होना है। बहुत बुरी तरह से उतनी दूरी तय करके शहर के अलग छोर पर पहुंँचने के बाद मिला भी तो क्या? बरसती तीव्रत्तर जल धार! उफ़्फ़ हद तक वर्षा में राजीव, रागिनी, करुणा, मेघना और चाची के साथ में अन्य सैंकड़ों लोगों ने भी केरल के बरसाती ज़िद्दी स्वभाव का अनुभव किया था।
एयरपोर्ट के पास में एक दिन मेघना के सरकारी कैंटीन से ख़रीदारी के लिए जाने पर हवाई-जहाज़ की आवाज़ और उड़ान भरने के लिए आते-जाते देखकर वैसे ही निष्पाप विजित मुस्कान भरती हुई, “अरे! . . . ये आया . . . ये गया हवाई-जहाज़! . . .” मेघना को अजीब लग रहा था, “अरे दीदी सँभालो अपनी बेटी को!”
यूँ ही थुम्बा के अंतरीक्ष प्रक्षेपण केंद्र घूमने में एक दिन बीता। और इस तरह कैसे आठ-नौ दिन तो यूँ ही बीत गएँ? अंततः वापस मंजेश्वरम लौटने का दिन भी आ गया था। जब अपनी सारी भावुकता को समेटे राजीव और रागिनी अपनी बेटी के साथ वापसी के लिए निकल पड़े।
करुणा के लिए कान की नन्ही सी बालियाँ उसके उम्र और अवस्था के हिसाब से जो जानबूझ कर छोटा सा पसंद किया गया था। जिसे पहनने के लिए बेटी अति उत्साहित थी। अरे पालघाट में ही तो करुणा को कान छिदवाने के लिए सभी दबाव डाल रहे थे, क्योंकि दक्षिण भारत में बच्चे के जन्म के चालीसवें दिन ही रिवाज़ रूप में लड़का हो या लड़की दोनों के कर्ण-बेधन किए जाते हैं।
ब्यूटीपार्लर में पता करने वह गई थी। रागिनी को सुन कर हैरानी हुई थी। कान छेदने के लिए उस समय उस ब्यूटीपार्लर वाली ने 600 रुपए माँगे थे। पता नहीं किस गनशॉट से वह कान छेदने वाली थी? ये तो वही जाने।
तो वही कान छेदने में मंजेश्वरम में सौ रुपए लगे। सबसे बड़ी विस्मय की बात थी कि करुणा उस सोने की बालियाँ पहनने के अति उत्साह में बिल्कुल नहीं रोई थी। उसके बदले में भावुकतावश रागिनी के आँखों में आँसू निकल आए थे।
<< पीछे : नन्हा बचपन 49 क्रमशःविषय सूची
- नन्हा बचपन 1
- नन्हा बचपन 2
- नन्हा बचपन 3
- नन्हा बचपन 4
- नन्हा बचपन 5
- नन्हा बचपन 6
- नन्हा बचपन 7
- नन्हा बचपन 8
- नन्हा बचपन 9
- नन्हा बचपन 10
- नन्हा बचपन 11
- नन्हा बचपन 12
- नन्हा बचपन 13
- नन्हा बचपन 14
- नन्हा बचपन 15
- नन्हा बचपन 16
- नन्हा बचपन 17
- नन्हा बचपन 18
- नन्हा बचपन 19
- नन्हा बचपन 20
- नन्हा बचपन 21
- नन्हा बचपन 22
- नन्हा बचपन 23
- नन्हा बचपन 24
- नन्हा बचपन 25
- नन्हा बचपन 26
- नन्हा बचपन 27
- नन्हा बचपन 28
- नन्हा बचपन 29
- नन्हा बचपन 30
- नन्हा बचपन 31
- नन्हा बचपन 32
- नन्हा बचपन 33
- नन्हा बचपन 34
- नन्हा बचपन 35
- नन्हा बचपन 36
- नन्हा बचपन 37
- नन्हा बचपन 38
- नन्हा बचपन 39
- नन्हा बचपन 40
- नन्हा बचपन 41
- नन्हा बचपन 42
- नन्हा बचपन 43
- नन्हा बचपन 44
- नन्हा बचपन 45
- नन्हा बचपन 46
- नन्हा बचपन 47
- नन्हा बचपन 48
- नन्हा बचपन 49
- नन्हा बचपन 50