रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 30

 

काले-काले बाल सामान्यतः मोटे और घने होते हैं। जो कठोर और रुखे रहकर भी मज़बूत रह सकते हैं पर इसके ठीक उलटा सुनहरे रेशमी बालों में कम घनापन होता है। दोनों की अलग विशेषताएँ और सौंदर्य होते हैं। 
दस-ग्यारह साल की उम्र से ही अपने बालों के प्रति संवेदनशील रागिनी बहुत ध्यान रख रही थी। आँवला, रीठा और शिकाकाई के देख-भाल में रागिनी के सुनहरे बाल रेशमी और मुलायम कितने लम्बे-लम्बे थे। जिनकी कोमलता और सुंदरता की देखभाल में लगने वाले समय और संसाधनों पर अक़्सर टीका-टिप्पणी जारी रहती। इस कारण एक अलग तनाव रागिनी लेती। शारीरिक-मानसिक तनाव, परेशानी चाहे किसी भी कारण से हो, कोमल रेशमी बाल बहुत जल्दी झड़ने लगते हैं। 

ये वही समय था, रागिनी छह महीने की अपने गर्भावस्था में थी। करुणा के जन्म से पहले जब राजीव के कहने पर अपने झड़ते बालों का मोह-त्याग कर कटवा रही थी। 

“इतना फ़ुर्सत लेकर दिन भर अपने बालों को लेकर बैठने से तो घर के काम हो जाएँगे। बालों में सर्फ—साबुन जो कुछ भी मिल जाए प्रयोग करते; अधिकांशतः लाइफबॉय साबुन घिस कर, सरसों तेल लगा कर भी ये देखो मेरे घने-घने काले बाल! . . . तुम्हारे इतने नाज़ों-नखरे के बाद भी खोपड़ी में चार बाल हैं केवल।” सासु माँ के कटाक्ष उभरते। 

हाँ, ये भी सच्चाई है कि उनकी उम्र की इस अवस्था में भी बहुत अच्छे बाल हैं। हालांँकि ये आनुवंशिक विरासत रूप में उन्हें प्राप्त हैं। सासु माँ ख़ुद से और अपनी बहू की तुलनात्मक आकलन कर अक़्सर चिढ़ाती। एक दिन सुना . . . दो दिन सुना . . . रोज़ाना . . .

कई बार सुनने के बाद आख़िरकार राजीव ने एक दिन अपनी बहन की सहेली को बुला कर आधे बाल कटवा दिए। बाल काटने के नाम पर उस लड़की को बहुत मोह लगे, परन्तु “झड़ते बालों के लिए लम्बाई ज़रूरी नहीं।” कह कर ख़ुद ही कैंची लेकर काटने लगा। अब उन कटे बालों को सुव्यवस्थित करने के लिए उसे मजबूर हो कर ठीक करना पड़ा। 

इस तरह से बीती कहानी बनकर तेरह-चौदह साल का परिश्रम समाप्त हो गया। समय के साथ इस तरह कटते-कटते बाल अब कंधे पर आकर सिमट गए। जिनकी देखभाल के लिए अतिरिक्त समय एवं संसाधनों की कोई आवश्यकता नहीं। कहीं और कभी के लिए पाँच से दस मिनट में झटपट तैयार हो जाओ। 

“कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना” कहावत चरितार्थ करती हुई सासु माँ को कहने के लिए अब एक नई कहानी मिल गई, “लम्बी चोटी दिखा कर मेरे बेटे को फँसाई . . . अब मँग मुरली चिड़िया बन कर घूमती है। कितने सुन्दर बालों का विनाश कर दी।”

तब से अब तक इस पवित्र वचन को सुने बिना रागिनी के बालों का कटना सफल और सार्थक नहीं होता। सुन्दर बालों के विनाश करवाने वाली के श्री मुख से सुनकर भी रागिनी मुस्काती है। 

वैसे विचित्र व्यक्तित्व हैं रागिनी की सासु माँ! चलो आज और कुछ विस्तार से उन पर चर्चा करती हूँ। 

सामने ईश्वर भी आ जाएँ तो हज़ार नुक़्स निकाल सकती हैं। यह काम वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं। अपना हित साधने के लिए बड़ी आसानी से दल बदलने में कुशल! . . . दल-बदलू . . .! गंगा गए गंगा दास, यमुना गए यमुना दास की तरह कूटनीतिज्ञ! यदि वो राजनीति में आएँ तो माया, ममता, जयललिता की श्रेणी की सफलतम सिद्ध अगली कड़ी होगी। इसमें कोई दो राय नहीं। 

माँसाहारी थी कभी। पर अंडा और चिकन नहीं खाती। मटन अवश्य खाती थी। कच्ची सब्ज़ी-फलों और अनाजों में जीवित कीड़े दिखाई दे देने पर वह सब्ज़ी, फल, अनाज साफ़-सफ़ाई करके पकाने पर भी उनके लिए त्याज्य हैं। वह दूसरों को खिला देंगी पर ख़ुद नहीं खाएँगी। 

उनके लिए साल भर में चाहे कोई भी मौसम हो तेल मालिश आवश्यक है। कोई कर दे ठीक, वरना ख़ुद को बिना नागा, तेल मलने से नहीं चूकती। कपड़ों में लगे तेल छुड़ाने के लिए चाहे सस्ता–महँगा कोई सर्फ़ हो; सबको एक समान भरपूर छिड़क-छिड़क कर कपड़े पर डाल-डाल कर, रगड़-रगड़ कर साफ़ करेंगी। 

ये आदतें उनके नहाते-धोते, प्रत्येक काम और व्यवहार में है। साँवले शरीर को इतना मल-मल कर नहाना है ज्यों अपने आप को वह अभी छील कर गोरा कर लेंगी। साफ़-सफ़ाई में अति सावधान रहते हुए प्रतिस्पर्धी भाव जगाती हुई पसंदीदा तकिया कलाम है उनका, “काली कलूटी हूँ तो क्या हुआ? हमेशा स्वच्छ-सुगंधित रहना मेरी आदत है। तुम कैसे रहती हो?” अर्थात्‌ पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर साफ़-सफाई के नाम पर जेठानी-देवरानी वाली प्रतिस्पर्धा में शामिल तुम भी रहो। रागिनी के लिए संकेत होता। पर वह सुनकर-समझकर भी अपनी किताबों में उलझी रहना अपनी प्राथमिकता समझती। जिससे सासु माँ अक़्सर चिढ़ कर व्यंग्य करतीं, “बुढ़िया हुए जा रही पर किताब-कॉपी छूट ही नहीं रहा।”

किसी और का किया गया काम उन्हें कभी भी पसंद नहीं आता। वार्षिक परीक्षा में सफल होना; मुश्किल से मुश्किल सूत्र और फार्मूले रट लेना या समझ लेना; थोड़ी सी मेहनती कोशिश से सहज और सरल है। पर उनकी उम्मीदों पर खरा उतरना बेहद जटिल, संवेदनशील, असंभव और मुश्किल होगा। 

आज जो तरीक़ा उनके लिए सहज-स्वीकार्य है, कल नहीं होगा। कल पूरी तरह उन नियमों और शर्तों को पूरा करने के बावजूद आदमी! ग़लत सिद्ध हो सकता है। यद्यपि पूरी तरह अँगूठा छाप हैं पर विद्वानों और विद्वता का मज़ाक़ उड़ाना पसंदीदा शौक़ है। 

इंसान के आंतरिक गुणों की अपेक्षा बाहरी दिखावे के समर्थन में भरपूर विश्वास रखती हुई अपनी संपूर्ण ऊर्जा का नब्बे प्रतिशत इसी काम में व्यय करती हैं। दूसरों की बहू-बेटियों से संबंधित किसी भी चर्चा में भरपूर स्वाद लेने का कोई अवसर नहीं चूकती। 

सौ प्रतिशत खरे सोने की भी सकारात्मक समीक्षा कम और भरपूर नकारात्मक समीक्षा चाहिए तो प्रस्तुत कर दो उनके सामने और फिर देखो मज़ा। पक्षपात के भरपूर हिमायतियों में, और अन्याय को न्याय, न्याय के बदले अन्याय करने बहुत ख़ूब आता है उन्हें। 

देशज मुहावरे और लोकोक्तियों का सफल प्रयोग करने वाले शब्दों का चलता-फिरता शब्दकोष! अपनी लोकभाषा का पूर्ण जानकर। एक और मतभेदों में . . . घूंँघट के मामले में, अपने सभ्य कपड़ों और बर्ताव के बावजूद जिसमें कहीं भी फ़िट नहीं बैठती थी रागिनी! आदर्श बहू की उनकी परिभाषा अनुसार, “जो बहू अपने ससुर-भसुर से पर्दा/घूंँघट करती है। वही आदर्श बहू है।” एक नहीं हज़ारों बार इस मामले में अनावश्यक दबाव देखकर-सुनकर; और उनकी प्रत्येक उस आदर्श बहू को अपनी घूंँघट की आड़ से ही यौन-लैंगिक उत्तेजक शब्दों के प्रयोग संग गाली-गलौज करते, देखने के बाद अन्ततः मौन करने का दृढ़ निश्चय करके एक-दो बार रागिनी हँसते हुए पूछ बैठी, “भले ही ससुर-भसुर के साथ उस घूंँघट की ओट से वह कितनी भी अभद्र-अश्लील भाषा में गाली-गलौज कर ले। मार-पीट, उठा-पटक कर ले। वह संस्कारी बहू है। है ना माँ?” 

बहुत जल्दी किसी व्यक्ति, बात और विषय से ऊब जाने वाली। किसी की नेकी और अच्छाई में भी सीबीआई की तरह रहस्य का शाश्वत खोजी अन्वेषक! 

बड़ी और छोटी बहू के उलट रागिनी सम्मानवश अपनी नई और पुरानी साड़ियाँ अपने सासु माँ को पहनने के लिए अक़्सर आग्रह पूर्वक प्रस्तुत करती है बावजूद यहाँ समस्या है। 

विवाह के आरंभिक समय में रागिनी की माता जी ने कभी बेटी को समझाते हुए अपनी सास के प्रति एक बहू के कर्त्तव्य निर्वाह रूप में समय-समय पर सास को साड़ी-कपड़े देते रहना चाहिए। जिसके सम्मान में अनुकरण करने पर जब भी वह अपनी सास को कोई भी, किसी अवसर पर नई साड़ी देती है तो हर बार, वही रटा-रटाया शब्द सुनती है, “क्यों, ये साड़ी तुम्हें पसंद नहीं क्या?” 

तुरंत दुकान की ख़रीद कर दी गई, बहुमूल्य नई साड़ी मिलने पर भी पूछने से नहीं चूकती; “मायके की धरी-धराई साड़ी है क्या? जो तुम मुझ पर टाल रही।”

रागिनी के मासिक काल के दौरान दो दिन के लिए बीमार पड़ने पर चाहे-अनचाहे सासु माँ यदि घरेलू कामों में मदद रूप में झाड़ू, बरतन कर देती हैं तो ब्याज समेत इस काम का अहसान रूपी टोकरा अवश्यंभावी लाद देंगी। इसके बावजूद अंततः पूछेंगी, तब मुझे पोता कब दे रही हो? इससे बड़ा घातक व्यंग्य और क्या होगा बहू के लिए? 

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