रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 11

अँधेरे में टटोलता हुआ राजीव पीछे मुड़ता है। रागिनी अपने हाथों के बल पर गिरी पड़ी थी। सामने की ओर पूरा धड़ाम से पछाड़ खा कर गिरने के बावज़ूद, जाने-अनजाने ही प्रबल मातृत्व शक्ति के वशीभूत अपने हाथों पर भार देकर अपना पेट बचा लिया था। सब कुछ इतना क्षणिक और गतिशील रहा कि कुछ भी सोचने-समझने का अवसर ही ना मिला। घुटने और हथेलियों में अच्छी चोट आई पर पेट पर दबाव नहीं पड़ा। 

सहायता में हाथ बढ़ाते हुए राजीव ने पूछा, “तुम ठीक तो हो ना? पेट पर कहीं चोट तो नहीं आई?” 

“नहीं, हाथ और पैर छिल गया है,” कराहती हुई रागिनी ने कहा। 

फिर धीरे-धीरे राजीव की बाँहें थामें किसी तरह घिसटती हुई रागिनी आगे बढ़ने लगी। कुछ दिनों बाद ही वह ठीक हो पाई। 

रागिनी में शारीरिक और मानसिक परिवर्तन के साथ, बच्चे का शारीरिक विकास अपने हिसाब से हो रहा था जिससे उभरता पेट स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा था। बाहरी लोग भी अब देखकर पूछने और समझने लगे थे। “कोई शुभ समाचार है क्या?” 

परीक्षा ख़त्म हो जाने से बहुत हद तक वह, एक आंतरिक शान्ति का अनुभव करने लगी थी। जैसे एक बहुत बड़ा क़र्ज़, जीवन का उतर गया हो। पास या फ़ेल वो तो बाद की बात है। जिसके बारे में सोचने-समझने की ज़रूरत से परे होकर अब वह अपने मातृत्व और गृहस्थी के लिए पूर्ण समर्पित स्त्री के साथ-साथ आत्मनिर्भर शिक्षिका रूप में थी। 

जो बहुत नहीं तो भी कुछ तो था। अब उन पैसों से छोटी-मोटी आवश्यकताएँ आराम से पूरी हो जाती थीं। इधर अब तक उस पहले वाले चयनित नौकरी की नियुक्ति पत्र अभी तक नहीं आई थी जिसकी बेसब्री से इंतज़ार घर-बाहर, अपने-बेगाने सभी को था। 

इस बीच सम्मानित गुरुजनों के आग्रह पर बचे हुए समय में अन्य लड़के-लड़कियों को एम.ए. के अपने विषय से सम्बन्धित ट्यूशन पढ़ाने में राजीव व्यस्त था जिससे समय और पैसे के साथ-साथ उन लड़के-लड़कियों को शहर जाने-आने के झमेले से भी बचाव होता। 

बावजूद रह-रह कर उठ रहे मलाल से वह अक़्सर असंतुलित और असंतुष्ट हो जाता। निराशावादी विचारों में, अपने भाग्य और भगवान को कोसने लगता। 

एक रात जैसे ही रागिनी भोजन लेकर अपने कमरे में पहुँची; राजीव को गहन-गंभीर रूप में बैठे देखकर रागिनी ने उदासी का कारण पूछा। 

राजीव नकारात्मक उदासीनता में डूबा ख़ुद की योग्यता पर विचार करता असंतुष्ट मन, विचलित होकर प्रलाप करने लगा। रागिनी के समझाने-बुझाने पर और भी असहज होकर झल्ला उठा, “ये मेरे साथ ही क्यों हो रहा? सभी के लिए आगे के रास्ते खुल रहें पर मेरी राह इस तरह अंधकारमय भविष्य लिए हुए क्यों है? 

“आख़िर क्यों? मैंने किसका क्या बिगाड़ा है? इतनी मेहनत करता हूँ। ख़ून-पसीना लगाकर भारत का कोना-कोना, चप्पा-चप्पा ख़ाक छानने में क्यों बिताया? इसी बेरोज़गारी के लिए? कहाँ है तुम्हारा भगवान रागिनी? कहाँ है मेरा और तुम्हारा भाग्य? सौ से अधिक परीक्षाएँ दे चुका हूँ। तैयारी करने वाले इकलौते समूह से एक-एक कर नियुक्त होकर सभी जा रहे हैं पर मेरा ही अधर में लटका पड़ा है एक। कौन कहे कई जगह चुने जाने के बावजूद नियुक्ति नहीं मिल रही। अब सहन नहीं होता मुझसे।”

कहता हुआ अधीरता में रोने लगा। और तब तक रोता रहा जब तक कि नींद ना आ गई। उसे ऐसे देखकर फ़िक्रमंद रागिनी भी सो गई। 

रागिनी को पूरा भरोसा था; अपने भाग्य और भगवान के साथ-साथ पति की योग्यता एवं परिश्रम दोनों पर। वह धैर्य बनाए हुए अपने बच्चे के लिए उसके पिता की उपस्थिति आवश्यक मान संतुष्ट थी। क्योंकि गर्भावस्था में रागिनी के आवश्यक देखभाल के लिए राजीव की जागरूक, संवेदनशील वर्तमान उपस्थिति अति महत्त्वपूर्ण थी। जो और किसी के वश की बात नहीं थी। 

इसी बीच राजीव की बहन श्वेता के दूसरे प्रसव का समय भी नज़दीक आ रहा था। पहले संतान की बिछोह में अपनी रिक्तता भरने के येन-केन-प्रकारेण भावनात्मक बहाव में अपने शरीर और स्वास्थ्य की उपेक्षा करती हुई शीघ्र-अतिशीघ्र माँ बनने के लिए आतुर थी। आयुर्वेदिक दवाओं के सेवन से अपनी शारीरिक क्षतिपूर्ति करने के लिए गंभीर प्रयास की परिणति रूप में पुनः गर्भधारण! 

इस प्रकार चौदह महीने के अंतराल में दो-दो ऑपरेशन से बच्चे। बच्चे का हित-अहित विचारते हुए वह तो पुनः मेडिकल देखभाल में रही। पर, रागिनी को अपनी सास के फ़ालतू फ़ैसले में फँसकर सही-ग़लत, उज्ज्वल-अंधकारमय भविष्य जो भी हो . . .! मात्र भगवान भरोसे। 

इस तरह दिन निकलते जा रहे थे कि अकस्मात् जेठानी के पिता के देहांत की ख़बर आधी रात को मिली। वो आनन-फ़ानन में बाल-बच्चों समेत निकल गई। 

कुछ दिनों में, श्वेता की दूसरी संतान रूप में लड़की हुई जिसके लिए भी राजीव को भी अपनी माँ के साथ जाना पड़ गया। दस-पन्द्रह दिनों के लिए यथासंभव व्यवस्था के साथ माँ अपनी बेटी की सेवा में गई। 

दो महीने का, ख़ैर अभी समय था इसलिए कोई बात नहीं। सोच कर साहस रखती रही। 

ठंड की सिहरन भी अपने चरम पर थी। अपने अंदर पल-पल बच्चे की हलचल अनुभव करती; उसके आने की प्रबलतम सम्भावना भी उतनी ही ज़्यादा बढ़ रही थी। 

स्कूल जाते-आते थोड़ी-थोड़ी समस्याएँ बढ़ रही थीं बावजूद वो ये किसी तरह पूरा करना चाहती थी। समय पर, उसे साल का सिलेबस पूरा करना था। 

बात-बात में मज़ाक में सासु माँ कहती रहती थी, “जा तो रही हो स्कूल; कहीं ऐसा न हो कि बच्चा तुम्हारा स्कूल या बस में ही हो जाए और तुम बच्चा लेकर घर लौटो।”

“क्या माँ आप भी मुझे डराती रहती हैं?” कहकर टालने का प्रयास करती। पर एक ही बात सुन-सुनकर मन में बैठना स्वाभाविक है। 

बढ़ता पेट देख-देखकर सभी अपने-अपने हिसाब से आकलन करते, सम्भावना व्यक्त करते हुए कहते, “देखना ज़रूर लड़का होगा! तो कुछ के अनुसार लड़की होगी।”

लड़के के बारे में सुनकर ईर्ष्यालु जेठानी जी के वही बोल फूटते, “हँ . . . सबके बेट्टे होगा तो बेटी किसको होगी?” 

अभी उनकी अनुपस्थिति में भी उनके बोल रागिनी के दिल-दिमाग़ में गूँजते। जब भी कोई बोलता कि बेटा होगा तो वह सोचने लगती, “आओ जेठानी जी आकर बोल जाओ, सबको बेटा ही होगा तो बेटी किसको होगी?” 

जैसे-जैसे समय नज़दीक आ रहा था सासु माँ की चिंता बढ़ती जा रही थी कि अकेली घर-परिवार के अन्य कामों के साथ; कैसे वह जच्चा-बच्चा को सँभालेंगी? 

आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान की दृष्टि रखने वाली रागिनी, एक नौकरानी रखने का विचार व्यक्त करती। बारंबार जिसे अस्वीकार कर दिया जाता। 

सासु माँ ने जेठानी को फ़ोन करके बुलाना चाहा तो जवाब मिला कि रोती-सिसकती विधवा माँ अकेली है। उन्हें छोड़ कर कैसे आऊँ? 

देवरानी को फ़ोन किया गया तो उधर से भी गोल-मोल जवाब मिला, “मैं नहीं आती अभी। आख़िरकार आ कर भी क्या करूँगी?” 

अंततः सासु माँ ने अपनी बेटी को बुलाने का फ़ैसला किया। जिसे सुनकर रागिनी सिहर उठी। “हे भगवान! ये क्या है? यह सही नहीं होगा। ऑपरेशन का शरीर माँ और बच्चे का, जिसे ख़ुद देखभाल चाहिए ऐसे में वह क्या किसी की देखभाल कर पाएँगी?” पर विवशता ऐसी कि ज़्यादा कुछ मुखर विरोध भी नहीं कर सकती थी क्योंकि यहाँ माँ-बेटी का रिश्ता और भरोसा है एक तरफ़ तो दूजी तरफ़ ननद-भौजाई का सम्बन्ध जो सकारात्मक से ज़्यादा नकारात्मक अर्थ में आने के लिए बदनाम रहता है। ननद और उनकी संतान के स्वास्थ्य-सुरक्षा व हितों पर विचारने के बावजूद ग़लत संदेश जाएगा। 

राजीव ने अपनी माँ की आतुरता देख कर रागिनी को मौन कर दिया, “सुनो तुम कुछ भी मत बोलना एक शब्द भी। नहीं तो मेरी माँ-बहन की दृष्टि में ग़लत अर्थ जाएगा।” 

दो महीने की बच्ची वाली माँ, ननद श्वेता को बुलाने का अटल निर्णय सास कर चुकी हैं।  

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