रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 19

उस समय तक तो सोने-चाँदी के मूल्य और उसके शौक़ का समय ही कहाँ था? सासु माँ रटती रहती, “चाँदी बड़ी महँगी है।” जबकि ₹15 से ₹18 प्रति ग्राम थी। दुकान पर गये बिना खोज-ख़बर, बिना सोचे-समझे वह यही मानती रही, “हो सकता है बहुत महँगा हो।” क्योंकि माँ-बेटी रूप में सास-ननद ही सारी ख़रीदारी करती थीं। 

यही बोल-बोल कर बेटे के बचपन का स्मृति चिह्न अपने नाती को दे दी थीं। बचत के नाम पर पोती के लिए अपनी बहू के पुराने गहने बेच कर बदल कर ले आईं। 

जल्दी-जल्दी सारे घरेलू काम निपटा कर रागिनी तैयार हो गई थी। “माँ-बेटी कुछेक घंटे के लिए ही सही आ जाओ! फिर चली जाना।” कुछ ज़रूरी कामों से गाँव से लौटने के बाद अपनी माँ के अनुनय-विनय सुनकर, भावुकतावश स्वीकार कर लिया, “ठीक है। राजीव से बात करके कोशिश करती हूँ।” सारी बातें उसने तो अपनी सास और पति दोनों के सामने व्यक्त कीं थीं। उस समय तो किसी को भी कोई आपत्ति बिलकुल नहीं थी। 

“तुम शाम को तैयार रहना। कुछ ज़रूरी काम निपटाने के बाद ताज़ी मिठाइयाँ लेकर मैं आता हूँ,” कहक़र राजीव बाहर गया था। शाम ढले लौटा और हड़बड़ाहट में, “रागिनी चलो जल्दी” कहकर आवाज़ दी। 

आवश्यक कामों को निपटाने के बाद सज-धज कर बहू को मायके जाने के लिए तैयार देख कर सासू माँ की सास वृत्ति जागी, “बच्चा लेकर ऐसे ही पहली बार मायके जाया जाता है?” हाथ नचाते हुए बोली, “ना दिन दिखाई, ना पत्रा! . . . ना कोई लेने के लिए आया . . . बस अपने मन का मालिक, मुँह उठा कर चल देना है . . . कोई कहीं नहीं जाएगा।” स्वर और व्यवहार की कठोरता पूर्ण निर्देशित करती हुई बोली। 

माँ के समर्थन में बेटी भी सुर में सुर मिलाती हुई दनदनाती हुई भाई से अड़ गई, “माँ तो ठीक ही कह रही भैया! . . . आप लोग तो कुछ समझते ही नहीं . . . सिर्फ़ अपनी मनमानी करनी है बस।”

रागिनी ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़’ बैठ कर कुछ समझ नहीं पा रही थी। सासू माँ को बताने के बाद मौन समर्थन अनुभव कर माँ को अपने आने की सूचना दे चुकी थी। ‘अब, जब हम दोनों माँ-बेटी तैयार हो चुकी हैं तो ये सारी बाधा! अब क्या किया जाए? ये कैसा द्वंद्व आया, माँ या सासु माँ?’ 

माँ और बहन को अनसुना कर राजीव बोला, “जल्दी चलो। तुम्हें देर हो रही है। और फिर वापस भी तो आना है।” 

प्रश्न वाचक दृष्टि भर कर रागिनी ने पूछा, “माँ?”

सुनकर राजीव बोला, “जल्दी चलो। माँ को मैं सँभाल लूँगा। उनकी ये आदतें देख-देखकर बड़ा हुआ हूँ। उनकी बातों में कोई एकात्मकता नहीं होती। अपने हिसाब से बात और विचार बदलती रहेंगी।”

गोद में एक हाथ से बेटी को सँभालता हुआ, दूसरे हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए राजीव बाहर निकल गया। उसके पीछे-पीछे रागिनी को निकलना पड़ा। 

अपने वादे के अनुसार दो-तीन घण्टे बिताने के बाद राजीव के साथ रागिनी लौट आई। आने वाले त्योहार, होली के लिए कपड़े और भी जो बच्ची करुणा की नानी को उचित लगा देकर विदा कर दिया। 

होली में श्वेता को लेने लिए उसके पति आने वाले थे। उसके लिए सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। रागिनी ने भी अपने मायके के मिले कपड़ों में से कोई भी कपड़ा, साड़ी या सूट अपनी पसंद का ले लेने के लिए कहा। जिसे बहुत नाज़-नखरों के बाद ज़बरदस्ती करने पर एक उठाकर ले लिया। एक उधार डालती हुई बोली, “ज़ेवर छोटा-मोटा लेकर मैं क्या करूँगी? एक ही बार नौकरी ज्वाइनिंग करने के बाद भैया कोई अच्छा सा ख़रीद देना।”

सुनकर रागिनी और राजीव ने यह आकस्मिक उधार, जो उनका हक़ बनता है। सहर्ष स्वीकार कर लिया।

होली में दिन भर पूए-पकवान बनाने में रागिनी व्यस्त रही। तलने में जो तेल की गंध थी; अपने पेट में अनुभव कर रही थी। जिसके कारण उसने मात्र सादा चावल और छोले तो खाए थे। बावजूद गैस हो जाने से शाम से ही सुस्त पड़ गई और फिर भयंकर ढंग से सिरदर्द के साथ उल्टी-दस्त हो गया। उसके साथ ऐसा पहली बार हुआ था। रात भर वह परेशान रही। अपनी दादी-फूआ के पास बच्ची शान्त, प्रसुप्त सोई रही।

ख़ैर एक-दो दिनों में ठीक हो गई। राजीव अपने ज़रूरी काग़ज़ात बनवाने के बाद उचित समय पर सरकारी नियुक्ति पर चला गया।

पर जाने के पहले कुछ ज़रूरी व्यवस्थाओं को कर के गया था ताकि रागिनी को ज़्यादा दिक़्क़त ना हो। अलग से दूध के लिए दूधवाले को कहक़र गया। उसका भी कारण था—घर में किसी दिन मटन और मछली, दोनों बना था जो राजीव और रागिनी के अतिरिक्त सबका आहार था। रात को भर ग्लास दूध लेकर निकलती हुई सासु माँ सामने पड़ी अपनी बेटी को सफ़ाई देते हुए स्पष्ट कर रही थीं, “घर में सभी लोग माँस-मछली सब कुछ खाते हैं। एक वो बेचारी है जो ये सब कुछ भी नहीं खाती है। एक ग्लास दूध नहीं पीएगी तो क्या खाएगी, पीएगी? इसलिए दे दे रही हूँ।” इन शब्दों में जो भाव था जैसे कि यदि बेटी की आज्ञा होगी तो वो देंगी वरना . . . नहीं देंगी। 

मायके में पाँच लीटर, दस लीटर दूध कोई बड़ी बात नहीं थी और यहाँ एक ग्लास दूध पर उसके लिए हिसाब-किताब हो रहा है। धन्य हो प्रभु! . . .। तुम्हारी माया अपरंपार। रागिनी विचार कर रही थी।

यह संवाद रागिनी के साथ कमरे में मौजूद राजीव के कानों तक भी पहुँचा था। माँ-बेटी की बातें सुनकर, राजीव ने मात्र आधा लीटर ही सही रागिनी के लिए अलग से दूध की व्यवस्था कर दी। ताकि उचित पोषाहार रूप में दुग्धपान कराने वाली माँ के लिए नियमित दूध मिल सके। पूर्ण अधिकार से भावनात्मक संवेदनशीलता के साथ जिसमें से ननद भी सहभागी बनतीं।

बैलेंस रहे, ना रहे मोबाइल में इनकमिंग कॉल की सुविधा मिलती रहे। ज़रूरी सूखे फल और मेवे रखकर गया। बिना किसी पर निर्भरता के कभी, किसी चीज़ के लिए ख़ुद व्यवस्था कर लेना। आवश्यक दिशा निर्देश के साथ, आवश्यकता पड़ने पर आकस्मिक परिस्थितियों के लिए पैसे रखकर गया।

सास-ननद रूप में माँ-बेटी को पत्नी के लिए राजीव के द्वारा की गई अलग-अलग दूध की व्यवस्था पसंद नहीं आई। महीना पूरा होने पर दूधवाला अपने पैसे लेने आया। तब रागिनी सुबह-सुबह रसोई में नाश्ता तैयार करने में व्यस्त थी। दूधवाले की आवाज़ सुनकर सासु माँ बाहर निकली। और पैसे लेकर देने के लिए जाने लगीं। बरामदे से निकल ननद ने टोका, “क्या है माँ! कौन है वह दरवाज़े पर?”

सुनकर बोली, “राजीव जिसे दूध के लिए कह गया है; वही दूधवाला है! पैसे के लिए आया है।”

एक ईर्ष्या भाव में भर, तेज़ स्वर में झझकते हुए; बोली,  “रहने दे माँ! जो, जिसके लिए कह गया है। वही दाम चुकाएगी! तू नहीं। इससे तुम्हें क्या?” और आगे बढ़कर कठोरतापूर्ण आदेश में बोली, “भाभी! . . . भाभी! काम बाद में होगा। पहले जाकर आप दूधवाले का पैसे चुकाइए।”

बेटी की बात सुनकर माँ, उल्टे पाँव लौट गईं और दूसरा काम करने लगीं। रागिनी प्रत्येक स्थिति-परिस्थितियों को समझते हुए भी बहुत-बहुत बुरा मानने के बावजूद रुँधे कंठ और अपने उभरते आंँसुओं को नियंत्रित करने का सफल-असफल प्रयास करती हुई, बचत के पैसों में से, पैसे निकाल कर दे आई। पर इस बात पर बिना कोई प्रतिक्रिया दिए; पूरी तरह शान्त और संयमित बनी रही। मन के अंदर चोटिल तूफ़ान सँभाल कर रख लिया। समय आने पर बताऊँगी एक-एक बात, एक-एक घटना विधि के विधान की। कैसे कहने को रिश्ते में छोटी, जो होनी चाहिए बेटी, पर सौतन जैसी डाह दिखा रही। वह भी मेरे ही घर में, जहाँ संपूर्ण अधिकार और सम्मान भावना होना चाहिए। पर अभी मेरा काल विरुद्ध है तो सभी विरोधी हैं। सँभाल ले रागिनी अपमान के प्रत्येक पिटारे को कस कर बाँध दे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बिलकुल मौन रहकर। घर में जिसके कारण कोई वाद-विवाद नहीं हुआ। यह भी धैर्य का परिणाम था वर‌न्‌ अन्य की बात रहती तो आज महाभारत मचते देर ना होती।

नन्ही बच्ची को लेकर दुःखी मन रोती हुई रागिनी को नींद आ गई। सोई हुई रागिनी को स्वप्न आया कि अपनी बेटी को गोद लेकर कहीं जा रही है। परन्तु चारों तरफ़ जल-प्रलय जैसा दिखाई दे रहा है और वह समझ नहीं पा रही कि कैसे पार करे? तभी अकस्मात् सफ़ेद साड़ी में कोई अति सुन्दर स्त्री आकर उसे आश्वस्त करते हुए बेटी को अपने गोद में लेकर आगे-आगे चलने लगती है। वह जहाँ क़दम रखती वहाँ ज़मीन दिखने लगता और इस तरह उस पार पहुँचा कर करुणा को वह वापस रागिनी की गोद में डाल देती है।

कृतज्ञतापूर्वक रागिनी के धन्यवाद कहने पर वह स्त्री बोली यह तो मेरा आशीर्वाद और रूप है जिसकी मैं सदैव रक्षा करूँगी। बस तुम जब इसका विवाह करना तो मुझे एक साड़ी चढ़ा देना। और इतना कह कर वह स्त्री अदृश्य हो गई। रागिनी की नींद खुल गई पर वह भावविभोर एक-एक बात और घटना को साक्षात् अनुभव कर पा रही थी।

हे गंगा मैया आपको कोटि-कोटि नमन! करते हुए रागिनी ने कृतज्ञता व्यक्त की।

उस समय आधुनिक मोबाइल अपने प्रारंभिक चरण में था। जिसकी क़ीमत बीस हज़ार से ऊपर की थी। जिसके लिए अड़ोस-पड़ोस के सामर्थ्यवान घरों में, उनके जवान बेटों के मन में तूफ़ान उठा करता। और उनकी भूख-हड़ताल की ख़बरें अक़्सर रोचक रूप में सुनाई देतीं। जो सामान्य जनों के पहुँच के बाहर की बात थी। न्यूनतम मूल्य वाले मोबाइल में इन सुविधाओं का अभाव था तो फोटो खींचने के लिए कैमरा ही एकमात्र विकल्प था। श्वेता के पास कैमरा था। जिसमें रागिनी ने रील के लिए पैसे भरवाए थे ताकि बच्चों के बचपन को फोटो रूप में सँभाला जा सके।

ननदोई के आग्रह पर रील जाँचने के लिए बेटी करुणा को कुर्सी पर गद्दे के सहारे फोटो खींचने के लिए तैयार कर बिठाया था। फोटो ननदोई खींचने लगे। 

जिसे देखकर प्रतिस्पर्धा में श्वेता दौड़ती हुई आई और अपनी सोई बेटी को उठा कर झटपट तैयार करने लगी ताकि यथाशीघ्र ज़्यादा से ज़्यादा उसकी तस्वीर अकेली खींची जा सकें। अधकच्ची नींद से जगाई गई रोती-खीझती बेटी की कुछ तस्वीरें जब अकेली खींच ली गईं तब जाकर श्वेता का जलनख़ोर मन शान्त हुआ।

नहाने से सुस्ती अनुभव कर करुणा भी सो चुकी थी। तब तक यथाशीघ्र रागिनी अपने दूसरे कामों को निपटाने लगी।

ननद-भौजाई द्वारा अपने बच्चे का बचपन सँजोने की चरम लालसा पूरा करने का समय था। करुणा के जागने पर अन्य दूसरे कपड़ों को पहना कर, सजा-सँवार कर तस्वीरें खींचने का क्रम प्रारंभ हुआ। कैमरामैन ननदोई जी तैयार थे ही। काजल कहाँ है? ढूँढ़ने पर श्वेता, जिनके पास काजल की डिब्बी थी, आकर लगाने लगीं। चौकी पर श्वेता की बेटी लेटी हुई थी उसी तरफ़ उसके पिता भी बैठे थे। पर सबका ध्यान तो ज़मीन पर माँ की गोद में लिटाकर बड़ी मुश्किल से काजल लगवाने के क्रम में कुश्ती लड़ रही करुणा की तरफ़ था। तभी अचानक हुआ धड़ाम . . . 

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