करुणा या ख़तरा?
पाण्डेय सरिताअपने घर की छत से पड़ोस में घास से भरपूर बड़ी-सी चारदीवारी में बँधे, चरते हुए बछड़े को देखकर भावुक बेटी द्रवित हो जाती।
“माँ! चारदीवारी फाँद कर, जाकर इसे खोल दूँ?”
“क्या बदमाशी है?” माँ ने खीझते हुए पूछा।
बेटी ने सफ़ाई, “उसे रस्सी में बँधा देखकर मुझे रोना आ रहा है।”
माँ ने पूछा, “क्यों?”
बेटी ने कहा, “उसका मालिक कितना क्रूर है जो उसे रस्सी में बाँध कर रखा है।”
माँ ने समझाया, “तब तो तुम भी इस घर में हो तो यह बंधन है? ग़ुलामी है? क्रूरता तो तब होती जब मालिक बछड़े को जहाँ-तहाँ भटकने के लिए छोड़ देता। उस बछड़े के लिए समुचित देखभाल की व्यवस्था ना करे। यह शहर है। यहाँ के व्यवस्थागत ढाँचे में कुछ अंतर है। वह बँधा है, उस घेरे में तभी सुरक्षित है बच्चे! सोचो तुम जाकर उसे खोल दोगी और वह राजमार्ग पर जाकर अनियंत्रित गाड़ियों के चपेट में आ सकता है। कोई उसे मांस-व्यापार के लिए चुरा कर ले जा सकता है। वह बछड़ा उछल-कूद मचा कर किसी को घायल कर सकता है। तुम्हारी ऐसी दया और करुणा उस बछड़े के लिए प्राणघातक सिद्ध हो सकती है। जो ग़लती ना की जाए तभी भलाई होगी।”
बेटी बोली, “ये तो मैंने सोचा ही नहीं था।”
माँ मुस्कुराई, “चलो अब तो समझ गई ना?”