रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 8रागिनी के गर्भावस्था की बात जानकर सभी की अलग-अलग प्रतिक्रिया थी। जिसमें सकारात्मक कम, नकारात्मक ज़्यादा थी। बावज़ूद; क्या फ़र्क़ पड़ता है? सोच कर अनदेखा, अनसुना करते हुए दोनों आगे बढ़ने का निर्णय कर चुके थे।
जाँच-घर में गर्भावस्था की पुष्टि करते काग़ज़ को देने वाले व्यक्ति अनुभवी बुज़ुर्ग थे। उन्होंने राजीव को अपनत्वपूर्ण कहा, “देखो बेटा, मैं जानता हूँ, तुम अभी बेरोज़गार हो। पर, एक बात ध्यान रखना। पहला बच्चा है, जो भी हो, इसे रखने की कोशिश करना। क्योंकि, कई बार बहुत कुछ उन्नीस-बीस विचार कर लोग, पहले गर्भ को नुक़्सान करके बहुत पछताते हैं। भविष्य में शारीरिक-मानसिक और आर्थिक परेशानियाँ भुगतनी पड़ जाती हैं। इसलिए बात मानो; बिन मांँगी मुराद रूप में, ईश्वर का वरदान मान कर जन्म देने की सोचो। आगे जो होगा अच्छा ही होगा।”
राजीव के मन-मानसिकता के लिए वास्तव में ये बातें बहुत ही सार्थक और सहायक रहीं। वैसे राजीव और रागिनी, दोनों का व्यक्तिगत विचार बेटे-बेटियों के जन्मजात अंतर के परे था।
दादी को पोते की चाहत थी। जेठानी की ईर्ष्यागत भावना में बेटी ही हो; की कामना! जान-समझ लेने के बावज़ूद राजीव-रागिनी के लिए बेटे-बेटी का फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था। बस बच्चा शारीरिक-मानसिक और बौद्धिक स्वस्थ हो। उसके जीवन की जो सबसे बड़ी प्राथमिकता थी।
अड़ोस-पड़ोस में किसी-किसी शारीरिक-मानसिक अपंग बच्चे को देखकर रागिनी के मन में विचित्र भय व्याप्त था कि कहीं बच्चा किसी कमी का शिकार ना रहे।
सोते-जागते, उठते-बैठते मात्र एक ही प्रार्थना दुहराती, “हे ईश्वर! बेटा हो या बेटी; जो भी हो शारीरिक-मानसिक और बौद्धिक रूप से स्वस्थ बच्चा देना।”
वह अपने मन का भय जब अपने पति से ज़ाहिर करती, तब मज़ाक उड़ाते हुए राजीव कहता “तुम इस चिंता में पड़ी हुई हो पर मेरा भय कुछ अलग है कि कहीं तीसरा वाला हो गया तब?”
“फ़ालतू बात करेंगे तो जान ले लूँगी आपकी,” चिढ़ते हुए रागिनी का भाव अभिव्यक्त हुआ।
“सच कहूँ तो मुझे बेटा-बेटी वाली किसी तरह की चिंता है ही नहीं। ये अच्छी तरह तुम भी जानती हो पर उस तीसरे जेंडर के बारे में सोच कर घबराहट होती है,” थोड़ा गहन-गंभीर होते हुए बोला।
“क्या फ़ालतू का बकवास करते हैं आप भी?”
रागिनी से सुनकर राजीव बोला, “एक तरह से देखा जाए तो वही तो तुम भी कर रही हो।”
”नहीं यार, अज्ञात शंकाएँ-कुशंकाएंँ उभरती रहती हैं मन-मस्तिष्क में। जितना ज़्यादा सकारात्मक होने की कोशिश करती हूँ, उतना ज़्यादा नकारात्मकता हावी होकर भयभीत करने की कोशिश करती हैं।”
“तुम तो ईश्वर पर भरोसा रखती हो। सब अच्छा होगा। आज और अभी से विचार करो,” सांत्वना देते हुए राजीव ने कहा।
“अच्छा सुनो, मुझे कुछ बात करनी है आपसे। जो मज़ाक नहीं, गंभीरता में लेने वाली बात है।”
“ठीक है कहो,” थोड़ा सजग होते हुए राजीव पूछा।
आज दोपहर में आपके माता-पिता में बात हो रही थी, आपके बेरोज़गारी में पिता बनने पर भावी ख़र्च और बढ़ती ज़िम्मेदारियों की। जिसके लिए आपके पिता बहुत-बहुत चिंतित हैं।
“बात क्या हुई साफ़ स्पष्ट कहो।”
रजनी ने एक-एक शब्द अक्षरशः दुहरा दिए। सुनकर राजीव थोड़ा अस्त-व्यस्त तो हुआ पर संतुलित होते हुए पूछा, “ऐसे में तुम्हारी दृष्टि में हम दोनों को करना क्या चाहिए?”
“मैं सोच रही हूँ—हमारा परिवार और ज़िम्मेदारियाँ दोनों बढ़ रही हैं। आप पहले की तरह कोशिश करते रहिए। मुझे लगता है कि नौकरी करते हुए प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारियों में समय और परेशानी होगी, इसलिए मैं अपने पुराने काम पर लग जाती हूँ। आप निश्चिंत रहें सब बेहतर होगा। हमारी आर्थिक स्थिति भी ठीक होने के साथ-साथ अभिभावकों पर बोझ भी नहीं पड़ेगा। घर में भी मेरे ना रहने से लोगों की अनावश्यक तनाव और चिंताएँ कम होंगी। वैसे भी मेरी योग्यता का उपयोग रसोई-पोंछा, झाड़ू-बर्तन में नहीं।
“आपके माता-पिता, भाई-भौजाई के चरणों में बैठ कर, इस बेरोज़गारी में बहुत सेवा करके, मेवा पा लिया,” रागिनी अब अपने पुराने रूप में लौट रही ताकि अपना स्वाभिमान और आत्मविश्वास पा सके।
“पर तुम्हारा स्वास्थ्य? तुम्हारी अधूरी पढ़ाई?”
चिन्ता व्यक्त करने पर रागिनी ने कहा, “आप हैं ना मेरी मदद के लिए? मैं यथासंभव सब सँभाल लूँगी।
’अब तक की वर्तमान दुर्दशा की गंभीरता अच्छी तरह भुगतने के बाद यही सबसे बेहतर कोशिश होगी।’ यह बात राजीव अच्छी तरह समझ-जान चुका था। अंततः हार मानते हुए बोला, “ठीक है तुम्हें जो उचित लगे करो।”
घर में थोड़ा-बहुत विरोध उठा मात्र इस विषय पर कि लोग क्या कहेंगे? अंततः सबको स्वीकार करना पड़ा।
जिनके अभिभावकत्व में बहुत कुछ सीखने को मिला था। पहले जहाँ पढ़ाती थी, वहाँ पर अपने सकारात्मक प्रदर्शन से चिर-परिचित अंदाज़ में एक विशेष स्थान रागिनी द्वारा हासिल किया गया था। सार्थक परिश्रम कुछ विशेष महत्त्व रखता है, जिसका प्रभाव भविष्य में काम आता है। अगले दिन ही वह उसी आत्मविश्वास के साथ जाकर स्कूल प्रधानाचार्या से मिलकर पुनः जुड़ने की इच्छा व्यक्त की; जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया।
पेट में बच्चा! . . . अपनी अधूरी पढ़ाई; . . . स्कूल में छह से सात घंटे पढ़ाने और कॉपियों को जाँचने . . . छोटे-मोटे उपयोगी काम निपटाने के अतिरिक्त घर पर घरेलू कामों के लिए समय निकाल कर शान्ति स्थापित रखने के प्रयास में पूरी तरह लग गई।
सुबह में झाड़ू-पोंछा, बर्तन धोने के बाद नहा-धो कर रागिनी तैयार हो जाती। रागिनी के लिए सास नाश्ता तैयार करती। दोपहर भोजन प्रबंधन जेठानी की ज़िम्मेदारी हुई। स्कूल से वापस लौटने के बाद बची हुई ज़िम्मेदारियाँ सारी रागिनी की।
जिसमें कभी-कभी सास को दया आती तो मदद कर देती, वरना समझती रहो। झटपट निपटाने की कोशिश करने के बाद अपने कमरे में झट से घुस कर अपनी किताबों में व्यस्त हो जाती। पढ़ते हुए जब नींद आ गई तो सो जाती। बस यही उसके दिनचर्या में शामिल था।
दोनों के जीवनयापन में सहायक बनकर जो भी छोटी-सी कमाई थी, पर्याप्त था। अपनी छोटी-मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, अब किसी से कुछ भी लेने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। पति के हाथों में पैसे रहने से आवश्यक वस्तुओं को बाज़ार से लाकर उपलब्धता की ज़िम्मेदारी पूरी करते।
पर, एक वही प्राथमिकता, गर्भस्थ शिशु था; जिसके पोषण के लिए सजग पिता चुपके से सुखे मेवे, फल, दूध, मिठाइयाँ हमेशा उपलब्ध कराता। एक रसोई में जो सबके लिए बनता-पकता उसके अतिरिक्त।
घर के रसोई में पकने वाला भोजन, दस से बारह सदस्यों के लिए होता। जिसमें कमी-बेशी सोचते-समझते हुए, जागरूक, होने वाला पिता, प्लास्टिक की एक छोटी बोतल, चाय दुकान से गर्म दूध पॉकेट में डाल कर लाता ताकि गर्भिनी के उचित पोषाहार में रोज़ाना दूध मिल सके। किसी की दृष्टि न पड़े उस बोतल पर इसलिए स्वयं उस बोतल को तड़के अँधेरे में ही पूरी सावधानी से धोकर साफ़ कर लेता और पुनः अपने पॉकेट में डाल कर साक्ष्य मिटा डालता।
अपने हिस्से का फल, दूध, मिठाइयाँ रागिनी के लिए प्रस्तुत करने को तत्पर देख कभी-कभी सास नज़र रखती। अपने सामने बैठ कर बेटे को खिलाने की कोशिश करती।
पति के प्रति स्वयं फ़िक्रमंद बिफर पड़ती रागिनी, “ये क्या है? मैं आदमी हूँ। ना कि कचड़े का डिब्बा! बच्चे के पिता को भी स्वस्थ और सबल होना चाहिए ताकि बच्चा सुरक्षित रहे।”
समझाते हुए कहता, “तुम्हारे लिए कौन कर रहा मैं तो अपने बच्चे के लिए कर रहा हूँ। ताकि वो स्वस्थ और सबल हो, ना कि कुपोषित! तुम्हें, उसके लिए अतिरिक्त पोषाहार लेना ही पड़ेगा।”
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