अभियान

01-12-2022

अभियान

पाण्डेय सरिता (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

दिन भर की भाग-दौड़ से निवृत्त होकर रात के दस बजे बिछावन पर लेटी थी। जैसे ही नींद आई थी कि बेटी ने झकझोर कर जगा दिया, माँ . . .! माँ . . .! बाहर दरवाज़े को पीट-पीटकर कहीं कोई गाली-गलौज कर रहा है हमें। सुनकर अटपटा तो लगा पर मन अनेक संभावनाओं का द्वार खटखटाने लगा। वैसे असंभव तो इस दुनिया में कुछ भी नहीं। गहरी नींद के लालच को त्याग कर मामले की संवेदनशीलता को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। डेढ़ सौ से दो सौ मीटर की दूरी तक में अन्य कोई परिवार नहीं है। 

आकस्मिकता में सहयोग के लिए किसी प्रकार की मदद की उम्मीद ही नहीं। यह अप्रत्याशित स्थिति क्या-कैसी है इससे तो ख़ुद ही निपटना होगा। 

हाँ, तो हम दोनों माँ-बेटी एक टार्च की रोशनी में अपने-अपने हाथों में डंडा लेकर पूरे घर के सबसे ऊपरी सिरे से निरीक्षण करने का विचार कर बढ़ चलीं। तब तक शोरगुल और कोलाहल जिससे बेटी ने भयभीत होकर मुझे जगाया था, थम चुका था। चारों तरफ़ निस्तब्ध शान्ति छा चुकी थी। घर के चारों तरफ़ क्या दसों दिशाओं का निरीक्षण-परीक्षण कर सब कुशल-मंगल पा कर बड़ी ठंडक मिली हमें! कुछ भी कहीं संदिग्ध स्थिति-परिस्थिति नहीं थी। अंततः बिस्तर पर आधे घण्टे के अंदर मैं पुन: सो गई। बेटी अपने कमरे में पढ़ने चली गई। 

ज्योंही नींद आई पुनः बेटी झकझोर रही थी, “माँ! माँ उठो ना फिर से गाली-गलौज के साथ कोई खिड़कियाँ-दरवाज़े पहले की तरह ही पीट रहा है।” इस तरह की दूसरी बारी में मन-मस्तिष्क दोनों खीझ चुका था। बेटी पर भी और उस संदिग्ध व्यक्ति पर भी जो जाने-अनजाने धृष्टता कर रहा था। 

मन के तूफ़ान में हलचल तो उठनी ही थी। वैसे हमारी स्वभावगत विशेषताओं के कारण ज़्यादा ख़तरा तो नहीं था। पर यदि कोई रार ठानना चाहे तो फिर किया क्या जा सकता है? किसी बहाने किसी को भी तंग किया जा सकता है। 

“कहीं वह सुबह वाली स्त्री का पति तो नहीं? जिससे श्रीमान जी की यूँ ही बकवास हुई थी। हो-ना-हो उसने घर जाकर सब बताया होगा। तो पी कर नशे में उसका पति आकर कहीं गाली-गलौज करने पहुँचा हो। जो भी हो बच्चू यदि वो आया है तो भी ख़ैर नहीं। मेरे हाथों पिटेगा ज़रूर।”

दृढ़ निश्चय कर दोनों माँ-बेटी गृहस्वामी की अनुपस्थिति में सुरक्षा और संरक्षा के प्रति दृढ़ संकल्प लेकर पुन: टार्च जलाकर दसों दिशाओं में ढूँढ़ने लगीं। कहीं भी कोई मानव उपस्थिति दिख नहीं रही थी। लेकिन साफ़-स्पष्ट आवाज़ मात्र सुनाई दे रही थी। जिसमें सचमुच माँ की! बहन की! . . . बेटी का स्त्रीजनित सर्वस्व उद्धार किया जा रहा था। बोली की लड़खड़ाहट और उत्तेजना पूर्ण संकेत दे रहा था कि कोई शराब के नशे में धुत्त अपना शक्ति प्रदर्शन कर रहा। पर हमारी चारदीवारी के आस-पास करने की धृष्टता और दुष्टता की सज़ा भी मिलनी ही चाहिए। 

सुरक्षात्मक दृष्टि से घर से बाहर निकलना ख़तरनाक हो सकता है इसलिए छत के चारों तरफ़ पैनी दृष्टि डालने के बाद जो अब तक बचा था वहाँ तक बड़ी मुश्किल से ही सही चढ़कर टार्च मार पुनः निगरानी की गई। परन्तु कोई संदिग्ध दृष्टिगोचर नहीं हुआ पर आवाज़ रह-रह कर उभरती, बन्द हो जाती। नए परिवेश और माहौल में विचित्र संदेहास्पद स्थिति थी। जिसका निवारण किए बिना दोनों को चैन नहीं। मन बार-बार सुबह की आकस्मिकता पर अटका था कि हो-ना-हो उसी महिला का पति होगा जो गाली-गलौज के साथ उधम मचा रहा है। पर सुबह की स्थिति इतनी जटिलता वाली नहीं थी कि ऐसे कोई आक्रामक होकर उद्दण्डता का व्यवहार करे। फिर दूसरा मन कहे इस संसार में कुछ भी हो सकता है। आशंकाओं का पहाड़ मन को दबाए हुए था। 

वास्तव में आज सुबह श्रीमान जी नवनिर्मित दीवारों पर पानी डाल रहे थे। पानी डालने की तल्लीनता में दिवाल के उस पार सड़क पर मुहल्ले की गुज़रती कोई स्त्री उस पानी के दायरे में आ गई। पन्द्रह फ़ीट चौड़ी सड़क के दूसरे तरफ़ से वह स्त्री अपना बचाव कर सकती थी। सावधानी बरत सकती थी। पर नहीं . . . यह उसके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं था। 

बरसात में भी जो छाता या रेनकोट उपयोग नहीं करना चाहता। दीवार के इस पार तल्लीन ऐसे दीवाने जल-प्रेमी श्रीमान जी के लिए यह बात इतनी महत्त्वपूर्ण न थी कि उसके या किसी और के गुज़रने मात्र पर वह अपना काम रोक दें सो वह निरन्तरता से लगे रहें। 

अन्तत: वह महिला इसे किसी पुरुष द्वारा जान-बूझकर कर की गई ढिठाई मान शिकायत कर बैठी, “दिखाई नहीं देता है। कोई गुज़र रहा है रास्ते से तो पानी डालना बंद कर दें। मैं भीग गई।”

श्रीमान जी के मन में यहाँ के स्थानीय लोगों के अनावश्यक हस्तक्षेपों से ऊब-खीझ भी थी, यूँ ही उपेक्षात्मक बोल दिया, “तो क्या हो गया? पानी ही पड़ा तो इसमें कौन सा तूफ़ान मचा? पानी से ऐसे डरना जैसे कोई बहुत ख़तरनाक चीज़ हो, मानव के इसी स्वभाव के कारण ही आषाढ़ सूखा-सूखा गुज़र गया और सावन भी गुज़र रहा।”

जिस पर वह स्त्री भड़क उठी और सभ्यता एवं संस्कार का ज्ञान देती हुई बहस करने लगी। 

मैं स्थिति से अनजान कुछ सँभालने के लिए बोली तो श्रीमान जी मुझ पर भड़क उठे। “बेकार में तुम क्यों इन्हें मुँह लगाती हो। कोई ज़रूरत नहीं इनके प्रति उदारता और संवेदनशीलता की। तुम्हारी भलमनसाहत का नाजायज़ फ़ायदा उठा कर उलटे ये लूट कर निकल लेंगी . . . समझी!”

जिसे याद कर मन का बवंडर डरा रहा था, हो-ना-हो उसी का पति होगा। छत से कुछ दिखाई नहीं दिया था। अपनी सुरक्षा के प्रति पूर्ण जागरूक होकर, दरवाज़े को खोलने से पहले सिर पर हेलमेट डालकर दोनों मांँ-बेटी ने मोटा डंडा ले लिया। कहीं हमारा ध्यान भटका कर, चुपके से घर में घुसने का कोई षड्यंत्र तो नहीं? विचार कर अंदर-बाहर अच्छे से बंद कर ताला बंद कर, चाबी अपनी जेब में डाल ली। 

टार्च की रोशनी में घर के पिछवाड़े से निकल कर चारदीवारी के पास से उस आवाज़ की दिशा में धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगीं। जो रुक-रुक कर थमता-उभरता रहस्यमय बन रहा था। आधे घण्टे से ज़्यादा समय व्यतीत हो चुका था। माँ-बेटी टार्च की रोशनी में बहुत बड़े अहाते के अंतिम छोर पर दूर तक चली आईं थी। 

चारदीवारी के इस ओर सघन झाड़ियों को पार कर एक टीले पर चढ़ने के बाद पचास-साठ मीटर की दूरी पर एक घर की खिड़की से कोई आकृति उभर रही थी। जिसे देख-देखकर कोई चुनौती दे रहा था, “रे मादर . . . खोल दरवाज़ा। डर कर मुझे बंद कर दिया है। खोल मुझे तो दिखाता हूँ। सबको सबक़ सीखाता हूँ। आज नहीं छोड़ूँगा। तेरी माँ कहाँ है रे? . . #$%& . . .#$%& गाली-गलौज की अनवरत बौछार . . .!” उस घर के बग़ल वाले घर के छत पर रात के सघन अंधकार में भी परछाईं उभरी थी। जिसे देख-देखकर हज़ार मीटर तक पहुँचने वाली ध्वनि-गूँज के साथ वह शराबी गरज-गरज कर हुंकार भर रहा था। 

देख-समझकर बेटी को भी उस टीले पर चढ़ाकर आवाज़ की दिशा में क़ैद गालीबाज़ शराबी को दिखाई, “ये देखो पूरा तमाशा! जिसके कारण मुझे दो घंटे से परेशान कर रही थी।” 

“मुझे क्या पता कि कौन है जो इस प्रकार खिड़कियाँ-दरवाजे पीट-पीटकर गाली दे रहा है। आवाज़ भी बहुत क़रीब का लग रही थी इसलिए मैं डर गई थी। सुरक्षा-असुरक्षा का विचार कर आपको जगा दिया। ग़लती हो गई माँ!” 

“नहीं बच्चे! . . . सब ठीक है। अब तो स्पष्ट हो गया ना? वह हमें नहीं बल्कि अपने परिवार में हंगामा मचा रहा था। अकारण डर गईं हम! चलो चलें।” 

बेटी पूर्ण आश्वस्त हो कर घर में लौटी। अर्धरात्रि से पहले हमारा अभियान पूर्ण हो चुका था। संभवतः तब तक शराबी भी शान्त सो चुका था। तब जाकर चैन की मीठी नींद हम दोनों भी सो पाईं।

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