पारसनाथ और मैं
पाण्डेय सरितासम्मेद शिखर वहीं है।
भ्रमणशील पर,
आकर्षित-प्रेमाबद्धित
घूम फिर कर
वहीं पहुँचती हुई,
मैं भी वहीं हूँ।
आशान्वित बाल-सुलभ
दृष्टि-विभोर!
आकर देखती रहती हूँ,
बारंबार तेरी ओर।
ठीक उसी जगह पर,
जहाँ से कभी
निर्विघ्न सम्पन्न होता रहा था,
दृष्टि का उत्सव
एक आंतरिक संबंध,
पारस्परिक अनुबंध,
तेरे-मेरे प्रेम का।
ओ प्रकृतिमय!
आकर्षक-स्थिर-अविचल-अविनाशी-विशाल आत्मा!
ओ पर्वत पारसनाथ
और उसका सर्वोच्च शिखर!
मैं ये भी जानती हूँ,
अधिष्ठाता तू भी
अपने जीवात्मा
अनन्त प्रेम के साथ खड़ा है
निस्संदेह अपरंपार।
अपने सम्पूर्ण समर्पण
के साथ स्वागत में,
प्रत्येक आगंतुक के
प्रति अपार।
प्रत्यक्षगोचर असीम,
विशालकाय अस्तित्व में मुझे,
अपनी हीनता सताती नहीं,
अद्भुत अनुकंपा से
अभिभूत/वशीभूत कर जाती है आदि-अंत प्रत्येक छोर।
गुरुत्तर जीवन के अनन्त
संभावनाओं का संसार।
मन बड़ा है उदार।
बावजूद इसके,
बीच हमारे एक अवरोध
इसमें पर है आजकल
दूरियों के बीच
धुँध की प्रच्छन्न दीवार।
2 टिप्पणियाँ
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जी सादर नमन आदरणीय
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बहुत हीं सुंदर कविता सरिता जी