रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 7

आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की दृढ़ इच्छाशक्ति लिए, अपनी सक्षम योग्यताओं से पूर्णतः परिचित होने के बावज़ूद, अनेकों प्रतियोगिता परीक्षाओं में अपना भाग्य आज़माते, हो रही देरी से राजीव का आत्म-विश्वास और मनोबल खंडित हो रहा था।

किसी नौकरी में उसके चयनित होने की बात पूरे समाज में दूर-दूर तक पहुँच चुकी थी। जिसके कारण जो भी मिलता, मिलते ही एक सवाल उछाल देता, “अरे तुम यहीं हो? अभी तक गये नहीं?”

जो भी उसके अन्तर्मन को चुभाने के लिए पर्याप्त था। आख़िरकार प्रतीक्षा की भी एक हद होती है। यूँ ही कब तक माता-पिता पर निर्भर रहा जाए? कब तक कठोर यथार्थ से मुँह चुराया जाए? किसी भी परिवार के लिए विवाहित बेटे का बोझ, कुँआरी बेटी के बोझ से ज़्यादा अवांछनीय होता है। 

निम्न मध्यमवर्गीय परिवार, बेटे के अफ़सर बनने की तुलना में “जो काम मिल जाए उसी में लग जाओ। चाहे चपरासी ही सही” कहकर, कमाने-खाने का दबाव डालती है। 

चयनित होने के बावज़ूद नियुक्ति के अभाव में जहाँ-तहाँ नौकरी के लिए और ऊँचे पद के लिए प्रयासरत महत्त्वाकांक्षी बेटे की इच्छा-आकांक्षाओं और परिश्रम से अनभिज्ञ एवं फ़िक्रमंद माँ, अपने सामाजिक संगोष्ठियों में खुलकर बहू के प्रति, नकारात्मक दुष्प्रचार कर पद-प्रतिष्ठा के प्रति लालची होने और बेटे को भी लालच के लिए उकसाने का आरोप मढ़ती हैं। 

“मेरा बेटा ग़रीब का बच्चा है, किसी तरह गुज़ारा कर लेगा। वह तो जो मिला है उससे संतुष्ट हो ही जाए पर जो मैडम लाया है उसकी स्वार्थी भूख की वजह से सब हो रहा है। जिसका छोटे-मोटे, पद-पैसा से पेट थोड़े ना भरेगा? सब कर्ता-धर्ता महारानी जी हैं। उसके ऐशो-आराम के लिए मेरा बेटा मर रहा है। बेचारा दर-दर भटक रहा है।”

लेकिन, बहू एक-एक बात सुनकर भी सब अनसुना करते, अनदेखा कर देती। व्यर्थ की बकवास का फ़ायदा क्या है? 

हर बात, हर विचार का आसान शिकार रागिनी होती। बेटा कुछ भी अपने मन का करे, तो “बहू बोली होगी।” . . . किसी काम को कहने पर ना करे तो . . . ”वही मना की होगी।” देखता-सुनता, समझता हुआ आख़िर एक दिन राजीव को अपनी खीझ व्यक्त करते हुए स्पष्टिकरण करना पड़ा। 

“माँ, मैं सब कुछ देख-समझ रहा हूँ इस घर के प्रत्येक व्यक्ति का रंग-ढंग और व्यवहार! मैं इसी घर में पैदा हुआ और तुम सबको अच्छी तरह जानता हूँ। रागिनी को तुम लोग मूर्ख बना सकते हो क्योंकि ये सब उसके लिए नया है। पर, मेरे लिए नहीं। अपनी मान-मर्यादा का ख़्याल रखते हुए मैं कुछ नहीं बोलना चाहता। . . . 

“जो बात मेरे-तुम्हारे बीच हो रही हो . . . उसमें रागिनी को घसीटने का कारण, मैं समझ नहीं पाता हूँ। मेरी भी अपनी बुद्धि है, विचार है, सोच है, समझ है; जहाँ किसी को भी हावी होने की ज़रूरत नहीं,” कहकर राजीव चला गया।

बेरोज़गारी की सबसे अच्छी बात यही रही कि सभी का असली व्यवहार दिखाई दिया। जो कितना भी बुरा या कुरूपता का यथार्थ था। जिसे दोनों पति-पत्नी ने स्वीकारा था। 

अप्रैल में पूरा कर अपना बचा-खुचा प्रशिक्षण! मई से गृहस्थी के संघर्षों के साथ रोज़गार के अवसरों पर और भी अधिक समय लगाने लगा। शिक्षा से जुड़ा हुआ कौशल तो प्राप्त कर चुका था परन्तु कई विद्यालयों में आज़माने के बावज़ूद वही निष्कर्ष शून्य रहा था। 

गृहस्थी में भी लगातार पंद्रह-बीस दिन का समय उत्पादन क्षमता परखने का प्रथम अवसर बना। जिसमें अनेक उतार-चढ़ाव के बावज़ूद वो दोनों साथ रहे। 

“मेरे साथ-साथ तुम भी कुछ आगे का प्रयास करो ताकि बी.एड. कर लो।”

राजीव के प्रोत्साहन पर रागिनी तैयारियाँ तो कर ही रही थी। एंट्रेंस परीक्षा भी देने गई; बनारस शिव की नगरी में, जहाँ का अटूट श्रद्धा और विश्वास उसके जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग रहा है। 

वहीं पर राजीव के नौकरी की नियुक्ति की प्रार्थना के साथ दोनों के दाम्पत्य के सुखद भविष्य की कामना की। शिव की कृपा का आशीर्वाद रूप में भी कुछ मिला जो बाद में पता चला। 

लौटने के क्रम में बीमार भी पड़ गई। तो दोनों ने सोचा संभवतः गर्मी की वजह से बुख़ार और अन्य स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ हो रही होंगी। 

बनारस से लौटने के एक सप्ताह बाद एक परीक्षा के लिए दक्षिण भारत आना था। जिसमें कम से कम एक सप्ताह अवश्य लग जाने की सम्भावना थी। 

राजीव ने रागिनी से अपनी भावनात्मक द्वंद्व अभिव्यक्त करते हुए कहा, “क्या करूँ रागिनी? क्या तुम अपना ध्यान रख पाओगी? एक सप्ताह की बात है। जाने क्या होगा? अच्छा पद है। अनेकों प्रकार की चाहत, आकांक्षाओं की सम्भावना तलाशने के लिए एक कोशिश करना चाहता हूँ। इधर की हो रही देरी देखकर, मैं उधर अपना भाग्य आज़माना चाहता हूँ।”

रागिनी के भरपूर सहयोग और समर्थन के साथ हिम्मत लेकर राजीव का दक्षिण भारत में क़दम वाला पहला प्रयास सार्थक रहा। अगले क़दम की प्रतीक्षा के साथ नव स्फूर्तिमय प्रेरणा मिली। 

“अरे रागिनी इस बार तुम्हारा . . . नहीं आया।” कहकर चिढ़ाने पर टाल गई। वो तो अक़्सर आगे-पीछे होता रहता है इसमें नया क्या है? 

पेट में दर्द! लगता जैसे कि मासिक आने वाला है। पर समय बीतता गया। कमज़ोरी, थकान के कारण घबराहट भी बढ़ने लगी। 

अगले महीने में भी चिढ़ाने के लिए पूछा, “अरे तुझे कुछ हो तो नहीं गया? रुक जा देखता हूँ।”

जाँच करवाने पर पॉज़िटिव निकला और पता चला कि ज़मीन और बीज दोनों उर्वर हैं। 

रागिनी से बहुत ही भावुक, संवेदनशील बनकर; राजीव ने कहा, “पिता बनने पर पता नहीं क्यों? वैसी वाली अनुभूति नहीं हो रही! क्या तुझे हो रही है?” 

“पता नहीं क्यों? मैं कुछ भी सोच-समझ नहीं पा रही हूँ,” रागिनी ने राजीव से कहा। 

सुनकर राजीव ने खीझते हुए दार्शनिक विचारों में कहा, “अरे यार! . . . यहाँ तो हम-दोनों की वर्तमान स्थिति में व्यवस्था होनी मुश्किल थी। बच्चे को कैसे सँभालेंगे?” 

“क्यों बाप बनने के लिए आप ही को तो आग लगी थी? . . . अब क्यों ठंडा पड़ गए? . . . आपको तो पहली रात में ही बच्चा चाहिए था ना? . . . लो अब सँभालना!” चिढ़ाते हुए रागिनी ने कहा। 

नये मेहमान के आने की ख़बर सबकी अलग-अलग प्रतिक्रिया रूप में थी। 

दादी ने कहा, “मैं तो कब से कह रही थी आने दो बच्चे को जितनी ज़ल्दी हो सके।”

जेठानी का बेटा बोला, “बाबा का अपना पोता आएगा। अब से बाबा-दादी सिर्फ़ उसी को प्यार करेंगे।”

जेठानी मुँह चिढ़ाते हुए बोली, “सब को बेटा ही हो जाएगा क्या?” जिसका अर्थ था कि बेटा सिर्फ़ उन जैसे भाग्यवानों को होता है। तभी तो दो-दो बेटे ईश्वर ने दिये हैं। जो रागिनी को कभी नहीं होनेवाला। 

ससुर ने किसी दोपहर अपनी पत्नी से चर्चा करते हुए कहा, “बेटा अभी बेरोज़गारी में था उस बात की चिंता अभी ख़त्म भी नहीं हुई थी कि एक नई चिंता रूप में बच्चे का बोझ भी आ गया हम पर। जाने कैसे पार लगेगा? हे ईश्वर!”

राजीव तो गहरी नींद में था। पर रागिनी के लिए यह अप्रत्याशित टिप्पणी झकझोरने वाली थी या ईश्वरीय प्रेरणा! ये भ्रम जाल से निकालने वाली। एक-एक शब्द सुनकर कुछ दृढ़ निश्चय कर रही थी। जिससे सभी अनभिज्ञ थे। 

वह फिर याद करने लगी यदा-कदा गुज़रने वाली परिस्थितियों का खेल . . . पढ़ी-लिखी कामकाजी बहू को लोकलाज, सामाजिकता की दुहाई देकर सास-ससुर और परिवार की सेवा का पुण्य लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से घरेलू महिला रूप में चूल्हे-चौकी में सीमित होने के लिए बाध्य करके। उस पर अहसान जैसे भाव से ना चूकने वाली सासवृत्ति उफन रही थी। 

“पैसे का घर में हज़ारों काम हैं . . . मैं ही जानती हूँ! . . . कितना, कैसे-कैसे सब सँभालती हूँ . . . किसी को कोई मतलब ही नहीं।”

सुनाती हुई साढ़े सत्ताईस रुपए हाथ में रखते हुए बहू की सवालिया दृष्टि देखकर झमझमाते हुए पूछा, “और कितना दूँ? . . . बस यही मिलेगा!” स्वर में विचित्र तल्ख़ी के साथ सास बोली बहू को। 

“शाम के समय अकेली कैसे जाओगी?” विचार कर पहली बार चाची के, जेठानी की चार-पाँच साल की बेटी भी साथ में लगा दी। 

बेरोज़गारी की चोट बड़ी निर्दय और निर्मम तरीक़े से आदमी को उसकी असली औक़ात दिखाती है। 

वो घर से निकलते हुए सोच ही रही थी कि इतने कम पैसों में कैसे सँभालेगी स्थिति-परिस्थितियाँ? 

रास्ते में दुकान पर खड़ी पाँच मिनट तक ये सोचने में विचार करती रही बहू कि न्यूनतम राशि में अधिकतम उपयोग क्या और कैसे हो भला? 

सोलह-सत्रह साल पहले पाँच चॉकलेट फाईव स्टार की पच्चीस में निपटा। शेष ढाई रुपए में किसमी-बार एक चॉकलेट लेकर निकलना चाहती थी कि बच्ची की नज़र एक खिलौने पर पड़ी जिसके लिए वह बहुत बुरी तरह मचलने लगी। 

एक वस्तु से नज़र हटे तो अगली जो दिखे उसके लिए मचलना शुरू कर दे। किसी तरह अपने छोटे से पर्स में चॉकलेट को शीघ्रता में समेट वहाँ से निकलने में ही वह भलाई समझी। उसका अभाव! ज्यों वह कोई चोरनी हो और दुनिया के समक्ष उसकी चोरी पकड़े जाने वाली है। फिर क्या? किसी तरह उसे ज़बरदस्ती वहाँ से लेकर हटी। जितनी दुकानें रास्ते में पड़ीं उनकी चकाचौंध में वो हठी बालिका अड़ जाए। 

जीवन में ऐसी अप्रत्याशित-स्थिति आज से पहले तक में कभी नहीं हुई थी। अपनी विवशता पर, जी में आए कि दम भर कर रोले या उस बच्ची को डाँट-डपट कर शान्त करा दे या जाकर घर वापस रख आए। आख़िर क्यों वो सास के कहने पर बच्ची को लेकर आई? सोच-सोच कर खीझ के दलदल में डूबते-उतराते किसी तरह रास्तों से गुज़रती वह गंतव्य तक पहुँची थी। 

रास्ते में तब-तक, “चॉकलेट चाहिए चाची! . . . खिलौना चाहिए चाची! . . . गाड़ी चाहिए चाची! . . . हेयर बैंड चाहिए चाची! . . . जूता चाहिए चाची! . . . फ़्रॉक चाहिए चाची!” लोट-पोट करते, देखती-सुनती हुई, अंत में गोद में उठा इस बाज़ार रूपी दुनिया से तेज़ क़दमों से भागी थी। 

छोटे भाई-बहनों में से भी कोई इस तरह नाक में दम करने का हिम्मत नहीं रखते थे, जितना इस नन्ही सी लड़की ने पानी पिलाया था। वो तय कर चुकी थी कि आज के बाद वो ये ग़लती कभी नहीं दुहराएगी। 

सहेली के यहाँ पहुँच कर सोफ़े पर बैठी ही थी कि बच्ची की दृष्टि जो पर्स पर टिकी हुई थी झट से हाथों से खींच कर, चॉकलेट पर टूट पड़ी। 

“चाची-चाची मैं चॉकलेट खाऊँगी और भी खाऊँगी . . . मुझे और भी चाहिए . . . आप दे नहीं रही।” . . . सभी के सामने ही ज़िद कर-करके दिखाने लगी। 

झट से बचा-खुचा चॉकलेट मेज़बान को देकर रागिनी ने अपना पर्स ख़ाली करके उसे सौंप दिया। उस समय उसे कुछ भी सोचने-विचारने का समय कहाँ था? कि तत्क्षण कुछ भी विचार सके, “घर में कितने बच्चे हैं? और किसे मिलेगा भी या नहीं मिल पाएगा?” 

वह बच्ची कुछ क्षण में ही अति शीघ्रता से खा कर निपट लेना चाहती थी ज्यों सम्पूर्ण विश्व को खा जाने वाली भूख उस अतृप्त आत्मा में है जिसकी तृप्ति आज और अभी कर लेनी है। हाथों, मुँह और कपड़ों के गंदा होने पर पानी से झाड़-पोंछ, साफ़ करके वह बातें करने लगी। 

बच्ची रह-रह कर पर्स में झाँक कर देख लेती। ज्यों, कोई अदृश्य चॉकलेट उसे दिख जाए और वो उन्हें खा सके। उसका प्रत्येक क्रियाकलाप सभी की दृष्टि में आ रहा था, उस बाल-सुलभ मनोवृत्ति को सभी मनोरंजक मान देख रहे थे। 

यह तो वही जानती है, अपनी आर्थिक मजबूरियों का सबसे बुरा सामना करने के रूप में किसी भी तरह एकाध-घंटा गुज़ार, वह वापस अपने मनो-मस्तिष्क में बहुत सी शिक्षा व सावधानियाँ लिए लौटी थी। ज्यों, अप्रत्यक्षतः उसकी आत्मनिर्भरता के संघर्ष के लिए ज़रूरी रास्ते की पृष्ठभूमि खुल रही थी। 

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