रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 14

कई बोतल पानी चढ़ाना पड़ा क्योंकि गर्भाशय में पानी की कमी थी। पहली बार की मातृत्व में, अनुभवहीनता और अपरिपक्व बुद्धि की समझ से परे स्थितियाँ-परिस्थितियाँ होती हैं। सप्ताह भर से पानी निकल रहा था जिसे समझ नहीं पाई थी रागिनी और ये हाल हुआ। 

शीतल अगहन पंचमी उषा की पहली किरण के प्रात: कालीन बेला में पिता का जन्म; और आषाढ़ सप्तमी की बरसाती रात की चाँदनी में उत्पन्न जातक माता, के गर्भ के दसवें महीने में फाल्गुनी सप्तमी शीतोष्ण दोपहरी का फूल बनकर बच्ची का आगमन हुआ। 

दवा और सूई के बावुजूद प्रसव में हो रही देरी, कष्ट और वेदना के कारण बच्ची का सिर लम्बा हो गया था। लाल स्केच किया हुआ बहुत पतले ओंठ, दूधिया सफ़ेद रंग, लम्बे-लम्बे हाथ-पैर, लम्बे घने काले बाल, पूर्णतः स्वस्थ और सुंदर बच्ची! 

पिता के संरक्षण में संतुलित, पौष्टिक आहार की व्यवस्थाओं के कारण ही तो ऐसा सम्भव हो सका था, ज्यों पाँच-छः महीने का पालित-पोषित बच्चा हो वह। 

बच्ची ने भी दुनिया में क़दम रखते ही सम्पूर्ण परिचय प्राप्त करने वाली जिज्ञासु दृष्टि से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करने वाला पहला प्रयास दर्शा दिया। आँखें खोले, चारों तरफ़ देखने लगी।

साफ़-सफ़ाई करने के बाद, अपने प्रथम आहार और माता-पुत्री के प्रथम स्पर्शानुभूति के लिए माँ की गोद में डाली गई। इतनी आतुरता मची थी स्तनपान के लिए ज्यों जाने कितनी भूखी-प्यासी हो! 

हड़बड़ाकर बच्ची ने दूध के लिए खींचातानी शुरू कर दी। पर दूध अभी उतरना बाक़ी था। थोड़ा-बहुत खींचने के असफल प्रयास के परिणामस्वरूप क्षुधातुर बच्ची ने तूफ़ान मचा दिया। तब अपनी फूआ का दूध पीकर, वह शान्त हो पाई। 

उस बच्ची की सौम्यता देखकर, भावविभोर जिसे भी पता चला, सुनकर, खींचा, दौड़ा चला आता और गोद में उठा कर खेलाने की चाहत छोड़ नहीं पाता। अनजाने, अपरिचित माहौल में भी बहुत सहज-शान्त रूप में वह थी। यहाँ बच्ची के जन्म और भाग-दौड़ के अन्तराल में जन्म के सटीक समय पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। जब रागिनी ने पूछा तब देखा गया। समय पर भी एक गड़बड़ खेल था देवर अक़्सर घड़ी के काँटे को कभी पन्द्रह मिनट तो कभी पाँच-दस मिनट आगे कर दिया करता। रागिनी जब भी देखती असंतुलित समय तो ठीक कर दिया करती वह फिर आगे कर दिया करता। ऐसा ही उस दिन भी हुआ था। दो-सवा दो-ढ़ाई . . .! जिसका द्वंद्व आज तक रहस्यमय रूप में है। 

प्रारंभिक फाल्गुनी बयार में जब बच्ची को कोई कपड़ा ढका जाता तो पैर इतनी जल्दी मारती कि चादर और कंबल यूँ ही कब हट जाता पता ही न चल पाता। 

समय पर राजीव का कॉल आया। पर फोन को छुआ-छूत जैसी दिमाग़ी भूत की आड़ में रागिनी के पास से हटा दिया गया था। 

चहकती हुई बहन, बेटी जन्म की शुभकामनाएँ दे चुकी। तो माँ ने फोन लेकर “सब कुछ बढ़िया से निपट गया बेटा!” कहकर, अपने बेटे को ढाढ़स बँधा दिन भर का हाल-समाचार सुनाने लगी। 

“रागिनी कहाँ है माँ?” 

“चिन्ता मत कर बेटा! तुम अपना काम देखो। हम लोग हैं ना माँ-बेटी के देखभाल के लिए।”

“रागिनी कहाँ है?”  सुनकर बेटी को फोन थमा दिया। 

श्वेता ने भी कहा, “सब कुशल मंगल है भैया! . . . भाभी आराम कर रही हैं।”

राजीव को टालने की कोशिश; माँ और बहन मिलकर करने लगीं। रागिनी को कमरे से सब कुछ साफ़-साफ़ सुनाई दे रहा था। 

माँ और बहन प्रदत्त आश्वासन के बावज़ूद, राजीव को अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास भर बेचैन कर रहा था। 

इसलिए खीझ कर बोला, “माँ, रागिनी को फोन दो। श्वेता, रागिनी को फोन दो। तुम लोग दोगी या नहीं? और सुनो फोन उसके पास ही रहने देना; ताकि उसका परिवार और मैं, कभी भी उससे बात कर सकें।”

चिल्लाने पर, फोन लाकर दिया गया।

“डोंट वरी . . . मैं ठीक हूँ,” सुनकर राजीव आश्वस्त हो पाया तब।

“मेडिकल जांँच आपका कैसा रहा?”

“सब ठीक रहा।” 

“कब हुआ मेडिकल?” 

“दोपहर में, लगभग दो-ढ़ाई बजे के बीच! जानते हैं, उसी समय आपकी बेटी आई है।” 

रागिनी के आवाज़ में दर्द और परेशानी महसूस की उसने, “अभी तबीयत कैसी है?” 

“दर्द है!”

“अभी भी दर्द!” कहते हुए आश्चर्य व्यक्त करने पर रागिनी बोली, “तो क्या क्षणिक जादू होगा? बुद्धू! शरीर में बीस हड्डियों के टूटने जितना दर्द, मांशपेशियों में होता है तभी बच्चे का जन्म होता है। जिसकी क्षतिपूर्ति में समय लगता है। सम्भवतः कुछ दिन, सप्ताह; तब जाकर राहत मिलती है।” 

“इतना ज़्यादा समय लगता है?” 

“हाँ, बुद्धू! . . . .” थोड़ा रुक कर रागिनी ने पूछा, “कब तक आएँगे?” 

“मैं आता हूँ। जल्दी से जल्दी तुम अपना ख़्याल रखना। ठीक है रखता हूँ,” कहकर फोन कटा। 

इस बात में बाद दोनों आश्वस्त और धैर्य चित्त अनुभव कर रहे थे। फोन फिर से सिरहाने के एक कोने में रखा गया। 

रात की गहराइयों में जब माँ और दादी सोने की तैयारियाँ करने लगीं तो नवजात शिशु का क्रंदन अपनी चरम सीमा पर पहुँचा। 

जिसे माँ और दादी समझ नहीं पा रहीं थीं कि आख़िर ये हो क्यों रहा? बच्ची लेटे-लेटे जब भी हाथ-पैर हिलाती और ज़ोर-ज़ोर से भयभीत स्वर में क्रंदन-आलाप बढ़ता जाता। बच्चे का ऐसा रूदन माता और दादी के मन में भय उत्पन्न करने वाला था।

दादी बोली, “इतना लोग आया था जाने किसकी दृष्टि कैसी? कहीं बच्चे को नज़र तो नहीं लग गई?”

सुनकर रागिनी बोली, “क्या माँ आप भी?”

दूध पिलाने की कोशिश पर असफलता मिली। कुछ भी यत्न करने के बावुजूद चुप ना होते देखकर रागिनी भी भयभीत होने लगी। झट से दौड़ाया गया डॉक्टर या धाय जो भी मिले उसे लेकर आया जाए।

शीघ्रता में थकी-हारी धाय मिली। यहीं इसी घर पर जो आज पूरे दिन भर तो रही थी। सुनकर, सम्मान करती हुई वो आई और रागिनी को सांत्वना देते हुए समझाया, “चिन्ता मत करो वास्तव में शिशु नौ महीने तक माँ के गर्भ में बंद, सिकुड़ा सिमटा रहता है। पर जन्म के बाद बाहरी दुनिया से संपर्क और संतुलन बनाने में समय लगता है। ये स्वस्थ बच्चा है ख़ूब हाथ-पैर मार रही है तो बहुत ज़्यादा खुला-खुला महसूस कर डर रही है कि कहीं गिरी तो नहीं? इसे अपनी गोद में उठा कर समेटे हुए रखो, ताकि उसे सुरक्षा भाव लगे।” इसके साथ-साथ बच्ची के देखभाल से सम्बन्धित अन्य आवश्यक ज्ञान देकर चली गई।

बच्ची को अच्छी तरह अपनी गोद में समेट कर बैठने के बाद ममत्वमयी सामीप्यता देने पर माँ का सुरक्षा-भाव अनुभव करती हुई, लोरियों के बदले हनुमान चालीसा सुनने पर बच्ची सो गई। तब जाकर माँ के जान में जान आई। उस पहली रात से लेकर बाद तक में माँ-बच्ची के बीच में हनुमान चालीसा के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं आया। 

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