रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 1
“माँ-माँ मैं बचपन में बहुत अच्छी बच्ची थी ना?” दोनों बहनें प्रतिस्पर्धी वैचारिक और व्यवहारिक तुलनात्मक विभेद लिए हुए आई थीं। पूछती हुई, बड़ी बेटी ख़ुद को महत्त्वपूर्ण दर्शाते हुए, चिढ़ाने के लिए चार साल छोटी बहन के सामने अपनी माँ की गोद में बैठ कर, चूमती हुई, गले लग जाती है।
व्यंग्यात्मक लहज़े में . . . "हाँ बेटा! . . . तेरी शराफ़त के क़िस्से तो आजीवन नहीं भूलूँगी . . ."
"बहुत शैतान थी ना दीदी? . . ." छोटी बहन ने जिज्ञासा व्यक्त की। "दीदी के बारे में मुझे सब कुछ जानना है। माँ बताओ ना?"
(समय की परतों को खोलती बातें और भूली-बिसरी कहानियाँ! जिन्हें बच्चों ने कुरेदा था। अपने अस्तित्व के विविध हिस्सों से निकल कर अस्त-व्यस्त रूप में आती-जाती रहती हैं)
"क्या-क्या करती थी दीदी? . . . बताओ ना!"
माँ रहस्यमयी मुस्कान भरती हुई बोली, “प्रत्येक बच्चा अपने आप में विशिष्ट होता है! तुम भी! . . . तुम भी हो! . . .। एक बार जब करुणा पौने दो साल की थी तब पहली बार हम पालघाट गए थे। ओलवाकोड था उस जगह का नाम! . . . जहाँ किसी सरकारी क्वार्टर में हम लगभग चार महीने रहे थे।
"जितने भी उत्तर भारतीय कर्मचारी थे मौक़ा निकाल कर गाहे-बगाहे वहाँ आसपास घूमने निकल जाते। पर हम छोटी बच्ची के कारण उसकी स्वास्थ्य सुविधाओं का विचार कर कहीं नहीं जा पाते थे। स्थितियाँ-परिस्थितियाँ भी विचित्र संयोग गढ़ती रहतीं। कभी कोई समस्या! . . . कभी कोई समस्या . . .! अक़्सर आती-जाती रहती।"
राजीव की कठोर ट्रेनिंग! उस पर पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियों के साथ जीवन पहली बार संचालित हो रहा था। पहुँचते ही राजीव ने रागिनी को आकस्मिक स्थिति-परिस्थितियों की तैयारी में वहाँ के सब्ज़ी और राशन का बाज़ार दिखा दिया।
एक बार उसका साथी, सहकर्मी!
. . . बीमार पड़ गया . . . तो उसके साथ छुट्टी लेकर आठ-दस दिनों के लिए वहाँ से तीन-चार किलोमीटर दूर स्थित अस्पताल में भर्ती होना पड़ा . . .।
क्योंकि, इतने दूर उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक परिवार के किसी भी सदस्य को आते-आते समय लगेगा। अनजान-अपरिचित जगह पर बीमार मित्र को अकेले वैसे छोड़ा नहीं जा सकता।
तो रागिनी और उसकी बेटी अकेली रही इसी क़ीमत पर! . . . कभी ख़ुद अस्वस्थ! . . . कभी बेटी! . . . कभी पत्नी! . . . घरेलू-बाहरी परिस्थितियों का संतुलन बनाने में समय लगता है। जिसे बहुत धैर्य से सँभालना पड़ता है।
इस भागम-भाग के साथ ये ट्रेनिंग, तो पारिवारिक और रोज़गार! दोनों क्षेत्र की चुनौती लिए हुए थी। ख़ुद में अक़्सर राजीव जिसे सँभालते, असहज-असंतुलित भी अनुभव करने लगता। जिसकी वजह से पति-पत्नी दोनों में वैचारिक मतभेद भी होते।
एक तो बड़ी मुश्किल से घर से निकल कर पति के साथ निकली थी पर साथ रहते जीवन की अलग-अलग समस्याएँ भी खुल कर उभर रही थीं।
पर रागिनी सब समझ रही थी राजीव की मानसिक अशान्ति की वजह! . . . और उसके शान्त स्वभाव के कारण सब आसानी से सँभल जाता।
ट्रेनिंग करते हुए पत्नी और बेटी को साथ देखकर वहाँ के लोग बहुत अचंभित होते, “अरे बाल-विवाह किया था क्या तुम दोनों ने? इतनी जल्दी क्या मची थी कि बेटी भी हो गई।” . . . लोग हँसते हुए मज़ाक करते।
थोड़ा बहुत इधर-उधर, आस-पास ही टहलने के बाद, राजीव की अनुपस्थिति में दिन भर माँ-बेटी उसी कमरे में बंद रहती। जिससे नन्ही करुणा ऊब जाती। और फिर वह हल्ला मचाने लगती, “माँ बाज़ार चल! . . . बाहर चल!”
"कहीं चलो ना घूमने!" सुनकर . . . यही बहाना राजीव का अक़्सर होता, “क्या करोगी कहीं जाकर? . . . बेटी बीमार पड़ जाएगी।”
इसी बहाने के भेंट चढ़ते हुए दिन बीतते गए। यहाँ तक कि एक दो-सप्ताह में लौटने का समय भी आने वाला था।
कुँआरे सहकर्मी और अड़ोसी-पड़ोसी कहीं भी घूमने ना जा पाने की विवशता को आर्थिक कंजूसी भी मान कर चिढ़ाने लगे थे।
“पालघाट के नज़दीक कई पर्यटक और तीर्थ स्थल हैं . . . तब कहाँ जाना पसंद करोगी? . . . क्या मदुरै का मिनाक्षी मंदिर चलोगी? और फिर रामेश्वरम चलते हैं! . . . या कहीं और चलना है?” राजीव ने पूछा था।
“मदुरै और रामेश्वरम ही बहुत है!” रागिनी की सहमति होने पर इधर-उधर अपने इष्ट-मित्रों से जानकारी लेने लगा। और सलाह-मशविरा करके, अन्ततः एक दिन ड्यूटी से आते ही राजीव ने रागिनी से तैयार रहने को कहा था।
फिर क्या? झटपट रागिनी बैग पैक करती हुई घरेलू कामों को भी शीघ्र-अतिशीघ्र निपटाने लगी।
ड्राइंगरूम में पिता-पुत्री टीवी देखने में व्यस्त हैं। वहीं पर एक बैग रखकर, याद कर-करके धीरे-धीरे सामान रखने लगी। ताकि कोई असुविधा न हो बच्ची को, और उसके पिता से अपनी असावधानी-लापरवाही का टिप्पणी रूप में कुछ सुनना न पड़ जाए?
रसोई में बर्तन धोने के क्रम में रागिनी को कुछ सुगंधित अनुभव होने पर बाहर निकली तो देखती है बेटी, शैम्पू का नई बोतल खोल कर अपने बालों, हाथ-पैर, कपड़ों पर उझल कर सराबोर है। वह निर्विघ्न इस खेल में तल्लीन है। खेल ही तो था यह! उसे इससे क्या मतलब कि कोई संसाधन बर्बाद हो रहा या कितना सस्ता-महँगा है? वास्तव में हुआ यह था कि उसी बैग के पैकेट में वह शैम्पू का डब्बा रखा हुआ था जिसे रसोई के कामों में व्यस्त रागिनी के दिमाग़ में शैम्पू निकाल कर हटा देने का विचार ही नहीं आया था।
करुणा की प्रत्येक क्रिया-कलापों से अछूते, अनदेखे पिता की नज़रें मात्र टीवी पर अटकी हुई हैं। जिन्हें कोई मतलब नहीं कि बेटी ने कब उनकी गोद से उतर कर बैग तक पहुंँच कर, कब-क्या कर दिया?
केरल के जनवरी का आख़िरी सप्ताह और ऐसे में वहाँ के बरसाती मौसम में ठंडी सिहरन के बीच में . . . बेटी! एक दो दिन पहले तक जो सर्दी-खाँसी और बुख़ार से पहले से ही पीड़ित थी। अब उसके लिए क्या किया जाए? समझ से परे रागिनी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर ख़ुद पर और अपनी विवशता पर झल्ला उठी।
बेटी के लम्बे बालों में उलझे आधा बोतल शैम्पू को ना तो हटाते बन रहा . . . ना छोड़ते बन रहा! . . . उफ्फ् . . .!
कपड़े बदल दिए जाएँगे . . . हाथ-पैर धो कर पोंछ भी दूँगी . . . पर ठंड में इन बालों पर शैम्पू का क्या करूँ . . .माँ?
झल्ला कर दाँत किचती हुई, रागिनी को देखकर . . . अब राजीव का ध्यान इधर हुआ।
बर्बाद शैम्पू को देखकर आश्चर्यचकित हो कर अब सारा दोष रागिनी पर फोड़ता हुआ, “कैसे बर्बाद करवा दिया? . . . कुछ समझती हो? . . . कितना महँगा शैम्पू है ये? . . . कोई सामान ख़रीदना तो जानती हो . . . पर सँभाल कर रखना नहीं! . . . बहुत लापरवाह औरत हो तुम! . . . सब तुम्हारी वजह से होता है। क्या ज़रूरत थी यहाँ लाकर रखने की?"
अभी और भी बहुत कुछ बोलता तब तक रागिनी, राजीव पर झल्लाती हुई, “लापरवाह मैं हूँ कि आप? . . . आपके सामने ही हुआ ना जी? . . . बेटी, नासमझ है कि आप? . . . शैम्पू का बोतल अंदर पैकेट में छिपा कर रखा हुआ था, ना कि ऊपर! . . . पर . . .?"
क्रोध और खीझ उसकी शब्दों से ज़्यादा अश्रुपूरित आँखों और व्यवहार में उतर आया था। जिसे संयत करने के लिए अधूरा वाक्य छोड़कर, रागिनी तेज़ी से करुणा के कपड़े उतार कर बाथरूम में ले जाकर रखती हुई, पानी गुनगुना करके बाल पोंछने के लिए रसोई में झट से दौड़ पड़ी।
बिना शैम्पू पोंछे बीमार बेटी के कपड़े वह कैसे बदलती? . . . और ठंड का भी मौसम है।
जिस बेटी के लिए अपना सर्वस्व करने वाला पिता! . . . एक टीवी के चक्कर में चार सौ रुपए के 100 मि.लि. शैम्पू के बोतल पर अटक गया और . . . एक खीझ! . . . एक उद्वेलन! . . . उभरा उन दोनों के बीच।
“माना कि दिन भर की ड्यूटी में थक-हारकर आए हो . . . पर यहाँ आपको करना क्या था? . . . मात्र बेटी पर नज़र रखनी थी। वह भी इसलिए कि कोई एक, अन्य ज़रूरी काम निपटा रही थी कि ऐसे ही बैठी थी मैं! . . . ऐसी भी लापरवाही कैसी? कि पता ही न चले गोद से उतर कर बेटी, बहुत यत्न से छिपा कर रखा गया बोतल कब निकाली . . .? और . . . बर्बाद कर दी? और वह भी तब जब आप वहीं पर हैं।” विचारमग्न रागिनी गर्म पानी में भिगो कर तौलिया से बेटी के बालों का शैम्पू पोंछने लगी।
“जाती रहो दोनों माँ-बेटी घूमने,” आज की आख़िरी धमकी दे कर वहीं, जिस फ़ोल्डिंग खाट पर बैठा टीवी का आनंद ले रहा था, असहयोग आंदोलन के साथ आत्मकेंद्रित चादर तान पसर गया।
जिस ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे की ट्रेन पकड़ने के लिए रात के दस-सवा दस बजे तक में कई घंटों से चकरघिन्नी की तरह रागिनी नाच-नाच कर व्यवस्था कर रही थी . . . सफ़र के भोजन-पानी, कपड़े, फल-बिस्किट छोटी-बड़ी सारी व्यवस्थाओं के बाद हो गया . . . सत्यानाश! अभिमानी पुरुष से इनाम मिला . . . लोल! . . . बाबा जी का घंटा!
बेवकूफ़, ख़ुद को ठगी सी महसूस करती रागिनी! बेटी को यथासंभव पोंछ-साफ़ कर अंदर कमरे में जाकर सो गई।
अगले दिन नो सॉरी! . . . नो इक्सक्यूज! वाले फ़ार्मूले पर क़ायम राजीव सोकर उठने के बाद कुछ घंटे टीवी देखता रहा। नाश्ते में रात की बनी हुई यात्रा के लिए पकवान खाकर दोपहर तक के लिए दोस्तों के बीच निकल गया। घर में पूर्ण नि:शब्दता छाई रही। प्रश्नवाचक उत्सुकता लिए सिर्फ़ करुणा की आवाज़ उभरती।
दोपहर दो बजे के बाद लौट कर फ़रमान जारी हुआ . . . आज रात को चलना है मदुरै।
सुनकर, “पर . . . मुझे नहीं जाना! . . . मेरी बेटी बीमार है।" (कठोरता-पूर्ण शब्दों में रागिनी ने कहा)
हँसते हुए, बहुत संयत स्वर में, “बेटी ठीक हो गई है . . . देखो रूठने-मनाने का अब समय नहीं है। मेरी छुट्टियाँ वैसे ही ख़त्म हो गईं, उसके कारण (अपने सहकर्मी का नाम लेते हुए) अस्पताल में। तुम्हें पहुँचाने के नाम पर छुट्टी नहीं मिलेगी तो बीमारी के बहाने छुट्टी करना पड़ेगा। आख़री तीन दिन की छुट्टी लिया था . . . चलना आज! . . . देखो रिज़र्वेशन का कन्फर्म टिकट भी ले आया हूँ।
" . . .आज की छुट्टी तो बर्बाद हो गई पर कल और परसों तक का समय बर्बाद नहीं करना . . . आज पक्का चलेंगे हम! . . . जाओ जल्दी से खाना बनाओ भूख लगी है मुझे!"
फिर वही सारी प्रक्रियाओं के साथ मदुरै के लिए पालघाट से मीटर गेज की ट्रेन से निकल पड़े, राजीव के कंधे पर बैग और रागिनी की गोद में बेटी!
अनुभव की कमी और अपरिपक्व गृहस्थी का अनुभव बार-बार झलक जा रहा था, तीन व्यक्ति और सीट एक! कितनी मुश्किल? ख़ैर किसी तरह अस्त-व्यस्त गुज़री रात उस ट्रेन में।
अगली सुबह मदुरै के वेटिंग हॉल में स्नान-ध्यान से निवृत्त बैठी रागिनी को लाकर दो बहुत बड़े-बड़े इलाहाबादी अमरूद देता है, राजीव! ”मंदिर तो फल खाकर जाओगी तुम, इसीलिए लाया हूँ।”
हम-माँ बेटी की सुबह-सुबह ये ख़ाली पेट कौन सी दवाई लाए हैं? बेटी सर्दी-खाँसी बुख़ार से बहुत मुश्किल से उबर रही।
दूध पिलाने वाली माँ रूप में, मेरा शरीर भी ठंड के प्रति अति संवेदनशील है। जानते-समझते हुए भी, आप अमरूद खिला रहें हमें?
खाओ . . . खाओ! . . . कुछ नहीं होगा!
नहीं खाना मुझे! . . . और ना मेरी बेटी खाएगी!
. . .। लोहा ही लोहे को काटता है! . . .। तुम इतना सोचती हो? . . .। यही तुम्हारी समस्या है . . . . . .। मैं तो हमेशा बिना सोचे-समझे खाता हूँ।
आपको दूध नहीं पिलाना है, किसी बच्चे को। पर, मुझे पिलाना है।
व्यंग्यात्मक शब्दों पर खीझते हुए, “अब खाओगी भी कि फेंक दूँ सब?”
तो आपके डर से मैं ज़हर खा लूँ?
कौन बोला ज़हर है?
ख़ाली पेट सुबह-सुबह अमरूद, गन्ना, तरबूज कभी नहीं खाना चाहिए।
अपना ज्ञान रखो अपने पास। और, बंद करके बकवास! . . .। चुपचाप खाओ . . . समझी।
बहुत दबाव डालने पर मात्र औपचारिकता के लिए एक टुकड़ा उठाई। पर, माँ के मना करने के बावज़ूद बेटी को देते गया टुकड़ा पर टुकड़ा और पिता को देख-देख कर करुणा खाती गई।
स्टेशन से बाहर निकल कर मंदिर के लिए निकल पड़े . . .॥वो देखो बहुत प्यार से राजीव ने रागिनी को कुछ दिखाया। जो मीनाक्षी मंदिर के गोपुरम का आकर्षक कंगूरा (शिखर) था।
क्या तुम जानती हो? यह मंदिर यहाँ के तमिल संस्कृति का जीवन रेखा रूप में लगभग 2500 से 3500 वर्ष पूर्व की ऐतिहासिक कहानी सँजोए हुए है।
45 एकड़ ज़मीन में विस्तृत पूरी मंदिर के चारों दिशाओं में भव्य शिल्प-वास्तुकला और मूर्तिकला में द्रविड़ संस्कृति का एकाधिकार प्रर्दशक, अद्भुत प्रस्तुतीकरण का उदाहरण है। हिंदू देवी-देवताओं से सम्बंधित किंवदंतियों से सुशोभित हज़ारों मुर्तियाँ, नौ तल्लेयुक्त 12 गोपुरम जो दूर से ही आकर्षित करते हैं।
उत्साहित होकर रागिनी ने पूछा, “क्या आप जानते हैं? स्थापत्य और वास्तु कला में आधुनिक विश्व के सात आश्चर्यों में प्रथम स्थान प्राप्त है।
राजीव ने बताया, “मीनाक्षी का अर्थ होता है मछली की तरह आँखों वाली! दक्षिण के पांडय राजाओं का राजचिह्न मछली था।”
हाँ मुझे पता है। रागिनी ने सहमति जताते हुए कहा, “पौराणिक कथाओं के अनुसार पांडय राजा मलयध्वज की कठोर तपस्या के उपरांत पुत्री रूप में माता पार्वती ने राजकुमारी मीनाक्षी के रूप में जन्म लिया था। जो अत्यंत रूपवती व गुणवती थी। युवावस्था में मदूरै की शासन व्यवस्था उनके हाथों में मिली। जिनकी योग्यता से प्रसन्न होकर शिवजी ने सुन्दरेश्वर रूप में उनसे विवाह करने का प्रस्ताव रखा। जिसकी स्वीकृति मिलने पर इस विवाह में सम्पूर्ण पृथ्वी के देवी-देवता सम्मिलित होने पहुँचे थे।
बैकुंठ लोक से भगवान विष्णु भी आ रहे थे परन्तु इन्द्र के हस्तक्षेप से किसी कारण वश देर होने पर बहुत नाराज़ हुए। और इस नगर में कभी प्रवेश नहीं करने की शपथ लेकर नगर के बाहर ही सुंदर पर्वत पर अलगार मंदिर में बस गए। ऐसा जान कर सारे देवी-देवताओं में हाहाकार मच गया। तब वो उन्हें मनाने पहुंँचे और मना कर विवाह में आने के लिए तैयार कर लिया। अन्ततः प्रसन्न होकर वह देवी के भाई बन कर मीनाक्षी और सुन्दरेश्वर के विवाह के साक्षी बने।
जिनकी स्मृति में आज भी भगवान विष्णु को शान्त कर मनाने और देवी मीनाक्षी एवं भगवान सुन्दरेश्वर के विवाह की प्रथा आज भी चैत्र मास में त्योहार के रूप में सम्पन्न होता है। जिसकी शोभायात्रा में इंद्र के वाहन ऐरावत अर्थात् हाथी को स्थान मिलता है।
तुम्हें कैसे पता?
कभी पढ़ी थी मैं! मुस्कुराती हुई रागिनी ने कहा।
मंदिर पहुँच कर राजीव ने और भी बताया, “शिव के बाएँ में स्थित देवी मीनाक्षी के मंदिर का गर्भगृह 3500 वर्ष पुराना है। पूरे मंदिरों के मध्य में है भगवान सुन्दरेश्वर अर्थात्् शिव का मंदिर। जहाँ शिव की नटराजन मुद्रा स्थापित है। जो अपने अति विशिष्ट रूप में है, क्योंकि यहाँ शिव के नृत्य मुद्रा में दायाँ पैर उठा है। यह भारी नटराज की मूर्ति एक बड़ी सी चाँदी की बेदी में बंद है जिसे वेल्ली अम्बलम यानी रजत आवासी कहते हैं।
वो देखो, “विशालकाय गणेश प्रतिमा युक्त गणेश मंदिर है जो मंदिर के सरोवर की खुदाई में प्राप्त हुआ था।”
पहले इसका परिक्रमा करना है महाशय! हाथ पकड़ कर राजीव को रागिनी ने बताया, “यह मीनाक्षी मंदिर का पवित्र सरोवर जिसे स्वर्ण कमल वाला सरोवर कहा जाता है। जो 165 फीट लम्बा और 120 फीट चौड़ा है। अपने नाम के अनुरूप इसमें सुनहरे रंग के कमल फूल खिलते हैं। मंदिर में दर्शन से पहले भक्तों द्वारा इस सरोवर का परिक्रमा करना अनिवार्य है।
यह सरोवर तमिल जन-मान्यता के अनुसार श्रेष्ठ और निम्न साहित्य के कसौटी रूप में है। माना जाता है कि इस सरोवर में निम्न कोटि के ग्रंथ डूब जाते हैं जबकि उच्च कोटि के ग्रंथ तैरते रह जाते हैं।”
फिर राजीव ने आगे बताया, “इस मंदिर की बाहरी दीवारें और अन्य बाहरी निर्माण लगभग 1500-2000 वर्ष पुरानी हैं। जिसका वर्णन तमिल साहित्य में उपलब्ध है।
1310 ईसवी में मुस्लिम शासक मलिक काफूर ने इस मंदिर को लूटपाट कर नष्ट-भ्रष्ट किया था।
जिसका पुनर्निर्माण आर्यनाथ मुदलियार ने कराया था। जिनकी अश्वारोही मूर्ति सहस्र स्तंभ मण्डप की ओर जाती सीढ़ियों के बग़ल में स्थापित है।
दोनों एक-दूसरे को जब तक आश्चर्यचकित कर रहे थें तब तक करुणा भाग चुकी थी और प्रस्तर स्तंभों की ओर खेल रही थी।
इस सहस्र स्तंभ मण्डप में 985 खंभे हैं।
रागिनी की तरह ही अन्य संवेदनशील पर्यटक भी आश्चर्यचकित हो कर बारीकियों भरे नक्काशीदार खंभे देख रहे थें। जो तमिल शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं, और अभी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में हैं।
उधर क्या है? रागिनी के जिज्ञासा व्यक्त करने पर, वहाँ के स्थानीय निवासी ने बताया, “उधर इस मंदिर का कला संग्रहालय है। जिसमें मूर्तियों, चित्र एवं विविध वस्तुओं के माध्यम से 1200 साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत का इतिहास है।
मंडप के पश्चिमी तरफ़ संगीतमय स्तंभ हैं जिन्हें थपकाने से अलग-अलग स्वर लहरियांँ निकलती हैं।
मंडप के दक्षिणी भाग में कल्याण मंडप है। जहाँ धूम-धाम से प्रतिवर्ष चितिरै उत्सव रूप में शिव-पार्वती के विवाह का आयोजन किया जाता है।”
ख़ूब उछलती-कूदती आनंदित करुणा! मंदिर के प्रांगण में अनियंत्रित-उन्मुक्त जम कर मस्ती की। जिसके पीछे-पीछे माता-पिता दौड़ते रहें।
अन्ततः थक कर एक जगह बैठ कर प्रसाद खाते हुए राजीव ने एक पुस्तक रागिनी की ओर बढ़ाया जिसमें भारत के प्राचीन मंदिरों से संबंधित जानकारियाँ एकत्रित थीं।
“लो ये तुम्हारे लिए उपहार है मेरे तरफ़ से। तुम्हें बहुत पसंद है ना इनसे संबंधित जानकारियाँ? इसलिए मैंने ख़रीदा है। फिर कुछ देर रुक कर . . . . . . अब भी नाराज़ हो?”
तब तक करुणा दौड़ कर किताब की तस्वीरें देखने के लिए आतुर नोंचने लगी। जिससे बचाने के लिए अपने छोटे से बैग में डाल ली।
मदुरै की मंदिर का दर्शन करने के बाद राजीव ने रागिनी से कहा, “यहाँ तो दर्शन हो गया है!॥तो क्या रामेश्वरम के लिए बस से चला जाए? . . . . . . शाम तक पहुंँच जाएँगे! . . .। ट्रेन रात को है; जिससे देर हो जायेगी! . . . तब तक क्या किया जाए यहाँ रहकर? . . . इससे अच्छा कि चला जाए।
“हाँ, क्यों नहीं? जो बेहतर है, किया जाए।”
रागिनी ने समर्थन किया।
दोपहर के खाने की व्यवस्था के लिए राजीव दो-चार होटल गया पर समय लगेगा। सुनकर आगे के लिए वह दोनों बस से निकल पड़े।
रागिनी के हाथों में शाखा-पोला (बंगाली सुहागन स्त्रियों के हाथों में पहने जाने वाली चुड़ी) देखकर एक सज्जन ख़ुद को जन्मजात बंगाली परिचय देते हुए बड़े आत्मीयता से राजीव के प्रति कुछ ज़्यादा ही मेहरबान होने का दिखावा करते हुए मेल-जोल बढ़ा रहे थे। दोनों की बातों से परे रागिनी तो बाहरी दुनिया के अवलोकन में व्यस्त थी।
कुछ देर बाद जब दोनों राजीव और करुणा तो थकान से सो गए पर रागिनी उस किताब को निकाल कर पढ़ने लगी जिसमें रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग से संबंधित ऐतिहासिक-भौगोलिक जानकारियों के प्रति उत्सुकता वश पन्ना खोली।
रामेश्वरम और सेतु का अस्तित्व रामकालीन होने के बावजूद यह मंदिर लगभग 800 वर्ष पुराना है। जिसकी बाहरी भाग तो यही कोई छह से सात दशक पूर्व तक का है।
यह मंदिर छह हेक्टेयर में बना हुआ है। सबसे बड़ी विशिष्टता इसकी है कि इस मंदिर का गलियारा विश्व का सबसे लम्बा गलियारा है। जो उत्तर से दक्षिण में 197 मीटर और पूर्व से पश्चिम तक 133 मीटर है। जिसके परकोटे की चौड़ाई 6 मीटर और ऊँचाई 9 मीटर है। मंदिर के प्रवेशद्वार का गोपुरम 38। 4 मीटर ऊँचा है।
मंदिर के ताम्र-पट्ट पर उल्लेख है कि 1173 ईसवी में श्रीलंका के राजा विक्रमबाहु ने मूल लिंग वाले गर्भगृह का स्थापना करवाया था।
मंदिर में विशालाक्षी के गर्भगृह के निकट ही नौ ज्योतिर्लिंग हैं। जनश्रुतियों के अनुसार इनकी स्थापना लंकापति विभीषण ने किया था।
पर बाद में समय-समय पर अलग-अलग राजाओं और कलाप्रेमी धनिकों द्वारा विविध जीर्णोद्धार एवं निर्माण कार्य किया जाता रहा है।
सोलहवीं सदी में मदुरै के राजा विश्वनाथ नायक का सेनापति का अधिनस्थ राजा उदयन सेतुपति कट्टतेश्वर ने दक्षिणी भाग के दूसरे परकोटे की दीवार का निर्माण करवाया था, और नंदी मंडपम जो 22 फीट लंबा और 12 फीट चौड़ा और 17 फीट ऊँचा है। जिनकी पिता और पुत्र की अश्वारोही मूर्ति द्वार पर मौजूद है।
रागिनी अभी तल्लीनता से पढ़ने में व्यस्त थी तभी बस की पिछली सीट से किसी द्वारा बार-बार जाने-अनजाने स्पर्श का अनुभव होने से ध्यान भंग हो रहा था। जिसे वह अब तक अपने मन का भ्रम मान कर अनदेखा कर रही थी।
पर, अब तक कुछ ज़्यादा ही असहज लगने लगा था। राजीव को भैया-भैया कहते वह बंगाली युवक जो ठीक रागिनी के पीछे बैठा था। बालों को छूने, कभी कंधे पर हाथ रखने जैसे अनुचित लाभ उठाने की चेष्टा में प्रयासरत अनुभव कर रागिनी ने आँख तरेरते हुए देखा, और मौन धमकी दी। जिसे वह कितना समझा या नहीं समझा? ये तो वही जाने।
फिर रागिनी पढ़ने लगी। इस बार पन्ने बदल चुके थे। अच्छाई और सहयोगी बनने के दिखावा की आड़ में नाजायज़ फ़ायदा उठाने की कोशिश करते नीच पुरुष मानसिकता पर थोड़ा मन भी खिन्न लग रहा था।
रामेश्वरम तमिलनाडु के रामनाथपुरम ज़िले में है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी में चारों ओर से घिरा हुआ शंख की आकृति वाला द्वीप है। जो बहुत पहले भारत की मुख्य भूमि का टुकड़ा था जिसे समुद्री लहरों ने काट-छांँट कर टापू बना दिया है।
अभी पढ़ ही रही थी कि रास्ते के बस में अब करुणा की तबीयत बिगड़ी। अमरूद का भरपूर असर अब निकलने लगा!॥खाँसते-खाँसते उल्टियाँ करने लगी। वह तो अच्छा था कि उसके कपड़ों की अतिरिक्त व्यवस्था के साथ माँ निकली थी॥पर अपने कपड़ों का क्या करती?
रुमाल, तौलिया, गमछी सब उपयोग कर लिया। बेटी की बिगड़ी तबीयत का ज़िम्मेदार कौन? . . .
नींद उचटने और बेटी की ऐसी हालत देख कर एक परेशान पिता दु:खी और चिंतित माँ को सुनाते हुए, “सब तुम्हारी वजह से हुआ है . . .। बेटी का ध्यान रखती हो नहीं! . . . लापरवाह माँ हो! . . . बेवकूफ़, आलसी औरत से ज़्यादा कुछ नहीं हो तुम, समझी!”
सुबह-सुबह अमरूद भी खिलाएंँ और अब बेवकूफ़ बना कर दिल-दिमाग़ भी खा रहें। हद है इस आदमी के दिमाग़ का! . . . रागिनी सोचती रही।
तब तक रास्ते में किसी जगह पर कुछ देर के लिए बस रुकने पर कुछ खाने-पीने की व्यवस्था करने के लिए राजीव उतर कर दुकान जाने के लिए तैयार हुआ था जिसे देख कर वह व्यक्ति भी अपने सीट पर बैठे-बैठे झट से पैसे आगे बढ़ाते हुए बड़ी अधिकार पूर्वक, “भैया मेरे लिए भी उसी दुकान से बिस्किट और पानी लेते आना।”
राजीव के उतरने बाद वह रागिनी की प्रतिक्रिया जानने के लिए, “भाभी-भाभी आपको कोई दिक़्क़त हुई क्या मेरी वजह से?” कह कर सहानुभूति जताते हुए असहज-असंतुलित भाव मापने की कोशिश किया। जिसपर रागिनी ने पुनः उसके व्यर्थ की कोशिश नकारते हुए, “दृढ़ कठोरतापूर्ण भाव में अपनी दृष्टि और ऊंँगली उठाती हुई, “एक भी शब्द नहीं! समझे!”
बेटी को सँभालती हुई और वह ख़ुद को संयत करने का प्रयास करने लगी। तब तक राजीव भी वापस आ कर अपनी जगह पर बैठ गया। और तत्क्षण उपलब्ध खाने का सामान निकाल कर तीनों खाने लगे।
रामेश्वरम पहुँचने के पहले ही दूसरे जगह स्थान ख़ाली होने पर वहाँ से हटकर करुणा को लेकर रागिनी ने अपना स्थान परिवर्तन कर लिया। जिसे देखकर राजीव ने समझा कि उससे नाराज़ होकर रागिनी ने जगह बदल लिया है। उस अवांछित व्यक्तित्व ने समझ लिया कि उसकी वजह से रागिनी ने जगह बदल लिया है। कुछ मिनटों में राजीव ने पुनः वापस बुलाया पर रागिनी ने मुस्कुराते हुए कहा, आना है तो आप आइए यहाँ! और बग़ल का स्थान ख़ाली करके खिसक गई। जिसे देख कर राजीव भी सारा सामान लेकर रागिनी के बग़ल वाले सीट पर बैठ गया।
आगे : नन्हा बचपन 2 >>विषय सूची
- नन्हा बचपन 1
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