मासूम भय

15-07-2024

मासूम भय

पाण्डेय सरिता (अंक: 257, जुलाई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मनुष्य अपनी प्रवृत्ति और समझ के आधार पर ग्रहण करता है। फ़िल्मों का असर वास्तविक जीवन पर कब, क्या और कितना पड़ता है? सचेतन-जागरूकता बढ़ी या भय? सीमारेखा तय कर पाना बड़ी मुश्किल होता है। 

आतंकवाद से संबंधित फ़िल्मों में जाने-अनजाने अक़्सर दिखाया जाता है कि स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में उपस्थित भीड़ आतंकियों का आसान शिकार होती है। 

26/11/2008 का मुम्बई अटैक भी N.D.T.V. द्वारा सजीव प्रसारण बेटी देख चुकी थी। यह देश का दुर्भाग्य था या किसी धर्म विशेष से प्रभावित आतंकियों की पशुता? तय कर पाना आसान कहाँ? नज़र-अंदाज़ करना भी तो महामूर्खता होगी। 

जिसका भय आठ-नौ वर्षीय बेटी के दिमाग़ में बैठ चुका था कि वह कहीं गणतंत्र दिवस की भीड़ में जाएगी और आतंकवादियों के बम-ब्लास्ट का शिकार हो जाएगी। इसका एक उदाहरण प्रत्यक्ष था मेरे! 

जैसे ही पता चला कि (बच्चों में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए) उसकी माता अर्थात्‌ मेरे कहने पर इस बार गणतंत्र दिवस का परेड देखने हम दिल्ली जा रहे हैं और इसके लिए रिज़र्वेशन भी हो चुका है। वह मुझ पर झल्ला और चिल्ला रही थी, “क्या माँ! तुम्हारी देशभक्ति के चक्कर में कहीं हम किसी पागल और सनकी आतंकवादी के आतंकी हमले के शिकार ना हो जाएँ?” 

यह भय उसके मन में ज़्यादा देर तक रहने नहीं दूँगी। जानकर और मानकर मैं शान्तचित्त अपनी बच्ची के भययुक्त मनोभाव को समझने का प्रयास कर रही थी। पशुता युक्त इस मानवीय दुनिया में वह ग़लत भी तो नहीं थी। 

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