रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 20

वहाँ के वातावरण में पड़ गया रंग में भंग! धड़ाम की आवाज़ के साथ एक भयंकर चीख पलक का गुंजायमान्‌ हुआ। जो लगभग पाँच महीने की थी, सरकती-घिसटती हुई चौकी के किनारे से गिर पड़ी थी।

ये घटना अकल्पनीय और अप्रत्याशित रूप में घटित हो गई थी। जिससे सभी स्तब्ध रह गए थे। उसकी माँ जब-तक आकर उस बच्ची को दूध पिला कर चुप कराती तब-तक पलक के नाना या करुणा के दादा जी की संदिग्ध उपस्थिति, भरपूर मात्रा में मौखिक गालियों के साथ हो चुकी थी।

वहीं दरवाज़े के ओट में दामाद खिसक लिए। बेटी सामने पड़ी। दामाद के सामने ही अनियंत्रित भरपूर गालियों से उनके मातृत्व का गुणगान हुआ। “ये तो बच्चे को लापरवाही बरतने के कारण मार देगी . . . !@#$& . . . !@#$& एक खोकर बैठी है बावजूद सुधरने का नाम नहीं ले रही। क्या कर रही थी तुम लोग जो इतने लोगों के रहने के बावजूद मेरा बच्चा गिर गया?” अनवरत एक तो पलक का क्रंदन-आलाप और उसपर ये क्रूरतम, कठोर-वाणी! क्या विचित्र संयोग उपस्थित हुआ?

अनावश्यक बकवास कर के कुछ अभिभावकों में एक गज़ब की आदत होती है जो अपने बच्चों की समस्याओं का समाधान करने के बदले जटिल कर देंगे। बच्ची शीघ्र-अति शीघ्र अपनी माँ पास जाना चाहती थी। पर, बंदर की तरह बच्ची को सीने से चिपकाए नाना बोले चले जा रहे थे। बच्ची स्वाभाविक क्रंदन के साथ अधमरी हुई जा रही थी।

अन्तत: नानी ने बीच-बचाव करते हुए नातिन को नाना से छीनकर माँ की गोद में डाल दिया। तब जाकर वह दूध पीती हुई शान्त हुई।

सभी का तब तक इतना भरपूर सुन लेने के बाद पेट भर चुका था। फोटो खींचने का भूत उतर चुका था। नाना वहाँ से हट चुके थे। तमाशा और भीड़ छँट चुकी थी। रागिनी अपनी बेटी को लेकर कमरे में, श्वेता दोनों पति-पत्नी बच्ची को लेकर अपने कमरे में, बुज़ुर्ग दंपति एक तरफ़ अपनी-अपनी जगह पर आराम कर के सुस्ताने लगे।

एक-दो घंटे बाद जाकर जब माहौल में पूरी तरह शान्ति छाई हुई थी तभी सभी अपनी-अपनी बिलों से निकल कर बरामदे में आए। आगे का ताम-झाम पुनः प्रारंभ हुआ। स्मृतियों के संचय रूप में डरते हुए कुछ तस्वीरें ली गईं। यथाशीघ्र उस फोटो-शूट-सेशन की खानापूर्ति कर के समेट दिया गया।

हाँ, तो नियत समय पर अब श्वेता अपने ससुराल लौटने की तैयारी करने लगी। जैसे कि बताया जा चुका है। पहले बच्चे के समय चाँदी का पुराना कड़ा जो राजीव के नानी का स्मृति चिह्न था; उसके साथ सोने का लौकेट हनुमान जी का एवं अन्य उपयोगी वस्तुएँ ख़रीद कर नानी घर से दिया गया था।

सुरक्षा कवच रूप में दो-दो नानी घर का संयुक्त आशीर्वाद भी काम ना आ सका। जिसके सुख से फलीभूत हुए बिना बच्चा अपनी अनन्त-यात्रा पर चला गया था।

जब अकारण किसी की बेटी को खरी-खोटी सुनाई जाए तो उसकी बेटी को भला कहाँ से उसका असर ना मिले? श्वेता की सास भी सब कुछ किया-कराया माटी होने का हिसाब-किताब करती, गाहे-बगाहे सुना ही देती। जिसके कारण जल्दी ही पलक के ज़बरदस्ती जन्म की तैयारी की गई थी। परिणामस्वरूप साल भर में जन्म हो गया था। पहले बच्चे के लेन-देन वाला मोहभंग होने पर सारी औपचारिकताएँ, पुनः दुहराने की आवश्यकता नानी को नहीं लगी।

“जैसे कि करुणा के नानी घर से बहुत कुछ मिला है। मेरी बेटी को क्या दे रही हो माँ! मेरी बेटी को क्या दे रही हो माँ!” श्वेता पूछ-पूछ कर अपने इच्छा-आकांक्षाओं का प्रदर्शन कर रही थी। ”नहीं मिलने पर ससुराल वाले क्या कहेंगे भला? इसलिए नानी घर से पलक को भी मिलना ही चाहिए।” दुहराए जा रही थी।

बेटी की ज़िद पर माँ ने समझाया, “एक बार देकर तो देख चुकी हूँ। बच्ची जी कर फले-फूले पहले! तब तो आजीवन देने-लेने की बात और हक-अधिकार तुम्हारा है ही बेटी! अभी नहीं दूँगी। पिछले बार के कारण, मेरा मन छोटा हो गया है। अपने लिए जो लेना है ले लो मुझसे!”

अपनी आवश्यकताओं और रुचि से क्या लिया, नहीं लिया। माँ-बेटी का निजी मामला वो ही समझती रहें। बक्स खुला; माँ-बेटी ने देर तक अपना गुप्त मशविरा करके निपटाया।

सासु-माँ का बक्सा जब भी खुलता मात्र माँ-बेटी की मौजूदगी रहती। अनजाने ही सही जैसे ही किसी काम से रागिनी उधर की ओर गुज़रती; बक्से का मुँह बंद कर दिया जाता। शादी के बाद से जो रागिनी अपनी माँ तक के बक्से में, झाँकने में कोई रुचि नहीं रखती उससे सासु-माँ कहतीं, “जाकर अपना काम करो ना। क्या हुआ? यहाँ क्यों आई हो?” सुनकर बड़ा विचित्र लगता। “भला इनके बक्से में क्या पाऊँगी? कौन बड़ा गड़ा हुआ खज़ाना मिलने वाला?” अपने आप में सोच कर भी हँसी आती।

माँ से मनचाहा लेने के बाद भी असंतुष्ट मन श्वेता का अटका भी तो कहाँ? ‘करुणा के हाथों के कड़े पर।’ करुणा के नानी घर से भी मिला है। इसीलिए जो तुम लाई हो; खोल कर पहना कर, ले चली जाऊँगी। कहकर हँसती हुई अपनी भाभी के सामने ही सोई हुई बच्ची के हाथ से निकाल कर अपनी बेटी को पहना कर निकल गई।

रागिनी सोचती रह गई, “इसे कहते हैं, हक़-अधिकार मायके का! जाने कितना जोड़-घटाव-गुणा-भाग करके एक-एक पाई जोड़कर बेटी के लिए ज़िद करके ख़रीदवाया था। सोच की महानता देखो? नन्ही बच्ची के हाथ से खोल कर ले भागी।

”मूर्खता या समझदारी?” आख़िरकार क्या समझा जाए इसे, दोनों की दृष्टि से?

श्वेता रूप में, “मूर्खता या समझदारी?”

सास-ननद या ख़ुद पति के द्वारा ही, ख़ैर इस भावना को क्या, कभी समझने की ज़रूरत समझी जाएगी?

कभी नहीं! बहू के हाथ में; बाबा जी का ठुल्लू देकर हक़-अधिकार के लाइसेंस से समूचे परिवार द्वारा बहू रूप में औरत को बेवक़ूफ़ ही तो बनाया जाता है।

हाँ, हक़-अधिकार मिलता भी है तो किसे? जो झगड़ालू हो, मात्र उसे!

ससुराल पक्ष द्वारा दबाने, छिपाने, नीचा दिखाने का कोई भी बहाना कब छोड़ा जाता है?

धीरे-धीरे, एक-एक करके जब हद होती है तो निकलने लगता है तनाव और आक्रोश के साथ, “भाड़ में जाओ!” और फिर देवी में दुर्गा का निवास होने लगता है।

राजीव की अनुपस्थिति, ससुराल वालों का स्वार्थीपन भरे उपेक्षा के बीच एक ही शक्ति थी रागिनी के पास ‘शिक्षा की’। हाँ, तो रागिनी अपने जिस अधूरे सपने में जी-जान से लगी हुई थी उसमें सफल हुई। तो आगे पढ़ने की इच्छा और बलवती हुई। उसने अपने पति राजीव से इस विषय पर बात की तो उधर से टका-सा जवाब मिला, “देखो, अभी-अभी नौकरी लगी है तुम्हारे लिए पैसे भेजूँगा तो माँ को बहुत बुरा लगेगा। अभी थोड़ा रुक जाओ। तब-तक बेटी के लिए अपना बहुमूल्य समय देकर उसका पालन-पोषण करो। जो अभी तुम्हारी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है।”

बात करते हुए सासु माँ सुनकर, झमकते हुए बोली, “देखो अभी मेरा दिमाग़ मत ख़राब करो। बुढ़ापे तक पढ़ाई करती रहेंगी। नहीं मिलेगा एक भी पैसा! मेरा छोटा बेटा बेचारा इंटर करके बैठा है। उसके सामने अब आगे की पढ़ाई की बात करके, उसमें हीनता की भावना मत भरो। समझीं।”

लाया हुआ सारा फ़ॉर्म और सूचना भीगी पलकों से फाड़ कर फेंक रागिनी! अपने देवर के इंटर पास करने के बाद ग्रेजुएशन पहले वर्ष की परीक्षा में अँग्रेज़ी में फ़ेल होकर आत्मविश्वास हीनता का दण्ड भुगतने के लिए तैयार हो गई। इतना ही नहीं; अभी तक तो बहुत कुछ भुगतने के बावजूद और भी बहुत कुछ भुगतना बाक़ी था।

ननद ने अपने से बड़े पर सबसे छोटे भैया जी के लिए एक कच्ची-कली पसंद करके ब्याह करवाया था। पर वह कच्ची-कली बार-बार उस भाई के बाग़ में आने से इन्कार कर रही थी। चलो अपने इस कथन का अर्थ स्पष्ट करती हूँ।

बाईस-तेईस साल की लड़की रागिनी, राजीव से ढाई साल छोटी थी तो अपनी सास की दृष्टि में बुढ़िया थी। वह ख़ुद अपनी बेटी के लिए दस साल बड़ा लड़का दामाद रूप में लाई थीं जिस बेमेल जोड़े को परम आदर्शवादी जोड़ा मानकर ख़ुद में कृतकृत्य मानती थी। उनकी बेटी बहुत भाग्यशाली है जो वह पुरुष उसे पति रूप में मिला है।

तो अक़्सर रागिनी से भी और अपने आस-पास की सहेलियों के बीच में अपनी असंतुष्टि जताते हुए कहा करतीं, “मेरा बेटा एक बुढ़िया ले आया। मैं इतनी बूढ़ी बहू थोड़े ना लाती। अपने बेटे के लिए कोई काँच-कुमार (कच्ची-कली अर्थात्‌ पंद्रह-सोलह साल की लड़की) ढूँढ़ती।

जो फूल रागिनी रूप में उनके बेटे के सान्निध्य में खिलने को तैयार थी; वह सासु माँ को फूटी आँख नहीं सोहाती थी। और जो कच्ची-कली दूर की ढोल थी उसके लिए जाने कितने अरमान सजे थे।

रागिनी को चिढ़ाती-चिढ़ाती छोटी बहू रूप में कच्ची-कली को ढूँढ़ने की भी अलग कहानी है। राजीव से मात्र डेढ़ साल के छोटे भाई की शारीरिक आवश्यकताएँ शीघ्र, अति-शीघ्र विवाह की थी। परन्तु राजीव जब-तक शादी ना कर ले; छोटे भाई की कैसे हो पाती? राजीव के विवाह होने तक यही मुख्य रुकावट थी।

रागिनी के आते ही रास्ता साफ़ होने के बावजूद कई जगह से रिश्ता आया। पर घरेलू, परिश्रमी लड़की की शर्त थी। गँवना के फ़ालतू चक्कर में पड़े बिना विवाह के तुरंत बाद जिसे पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में लगाना है।

इधर उनके उस बेटे की शादी की बेताबी बढ़ती जा रही थी। अन्ततः बेटी-दामाद ने इसकी ज़िम्मेदारी लेते हुए, मुख्य कर्ता-धर्ता की भूमिका निभाते हुए ढूँढ़ी ‘एक कच्ची-कली!’

हाँ, तो इन कच्ची कली का कुछ परिचय इस प्रकार है: 

असमर्थ एक किसान की बेटी जो अपने मौसी के यहाँ रहकर पल-बढ़ रही थी। किसी तरह ग्रामीण पाठशाला में औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर रही थी। विवाह के समय दसवीं की मैट्रिक परीक्षा दी थी। अपने आप को तीस मारखाँ की तरह अनुभव करती हुई; सबसे ज़्यादा ज्ञानी और शिक्षित होने का भ्रम पाले हुए सत्रह-अट्ठारह साल की अपरिपक्व मन-मानसिकता वाली थी। सम्पूर्ण घरेलू काम में निपुणता ही मुख्य शर्त थी जिसमें पूर्ण पारंगत के मामले में लड़की में कहीं कोई संदेह की बात नहीं थी।

विवाह के समय, “ठीक है! ठीक है!” करने वाले लड़की वाले, विवाह के उपरान्त कुछ दिन बाद विदाई करके जो ले गए, उसके बाद वापस आने ना दें, या फिर लड़की ना आना चाहें . . . ये तो पति-पत्नी समझें . . . बाहरी कौन समझेगा?

उसकी वजह से देवर की अलग ज़िद से पूरा घर परेशान! यौवन के उग्र तूफ़ान में फँसा पुरुष जो अपनी शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करना चाहता था। पर उसकी वो कच्ची-कली, आकाश-कुसुम बनकर दूर रहना चाहती थी।

इस कारण सासु माँ, राजीव और रागिनी के संबंधों में खटास डालती रहती थी। क्योंकि राजीव-रागिनी की मधुरता देख-देख कोई कुढ़ रहा। उनका छोटा बेटा अकेलापन महसूस कर के जल रहा था।

एक मूर्ख स्त्री की वजह से दूसरा जोड़ा भी दुखी रहे ये कौन सा न्याय है? . . . कौन कहता है माँ, निष्पक्ष होती है? . . . माँ भी भेदभाव करती है . . . वो भी सुखी को दुःखी, और दुःखी को सुखी करने के लिए प्रपंच रचती है। स्वार्थी भेदभाव अपने ही बच्चों से आँख मूँद कर करती है।

रागिनी बहुत अच्छी तरह समझ-जान कर भविष्य पर दृष्टि डाले चल रही थी।

राजीव के वाराणसी से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद से लेकर नौकरी ज्वाइनिंग तक में जितना ज़्यादा नाटकीय मोड़ आया मात्र उस कच्ची-कली के ना आने से। जो कम ख़तरनाक नहीं था।

छोटा बेटा अपनी पत्नी के लिए अनशन पर था। इसलिए तुम दोनों भी एक दूरी बना कर रखो ताकि उसका विरह कम हो सके। जिसके लिए अक़्सर मौक़े-बेमौक़े टोक-टाक, करती रहतीं। जिसे देख-समझ कर रागिनी अक़्सर असहज महसूस कर उठती। ये वही समय था जब कई ज़िम्मेदारियों के साथ वह गर्भवती रहते, स्कूल पढ़ाते हुए, अपनी अधूरी शिक्षा पूरा करने में जी-जान एक किए हुए थी। उन सब के बीच एक विचलन, सास की असहनीय कटाक्षपूर्ण टिप्पणियाँ रहतीं। 

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