रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 31
औरतों के लफड़े में साड़ियाँ और गहने बड़े महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। जो अजीब तो है संभवतः पाठक इससे बोरियत महसूस करने लगें। स्त्री और साड़ियाँ एक दूसरे की पूरक बनकर एक यथार्थ जुड़ा होता है।
जिसकी चर्चा यहाँ अवश्यंभावी होगी या जिसकी चर्चा ना करूँ तो संभवतः कुछ अधूरा रह जाए। जो भी हो इसका निर्णय पाठकों पर छोड़ती हूँ।
इस जीवन में रागिनी के लिए आज तक एक भी अच्छी साड़ी जो ख़रीद नहीं सकीं; नौकरी लगने के साल भर बाद की पहली होली में राजीव के पैसे लेकर भी बहू के लिए एक साड़ी चुनीं भी तो उस स्तर का कि नौकरानी भी जो अस्वीकार कर देती। जिन्हें अपने बेटे की कमाई में से उसकी पत्नी के लिए ख़र्च करना, फ़ुज़ूलख़र्ची लगा। उनका व्यवहार होता सिर्फ़ नीचा दिखाने वाले हाव-भाव लिए।
उदास रागिनी ने जब अपने पति पास ले जाकर वह साड़ी दिखाई, “कोई बात नहीं; लो ये रुपए। इस साड़ी को लौटा कर अपनी पसंद की ले आओ,”राजीव ने हँसते हुए कहा।
जब रागिनी बाज़ार जाकर उस दुकान से साड़ी बदल कर ले आई तो सास भावना जल-भुनकर सभी से कहती रहतीं, “सरकारी नौकरी पर देखा घमंड! सास की लाई साड़ी लौटाकर, महारानी अपनी पसंद की ले आईं। तीन सौ की साड़ी नहीं चाहिए। छह सौ की चाहिए। बाप रे, ये घमण्ड!”
बेटी को हज़ार रुपए की साड़ी पहनाने का दावा ठोककर रागिनी का अक़्सर मज़ाक बनाने वाली, बहू की छह सौ रुपए की साड़ी पचा नहीं पा रही थीं। मिल-जुल कर माँ-बेटी, जेठानी-देवरानी ने अन्ततः ऐसी बुरी नज़रें लगाईं कि साड़ी बर्बाद हो गई।
रागिनी के मायके की बहुमूल्य साड़ियांँ भी देखकर नापसंद करती हुई, ‘कोई ढंग की तो ये साड़ी नहीं है। ऐसी साड़ियाँ इसके मायके से मिलती हैं। मैं तो अपनी बेटी को हज़ार रुपए से कम की साड़ी देती ही नहीं।’ उनका ये दावा सन् 2004 का है।
पर वही बुराई की गई साड़ी जब सलीक़े से पहन कर तैयार, रागिनी निकलती तो सुनती, “देखो कितनी सुंदर लग रही हो! अच्छी साड़ियों को रखी रहती है। जैसे-तैसे कपड़े पहन कर घूमती रहती है।”
पहले तो आदर-सम्मानवश कुछ नहीं कहती थी। पर बाद में नियमित सुनकर हँसती हुई रागिनी कह देती, “माँ ये वही साड़ी है। उस दिन आपने, जिसकी भरपेट बुराई किया था।”
“बेटा क्या लाया? बेटा क्या लाया?” प्रश्नचिह्न जो उठा था तो राजीव ने अगली छुट्टी में आने से पहले, रागिनी के निर्देशानुसार ईरोड के चेन्नई सिल्क मॉल से तीन साड़ियों की अपनी पसंद की ख़रीदारी की। जिसमें सबसे महँगी वाली सुनहले किनारी की लाल सूती साड़ी, अपनी माँ के लिए ली। एक क़ीमत और क्वालिटी में पत्नी और बहन के लिए ख़रीदीं। शारीरिक रंगत के आधार पर बस रंग दोनों के अलग-अलग थे। गोरी के लिए गाढ़े ताम्बई रंग की; श्यामली रंग की बहन के लिए घीया रंग अर्थात् क्रीम रंग की साड़ी! जिसे लेकर चहकती हुई रागिनी पहुँची सासु माँ को दिखाने। और देखते ही नकारात्मक पहली प्रतिक्रिया हाव-भाव और शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त हुए थे, “कैसी साड़ी लाया है, राजीव? . . . न रूप में! . . . न रंग में! किसी ढंग का तो नहीं है।”
सुन कर रागिनी हतप्रभ थी। बावजूद आत्म-नियंत्रित करती हुई, “क्या माँ आप भी? अपनी पसंद से पहली बार बेटा लाया है और आप ऐसे बोल रही हैं। जो भी लाया, जैसा भी लाया; लाया तो सही।”
बहू की बात सुनकर बोलीं, “लाओ छठ में पहन कर के गद्दे का खोल (कवर) बना दूँगी।”
सच भी यह है फिर उस दिन के बाद वह साड़ी रागिनी को कभी दिखाई भी नहीं दिया। पसंद न आने पर बहू को लौटा भी सकती थीं, जो वाक़ई उसे पसंद थी। पर पति की भावना का सम्मान करती हुई स्वीकार कर संतुष्ट थी।
देवरानी, जेठानी, और ननद के इकलौती बहन होने का एकाधिकार जताने में बढ़ा-चढ़ा कर बारंबार सासु माँ, चिढ़ाने और उकसाने के लिए रागिनी के पास चर्चा करती रहतीं, “जो बात इकलौती होने में है वो दो-चार बेटियों के रहने पर थोड़े ही होता है।”
ख़ुद भी बोलकर देवरानी, जेठानी और ननद से भी अक़्सर बुलवाती, “जो बात इकलौती होने में है वो दो-चार बेटियों के रहने पर थोड़े ही होता है।”
पहले तो इस बात की गंभीरता रागिनी समझ ही नहीं पाई कि ये किसे और किस संदर्भ में कहा जा रहा है? क्योंकि इन सारी इकलौतियों को मिला कर भी उन सभी का एक अकेली रागिनी के परिवार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति तक पहुँचने का सामर्थ्य नहीं था। जान-समझ कर भी उसे चिढ़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ने वाली सासु माँ!
अंततः जब बात समझी तो खीझ कर रागिनी को एक दिन बोलना पड़ा, “माँ, दो-चार बेटियाँ होने के बावजूद, मैं और मेरी बहनें! अच्छे संस्कार अपने माता-पिता से लेकर, अपने मेहनत और भाग्य पर भरोसा करके ज़्यादा सुखी जीवन जी रहीं हैं। और हाँ, बाप-भाई के भरोसे नहीं अपनी कमाई, नौकरी-पेशा में हैं। इकलौतियों का अक़्सर, भाग्य और पुरुषार्थ ज़्यादा परीक्षा लेता है। बेटी रूप में उनके माता-पिता के तरफ़ से आपकी इकलौतियों को माना कि जो भी मिलेगा इसके लिए मुझे क्या? मैं आज तक एक शब्द भी पूछी हूँ? . . . और ना ही इससे कोई मतलब है . . .। ना लेना-देना . . . इस घर में मेरी जेठानी, देवरानी और ननद रूप में महान इकलौती बेटियाँ कर क्या रहीं हैं? चलिए वो अंबानी की बेटियाँ हैं; और बराबरी के अंबानी परिवार रूप में ही उनको ससुराल-मायका प्राप्त है। उसी अमीरी के अनुसार अपनी प्रकाण्ड-ज्ञानवती बेटी के लिए दामाद भी तो महान-महान चुना है उन्होंने और आपने!”
जिस रागिनी को पारिवारिक और सामाजिक राजनीति से कोई मतलब नहीं है। फिर भी ज़बरदस्ती घसीटने का कारण? मनमुटाव डाल कर रिश्तों में और ये झूठे दिखावे की मायके का भरोसा; जो आज तक समझ नहीं पाई? प्रत्येक परिवार अपनी बहू और पत्नी के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को समझे तो इस प्रकार के फ़ालतू के बकवास नियम को जगह ही न मिले। अपनी बहू को जो दिल से दस रुपए नहीं देंगी, बेटी को सौ और हज़ार रुपए देने का दावा ठोकेंगी।
“जो पहनती हैं तो उन्हें, दो-दो सौ की पाँच साड़ियाँ मिलीं। मैं नहीं पहनती तो यदा-कदा मायके से एक हज़ार की एक लेती हूँ तो इसका मतलब . . .?” सचमुच खीझती-सी कई दिनों तक रागिनी सोचती रही।
इस तरह की फ़ालतू बातें सुनकर सारी सहनशीलता छोड़ कर; वह आख़िरकार क्यों प्रभावित हुई? अपने आप में अफ़सोस भी हुआ। बचपन से सुनती-समझती आई है। ‘बड़ों का सम्मान करना चाहिए।’ पर सीमा रेखा बड़ों को भी तो समझनी चाहिए, ‘किसी से क्यों, क्या और कितना बोल रहे?’
इस प्रतिक्रिया का सबसे बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि फिर उसके बाद उनके इस ‘इकलौती’ वाले व्यंग्य में बहुत कमी आई।
प्रत्येक स्त्री का अपने पति और ससुराल से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील जुड़ाव शारीरिक और मानसिक रूप में ज़रूरी है। जिसके बिना वह अधूरी रहती है। सास भी तो जुड़ी थीं कभी। जिससे जुड़े बिना, किसी की भी गृहस्थी की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती है। जेठानी-देवरानी जब तक नहीं जुड़ी थीं, सास के लिए क्या और कितनी आफ़त थी?
इस शाश्वत सत्य की अगली कड़ी रूप में समयानुसार उनकी बेटी श्वेता का भी ससुराल में जुड़ना-रसना-बसना ज़रूरी था। जिसे देखने-समझने के बावजूद, सास रागिनी को अक़्सर सुनातीं, “तुम लोगों के व्यवहार और यहाँ के माहौल के कारण ही मेरी बेटी यहाँ आना-जाना नहीं चाहती।”
कुछ यही बातें रागिनी के सामने श्वेता ने भी ज़ाहिर कीं थीं। जैसे मायके के प्रेम में पति का प्यार त्याग कर यहीं सर्वदा के लिए रस-बस जातीं। सोचने-समझने के बावजूद, मायके-ससुराल के लिए कितना सही-गलत है? रागिनी कई बार गंभीरता से विचार किया। ये कैसा प्यार है? प्यार तक तो ठीक पर आरोप ये किस हद तक सही है?
मान लो आज भौजाई आकर दुखी कर दे रहीं। पर बेटी की शादी की उतावली माता ने इंटर पास करते ही जल्दीबाज़ी मचाते हुए उन्नीस-बीस की उम्र में ब्याह करवा दिया? और अब बहुओं पर बिल फाड़ रहीं हैं। जब समय था पास रख कर और भी पढ़ा लिखा कर उज्ज्वल भविष्य बनवाने का तब तो बेटी के प्रति ये प्रेम नहीं उभरा? जवानी की आग लगी थी जो बेटी के ब्याह के लिए उतावली थी। (रागिनी के अन्तर्मन में मौन बवंडर मचता रहा)
फिर गहन-गंभीर रागिनी सोचने लगी, ‘विवाहिता रूप में, मैं भी तो राजीव के लिए सर्वस्व त्याग कर आई। चाहे-अनचाहे कुछ आसानी तो कभी मुश्किल से ही सही झेलती-सुनती-समझ रही। यहाँ से कई गुना ज़्यादा सुख-सुविधाएँ अपने पिता के घर में मिलने के बावजूद पति के लिए यहाँ पड़ी हूँ।’
ये कहानी तो सबके साथ है। बस अंतर मात्र इतना-सा है कि मैं अपने मायके और भाई-भौजाई पर ठीकरा फोड़ नहीं सकती। क्योंकि मायका तो है पर भाई-भौजाई नहीं। और सबसे बड़ी बात स्वाभिमानी पत्नी रूप में मुझे, मायके पर बोझ बनने का शौक़ भी नहीं।
“ओह, धन्यवाद प्रभु!” दीर्घ उच्छवास भर सोचती हुई रागिनी कुछ सहज-स्वीकार्य अनुभव कर रही थी। सास-ननद रूप में रिश्तों के ख़ूबसूरत लम्हें अगर ऐसे होते हैं? मेरी माँ-बहनों और मेरे लिए तो अच्छा ही हुआ। नहीं तो इसी घटिया मानसिकता की कहानी की पुनरावृत्ति मेरे घर पर भी होती न?
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