रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 4बेटी करुणा की बुख़ार से परेशान माँ, रागिनी, ड्यूटी के कारण दिनभर ग़ायब रहने वाले पिता राजीव पर डॉक्टर को दिखाकर जल्दी से जल्दी ठीक करने का दबाव डालती। परेशान तो पिता भी रहता पर वह हिम्मत रखता कि आज से बेटी की तबीयत में सुधार ज़रूर से ज़रूर होगा।
अंत में पत्नी की अधीरता और बेटी के बुख़ार में कोई सुधार नहीं देखकर किसी शिशु रोग विशेषज्ञ से दिखाने का विचार कर आसपास में पता किया गया। एक-दो डॉक्टरों का दवा असफल रहने पर अन्य किसी शिशु रोग विशेषज्ञ डॉक्टर पास पहुँच कर बेटी को दिखाया गया तो बहुत धैर्य से बच्चे की स्थिति के बारे में जानकारी लेकर डॉक्टर बोले, “बुख़ार तो आधे घंटे में उतर जाएगा। बच्चे के मलद्वार में मात्र एक कैप्सूल डालना होगा।”
जिसे देकर और दो दवाइयाँ लिखते हुए कहा, “अब आप जाओ दवा लेकर घर तक पहुँचते-पहुँचते बच्चा हँसने खेलने लगेगा आपका!”
सुनकर द्रवित माँ आँखों में आँसू लिए भावुक होकर धन्यवाद देती हुई निकली। सचमुच घर तक वापस लौटते-लौटते बहुत सुधार हुआ था। ऑटो से उतरने तक में बेटी की चंचलता भरी सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।
पूरे मुहल्ले के लोग हाल-चाल पूछने लगे। उसे पूर्णत: स्वस्थ होने में कुछ दिन लगे। फिर से वह चहचहाने लगी। पहले की तरह खिड़कियों और बालकनी के छज्जों से वस्तुएँ फेंकने लगी। जान-बूझकर माँ को तंग करने के लिए कभी दिखाकर, कभी बिना दिखाए चाकू, चम्मच, कंघी, खिलौने, रबड़, हेयर बैंड कुछ भी छोटी-मोटी वस्तु हाथ में मिलती, फेंकने लगी। जिसे दिन भर उठा-उठा कर लाने की ज़िम्मेदारी घर-बाहर सभी की रहती। बार-बार बच्चे लौटाने आते, “आंटी! नीचे फेंका हुआ था।” कभी-कभी उठा भी ले जाते। टीवी के टेबल (जिसे बहुत ही सावधानी से टीवी समेत टेबल को मज़बूत रस्सियों के सहारे खिड़की के छड़ से बाँधा गया था) पर लटक कर झूलने लगती। बड़ी मुश्किल से चढ़ने लायक़ जगह पर भी चढ़कर, जाने किस सहजता से चढ़कर सिंदुर की डिबिया, आलता और नाखून पॉलिश ख़ुद पर पलट लेती। मुँह, हाथ, पैर, कपड़े और बाल सभी जगह क्रीम और दंतमंजन के ट्यूब से निकाल कर पिचड़ लेती। बाल झाड़ने के लिए घूमने चलने का लालच देना पड़ता वरना लम्बे बाल यूँही चेहरे और कंधे पर बिखरे दाल-भात, खिचड़ी, दूधमय लगे रहे हों उसे क्या? माँ बाल धो रही है। चलो बेटा जी मेरी सबसे पहली धोएगी ना? तब राज़ी होती। उससे कुछ भी करवाने के लिए पहले ख़ुद करो। स्वास्थ्य की दृष्टि से रखे गए पानी फ़िल्टर से पानी निकाल कर पूरे कमरे में फिसलन कर देती।
एक दिन शौचालय की साफ़-सफ़ाई में व्यस्त माँ को देखकर बेटी ने भी खेल-खेल में सर्फ-एक्सेल का खुला पैकेट एड़ियाँ उचका कर बाथरूम के भरे पानी के हौदे में डाल दिया और फिर क्या पूरा दिन माँ ज़बरदस्ती कपड़े ढूँढ़-ढूँढ कर कंबल-चादर धोने में व्यस्त रही ताकि उसके सीमित संसाधनों की सफ़ाई में अधिकतम उपयोग हो जाए।
शाम तक धोने-सुखाने की पागलपंती में हालत पस्त हो चुकी थी। अन्ततः सीमित संसाधनों के कारण और समयानुसार नियमित पानी के स्रोत का एकमात्र साधन का सोच-विचार कर बचा हुआ पानी बहा कर हौद साफ़ कर देने की विवशता भी थी। बेटी ख़ूब ख़ुश होकर पूछे, “माँ, काम ख़त्म हो गया? माँ, कपड़े धो ली?”
झपकी लेती माँ को पाकर बिछावन से भागकर अक़्सर रसोई की आलमारी में घुस कर आटा-दाल मिला देती। चावल छिट देती। कभी आलू-प्याज बिखेर देती।
चौबीसों घंटे समर्पित होने के बावज़ूद वो इधर-उधर छटकती हुई कुछ ना कुछ खेल करती रहती अपनी जादुई पिटारे से और माँ सँभालती हुई घड़ी के पेंडुलम की तरह पिता और पुत्री के बीच घूमती रहती।
माँ का दूध पीने के लालच में बाहरी खाना नकारने के कारण सभी की सलाह होती कि पोषण के लिए बाहरी भोजन की आदत ज़रूरी है सो अपना दूध बंद करने की ज़रूरत है।
फिर क्या दो साल होने वाले हैं तो दूध छुड़ाना ज़रूरी भी है। इस कोशिश में दिन तो गुज़र जाए पर गहन रात्रि में पूरे मुहल्ले में रात के एक-दो बजे जो हंगामा मचाए कि दूर-दूर तक गुंजायमान् और कंपायमान कर जाए।
एक कटोरी में दूध और चम्मच लगाए, माँ की सारी कोशिशें बेकार हो जातीं। फिर एक हाथ में चम्मच लेकर जाल में फँसाने के लिए उसका प्यारा हिस्सा, माँ का दूध जैसे उसके मुंँह पास जाता। मुस्कुराती दंतुरित मुस्कान करती, मुँह खोलती। वरना मुँह जाम कर लेती।
ज़बरदस्ती मुँह में डाला हुआ दूध अंदर घोंटने के लिए भी लालच रूप में अपना दूध रूपी घूस देनी पड़ती।
कोई खाने की चीज़ तीखी है इसलिए माँ . . . दूध!
मीठी है इसलिए माँ . . . दूध!
खट्टा हो तो, माँ . . . दूध!
नहीं खाना, माँ . . . दूध!
सुख का कारण, माँ . . . दूध!
कुछ भी दु:ख है तो बचाव का माध्यम . . . दूध!
दूध की मिठास के लिए नीम की कड़वाहट भी बर्दाश्त कर लेती। पर, खाना नहीं। खाना खाने के नाम पर गोनू झा की बिल्ली की तरह ग़ायब!
दूध का स्रोत अंत में बैंडेज डाल कर अदृश्य करना पड़ा। मासूमियत भर कर उँगली से खोद-खोद कर ढूँढ़ती हुई, “माँ तुम्हारा घाव ठीक हुआ?”
“नहीं, तुम खाना खा लो। खाओगी तो ठीक हो जाएगा।” कह कर दो-चार चम्मच दाल-भात, खिचड़ी, हलवा, खिलाने का बहुत-बहुत मुश्किल प्रयास का प्रारंभ करना पड़ा। एक-एक क़दम, खाने के प्रति फल और सब्ज़ियों के साथ नारीयल पानी तक शुरूआत की ओर ले जाने वाला रहा।
हाथ धुला कर, पालथी मारकर बैठने की आदत डालने की देखा-देखी कोशिश माँ के देखा-देखी बच्चे द्वारा नक़ल जारी हुई।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये थी कि बेटी चेहरे और आवाज़ से पहली बार अपने पिता के इतनी क़रीब आई थी। अर्थात् पिता के नाम और चेहरे के एकात्मकता से परिचित हुई थी कि उसका पिता कौन है? वरना अब तक तो उसके लिए पिता नाम का 'राजीव' पहचान एक तस्वीर मात्र में सिमटा हुआ था। निकल कर शारीरिक और मानसिक रूप में प्रबल हुआ था। नहीं तो अब तक तो वो सिर्फ़ माँ के क़रीब ही पूर्णतया थी। उसके जीवन और दिनचर्या में अन्य रिश्तों के अतिरिक्त पिता महत्त्वपूर्ण हुए। पर एक समस्या अभी तक थी कि अपने किसी भी घरेलू दैनिक क्रियाकलापों के लिए माँ चाहिए। पानी माँगने पर पिता ने ग्लास दिया तो . . . नहीं, आप नहीं। माँ देगी। माँ तुम दो ना। मुझे पापा से नहीं लेना। राजीव द्वारा जानबूझ कर ग्लास या कोई भी खाद्य-पदार्थ मुँह लगा लेने पर, पापा का जूठा नहीं खाना। पापा का जूठा पानी नहीं पीना। माँ तुम खाओ। लो पी लो। कुछ भी खाने-पीने के लिए माँ को देती जो जूठा की परिभाषा में नहीं था उसके लिए।
पिता के साथ बाहर कहीं आने-जाने के लिए वह दौड़ कर चप्पल जूते-पहन कर दौड़ने लगी। पिता के ड्यूटी जाते समय उनके साथ जाने की ज़िद करने पर समझाने पर समझ कर मान जाती।
“ड्यूटी में पापा अकेले जाएँगे। वहाँ बाबू नहीं जाती। सर मना किए हैं कि कोई अपने बाबू को लेकर नहीं आएगा। नहीं तो उसको डाँट मिलेगी और उसके बच्चे को सर जी रख लेंगे। तुम अपनी माँ पास रहो। हम दोनों माँ-बेटी ख़ूब घूमेंगे।”
जब भी मन घर में रहते हुए ऊब जाए तो सुबह-दोपहर-शाम कभी भी ज़िद ठान दे, “बाहर चलो। बाहर चलो।”
राजीव के ड्यूटी से वापस आने पर एक आवाज़ सुनकर, “खोलो बेटा!” सुनकर दौड़ती प्रत्येक आहट पर।
“माँ! खोलो दरवाज़ा, पापा आया।”
“थाली दो, पापा खाना खाएंँगे।”
देने के लिए पानी का ग्लास लेकर दौड़ती।
“जाओ लेकर आओ,” सुनकर लेने-देने लगी।
लगभग पौने दो साल की उम्र तक यहाँ आने से पहले तक, करुणा अपने पिता से दूर रहने के कारण, वह पिता नाम का रिश्ता, नाम पर लाजीव पुकारती एक तस्वीर मात्र समझती थी। पिता के सामने भी उससे पूछा जाता, “तुम्हारे पिता कहाँ हैं?”
तो येन-केन-प्रकारेण मेज़ पर रखी तस्वीर को बहुत ही प्रेम से लाकर दिखाती और बोलती, “पापा”।
जान-बूझकर कर लोग पूछते—कहाँ हैं तुम्हारे पापा? वो आनन-फ़ानन में उस तस्वीर को प्रस्तुत करके अति प्रसन्नता का अनुभव करती।
बहुत ही प्रेम से तस्वीर को सीने से लगाए हुए घिसटती हुई एक-एक सीढ़ियाँ उतरती हुई, देखकर कलेजा मुंँह को आता। सोते-जागते जब भी कोई कमी महसूस होती बच्चे के मनमौजीपन में तो . . . पापा!
अड़ोस-पड़ोस में कोई युवक उसे अपनी गोद में उठाकर प्यार करता तो . . . पापा!
बड़े ग़ौर से उस व्यक्ति का चेहरा देखती और जैसे कुछ सोचने-समझने की कोशिश करती और फिर अस्फुटित शब्दों में पा . . . पा . . . कहने का प्रयास करती।
उसका कारण था कि जिस 'दिन और समय' बेटी का जन्म हो रहा था उसी समय पर उसके पिता राजीव की सरकारी नौकरी की चिकित्सीय जाँच चल रही थी।
जन्म के तीन दिन बाद राजीव आ पाए थे। दो महीने तक पालन-पोषण में सहयोग करने के बाद अपनी ट्रेनिंग में चले गए। फिर उसके बाद छह महीने पर दस दिन की छुट्टी में आते-चले जाते। यही क्रम पौने दो साल की उम्र तक चलता रहा।
जब दुर्गापूजा से पहले घर आए और बेटी की नींद खुली तो अकस्मात् पहली बार किसी को बिछावन पर सोया देख कर घबड़ाई सी रोने लगी।
रागिनी को सेतु बन कर नन्ही बेटी को . . . 'पा . . . पा' . . . . . . कहकर पापा से परिचय कराना पड़ा था। धीरे-धीरे वह परिचित और अभ्यस्त हो पाई थी पर छह महीने की अवस्था होती ही क्या है? एक दिन खाना खाते समय चटनी में डुबोई उँगली चटा दी बेटी को, वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। राजीव की इस मूर्खता पर बहुत नाराज़ माँ, उस पिता की मूर्खता पर बिफर पड़ी थी।
पिता की अनुपस्थिति में घिसटती-सरकती धीरे-धीरे बेटी चलना सीख रही थी।
अगली होली तक एक वर्ष की बेटी हो चुकी थी। घर पर, होली मनाने और उसके बाद अपनी पत्नी और बेटी को ले जाने के लिए उसके फूफा प्रकाश आए थे।
करुणा आदतन सुबह-सुबह सो कर उठने के बाद अपने कमरे से सीढ़ियाँ उतरती नीचे आई और उसकी दृष्टि अपने फूफा पर गई।
नीचे के कमरे में जो अपनी बेटी को खेला रहे थे। कुछ देर तक वह दरवाजे़ पर खड़ी ठिठक कर निरीक्षण-परीक्षण करती रही। फिर जब वो बिछावन पर उसे ले जाकर बिठा दिए तो कुछ शर्माती हुई पा . . . पा कहकर बिछावन से उतरने की कोशिश करने लगी एवं अपने संकेतों और हाव-भाव से उन्हें “पापा!” कहती हुई उँगलियों को पकड़ कर, ऊपर अपने कमरे में खींच कर ले गई।
उनको बिछावन पर बिठा कर भागी और घरेलू कामों में व्यस्त माँ को ज़बरदस्ती उँगली पकड़ कर ले जाने लगी।
“माँ चल! माँ चल!” कहकर रोने लगी।
कामों में व्यस्त माँ कुछ समझ नहीं पा रही थी। अन्ततः वो सोची संभवतः बेटी दूध पीने के लिए ऐसा कर रही तो सारे काम छोड़ कर उसके साथ चली गई।
पुचकारती हुई, “क्या चाहिए बेटा जी को? बिस्किट चाहिए?”
अपने फूफा के पास ले जाकर बेटी बोली सांकेतिक हाथों के इशारे पर बिछावन पर हाथ पटकती हुई और फिर शब्दों में, ”बैठ माँ!”
सारे क्रियाकलापों को माँ, बच्चे का मनमौजीपन मान रही थी तो ननदोई ने सारी स्थिति स्पष्ट किया कि कैसे वे अपने कमरे में अपनी बेटी को खेला रहे थे तो बच्ची अपने फूफा में अपने पिता को मान कर वहाँ से उठाकर उँगली पकड़कर यहाँ अपने कमरे में बुला कर लाई और बिछावन पर बिठाया।
“पापा बैठ!” बोलकर
सुन और समझ कर भी क्या किया जाए? इतनी लम्बी दूरी और दो साल की ट्रेनिंग बीते। तब तो कोई उपाय भी किया जा सके।
हाँ, ये भी सच है कि चाहे-अनचाहे किसी भी रूप में, बच्चे की शिशुत्व से उसके पिता भी तो वंचित रह रहे हैं।
जब दुर्गापूजा से पहले घर आए और बेटी की नींद खुली तो अकस्मात् पहली बार किसी को बिछावन पर सोया देख कर घबड़ाई सी रोने लगी।
वो सारी बाल-लिलाएँ कहाँ देखीं और समझीं? जो एक पिता के लिए जागरूक, भावनात्मक-संवेदनशील पक्ष बनता है।
नन्ही बेटी के कपड़े गीला करने पर रागिनी साफ़-सफ़ाई में व्यस्त थी तभी पिता किसी अन्य आवश्यक काम के लिए रागिनी को भेज दिया कहते हुए, “तुम जाओ मैं लँगोटी पहना देता हूँ। अनाड़ी पिता द्वारा बढ़िया से ना पहना पाने के कारण ढीली-ढाली लँगोटी आधा उतर कर नीचे, बाहर कहीं जाने के लिए तैयार पिता के हाथ से होता हुई कमीज-पैंट, जूता-मोजा सर्वस्व, अकस्मात् शौच के छीटें से भर गया। यह क्या हुआ? जब तक समझ पाता सब-कुछ बदलने की बारी आ गई थी। उसकी यह हालत देखकर सभी ठठाकर हँस पड़े थे।
एक बात दोनों में समानता लिए हुए थी कि पिता-पुत्री दोनों औंधे मुँह सोते। बिछावन पर चाहे जिस स्थिति में लिटा दो, नन्ही बच्ची औंधे मुँह पलट कर हाथ-पैर सिकोड़ कर चूतड़ उठा कर सो जाती। रागिनी दूर खड़ी रहकर पिता-पुत्री के समान निद्रिल स्थिति को आनन्दमय निहारती।
माँ, बार-बार बेटी और पिता के बीच सेतु बनती पर जब-तक परिचय हो पाता तब-तक छुट्टी ख़त्म और फिर से एक लम्बी अवधि की दूरी प्रारंभ।
बिछावन पर लेटे-लेटे पिता देखता रहता, कैसे घुटनों के बल चलती करुणा दरवाज़े के परदे पास आकर अटक जाती। एक हाथ से वह परदा हटाती उसके बाद फिर आगे बढ़ने के लिए जैसे बढ़ती परदा यथावत अपने स्थान पर पुन: फैल जाता। वह इसे अलघ्य दीवार मानकर जहाँ की तहाँ अटकी रह जाती। परदे की उलझन में उलझी, खेलती-खेलती यदा-कदा वहीं पर पखाना-पेशाब तक कर देती।
लगभग छह महीने की थी। दोपहर का समय था माँ रसोई में भोजन व्यवस्था कर रही थी।
बेटी, दादी और पिता के संरक्षण में चौकी पर बिठाई गई। बेटे के साथ इधर-उधर की बातें करते हुए जाने कब चिनिया-बादाम की पोटली, दादी लेकर बैठ गई?
माँ-बेटे के बीच चिनिया-बादाम का स्वाद और रिश्तों की मिठास चल रही थी घर के अन्य बच्चे भी इधर-उधर की चहलक़दमी कर रहे थे ऐसे में ना जाने कब, नन्ही बच्ची बादाम का एक छिलका निगल गई?
दोनों माँ-बेटे रूप में दादी और पिता के नज़र से अनदेखा रह गया। छिलका अटक कर बच्ची के गले में तकलीफ़ देने लगा।
वह थोड़ा-बहुत परेशान सा व्यवहार करने लगी तो झट से रागिनी को सौंप दिया गया।
माँ की गोद में भी बेटी की बेचैनी कम होने का नाम न ले। वह दूध पीने से भी अस्वीकार कर रही थी। छटपटाहट में गिलगिलाहट जैसे कुछ आवाज़ करती तो उसका मन बहलाने के लिए बाहर की ओर भागी ताकि उसका मनोरंजन हो और मन शांत करने का कुछ उपाय हो।
बाहर चबूतरे पर, मुहल्ले की स्त्रियाँ बैठी हुई थीं। बच्ची की वैसी बेचैनी देख कर कारण पूछा, जिसमें माँ ने अपनी असमर्थता जताई।
तो उन्होंने संदेह व्यक्त किया कि कहीं बेटी कुछ मुँह में निगल तो नहीं गई? मुँह में देखो, ज़रूर कुछ फँसा होगा।
अनुभवहीन माता सुनकर बेटी के मुँह को खोल कर प्रयासरत देखी तो कुछ तो लग रहा, पर निकल नहीं रहा था।
थोड़ा सा झुकाकर उसकी मुँह में उँगली डालने पर माँ के हाथ में उल्टियों के साथ वह बादाम का छिलका बाहर निकला।
तब जाकर बेटी को राहत मिली। पिता और दादी की लापरवाही, कोई छोटी बात नहीं थी। बावजूद माँ सिर्फ़ वह छिलका दिखाकर अपने कमरे में बेटी को लेकर चली गई।
वो जानती है कि कितना भी सही रहने के बावजूद ससुराल भावना वाली दृष्टि से ग़लत सिद्ध की जाएगी।
यदि बहू से ज़रा भी ग़लती हो जाए तो हाय-हाय करके हाय-तौबा करने में सास और पति को सिर पर चढ़ते एक मिनट नहीं लगेगा। अपनी असावधानी पर चूँ नहीं करने वाले। राहत मिलने पर माँ का दूध पीती हुई बेटी सो गई।
विषय सूची
- नन्हा बचपन 1
- नन्हा बचपन 2
- नन्हा बचपन 3
- नन्हा बचपन 4
- नन्हा बचपन 5
- नन्हा बचपन 6
- नन्हा बचपन 7
- नन्हा बचपन 8
- नन्हा बचपन 9
- नन्हा बचपन 10
- नन्हा बचपन 11
- नन्हा बचपन 12
- नन्हा बचपन 13
- नन्हा बचपन 14
- नन्हा बचपन 15
- नन्हा बचपन 16
- नन्हा बचपन 17
- नन्हा बचपन 18
- नन्हा बचपन 19
- नन्हा बचपन 20
- नन्हा बचपन 21
- नन्हा बचपन 22
- नन्हा बचपन 23
- नन्हा बचपन 24
- नन्हा बचपन 25
- नन्हा बचपन 26
- नन्हा बचपन 27
- नन्हा बचपन 28
- नन्हा बचपन 29
- नन्हा बचपन 30
- नन्हा बचपन 31
- नन्हा बचपन 32
- नन्हा बचपन 33
- नन्हा बचपन 34
- नन्हा बचपन 35
- नन्हा बचपन 36
- नन्हा बचपन 37
- नन्हा बचपन 38
- नन्हा बचपन 39
- नन्हा बचपन 40
- नन्हा बचपन 41
- नन्हा बचपन 42
- नन्हा बचपन 43
- नन्हा बचपन 44
- नन्हा बचपन 45
- नन्हा बचपन 46
- नन्हा बचपन 47
- नन्हा बचपन 48
- नन्हा बचपन 49
- नन्हा बचपन 50