रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 2“यहाँ क्यों चली आई?” नज़दीक होते हुए कान में फुसफुसा कर राजीव ने पूछा।
“आपके उस मुँह बोले भाई साहब की वजह से।”
“क्यों? . . . उसने कुछ किया क्या?”
“कुछ करने का मौक़ा मिलता उससे पहले ही यहाँ आ गई।”
“पहले क्यों नहीं बोली?”
“क्या बोलती? राह चलते हुए सबक़ो गले लगाते हुए, मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करने की पुरानी आदत जो है आपकी!”
कुछ देर मौन व्याप्त रहा दोनों के बीच में जिसे भंग करते हुए, सामने की ओर संकेत करते हुए, “वो देखो!” राजीव ने रागिनी का ध्यानाकर्षित करते हुए दिखाया कि कैसे तीव्र गति से चलती हुई बस से बाहरी दृश्य-परिदृश्य में दूर-दूर तक पानी ही पानी दिखाई दे रहा था। उथले सागर और सँकड़ा जलडमरूमध्य का क्षेत्र है यह, जहाँ लहरें सामान्यतः शान्त रहती हैं।
रामेश्वरम पहुँचने पर बस से उतरकर एक जगह खड़ा करा कर राजीव कमरा देखने चला गया, “तुम दोनों कहाँ-कहाँ भटकोगी? मैं आता हूँ, सब व्यवस्था करके।”
रामेश्वरम की गलियों में मछलियों की बदबू बहुत साधारण बात है। जिसकी बदबू पर नाक सिकोड़ती करुणा बोली, “बदबू आ रही माँ! बदबू!”
बेटी की संवेदनशीलता देखकर आश्चर्यचकित रागिनी ने समझाया, “यहाँ समन्दर है ना! . . . समन्दर में मछलियाँ हैं। मछलियों में बदबू! . . . और यहाँ पर . . . मेरी गोदी में राजा बेटा . . . तू!”
लगभग आधे घण्टे तक इधर-उधर भटकने पर समुद्र किनारे पर स्थित किसी सराय में एक ख़ाली कमरा मिला।
बहुत अच्छी तरह से समझ-जानकर कमरे की व्यवस्था होने पर सारा सामान रखकर बाहर निकल पड़े।
खाना खाने के बाद समुद्र तट पर पहुँचकर मना करने के बावज़ूद दोनों पिता-पुत्री ख़ूब छपके पानी में, “रोज-रोज समन्दर में मस्ती करने थोड़े ही मिलता है? . . . है ना बेटा?”
रागिनी किनारे बैठ कर रामेश्वरम तट पर व्याप्त गंदगी कपड़े, प्लास्टिक के बिखरे टुकड़ों और उनके सड़न पैदा हुए दुर्गंध का अनुभव-आकलन कर रही थी।
वापसी में बेटी के स्वास्थ्य पर भी मनन-चिंतन करते हुए पति से दवा लाने का मनुहार की, किन्तु राजीव ने अपने वक्तव्य से रागिनी को मौन कर दिया, “सब ठीक है। छोटी-छोटी बात का बतंगड़ बना कर परेशान होने की आदत होती है तुम औरतों की। चलो-चलो, कमरे में चल कर आराम करो माँ-बेटी। इतनी दूर डॉक्टर ढूँढ़ने नहीं आएँ हैं हम!”
रात का खाना खाकर लौटने के बाद सोते समय फिर से बेटी की खाँसी का तूफ़ान पुनः अपने चरम शिखर पर, और बेटी की परेशानी पर पिता का माता के प्रति दोषारोपण का पहाड़ भी।
अन्ततः राजीव बाबू तो चादर तान कर सो गए। बहुत सुबह उठकर शिव दर्शन करना है तो जल्दी सोना है . . . (कहकर)।
रागिनी पूरी रात जागती आँखों में काटने के लिए, खाँसती करुणा को अपने कंधों पर लिए समन्दर की लहरों की उभरती आवाज़ें गिनती रही।
मानसिक उद्वेलन में रह-रह कर राजीव द्वारा क्रोध में बोला गया एक-एक शब्द भी गूँज रहा था।
पूरी रात समन्दर किनारे के उस कमरे में रागिनी ख़ुद को बहुत अशांत-असंतुष्ट अनुभव करती रही।
सचमुच बहुत-बहुत बुरा अनुभव लिए वह रात गुज़री . . . कमरे से . . . बरामदे . . .। तो कभी बालकनी! . . . बरामदा . . . . . .। कमरा! पुनः बालकनी।
बेटी गोद से कंधा, कंधे से कभी बिछावन, पुन: बिछावन से गोद का चक्र चलता रहा।
“कमा कर सारी व्यवस्थाएँ करने वाले पति और नन्ही बेटी के साथ पहली बार घूमने के नाम पर . . . मैंने यहाँ आकर क्या खोया और क्या पाया?”
टहलती हुई, रात्रि के अवसान पर निकले कृष्ण पक्ष के चाँद को देखती . . .। तो कभी अँधेरी दुनिया में खलबली मचाते समन्दर का अस्तित्व . . . और उस समन्दर की अशान्ति में अशान्त सैंकड़ों नौकाओं का उद्वेलन जैसा ही तो ख़ुद उसका अपना अस्तित्व . . . पूरी रात आकलन करती रही।
बेटी घबराए नहीं इसलिए अंदर ही अंदर कुढ़न के बावज़ूद एक मज़बूत माँ बनकर शान्त-संयमित रहने का प्रयास करती रही।
मंदिर की घंटा ध्वनि के साथ, सुबह के तीन बजे से ही सड़कों पर श्रद्धालुओं की उमड़ती भीड़ की आवाज़ें बहुत तेज़ सुनाई देने लगीं। बेटी को नींद आई पर सोते हुए अकस्मात् खाँस उठती। बेटी को गहरी नींद आने पर रागिनी भी थोड़ा सा जाकर कहीं सो पाई।
सुबह की सुनहली किरणों के स्पर्श पर कुछ खाँसी कम हुई थी। पर रागिनी ने राजीव पर ड्राई कफ़ सिरप लाने का दबाव डालते हुए धमकाया, “आप लाइएगा जाकर या मैं लाऊँ?”
“आख़िर कौन सी दवा लाऊँ?”
क्रोध में, अँग्रेज़ी और आयुर्वेदिक दवाओं में से दस दवाओं का नाम लिखकर पेपर पर दे दिया, “इनमें से जो भी मिल जाए लेकर आइए।”
फिर जो दवा मिली, खाना खिलाने के बाद उसके मात्र दो मात्रा पर करुणा की सारी समस्याओं का समाधान था। इतना ही नहीं राजीव की कड़वी बातों का भी।
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग का मंदिर भारतीय निर्माण कला और शिल्प कला का सुंदर नमूना है। जिसका प्रवेशद्वार लगभग चालीस मीटर ऊँचा है। मंदिर की चारदीवारी में और अंदर सैंकड़ों विशाल खंभे हैं। जिनकी अलग-अलग कारीगरी युक्त खंभों पर बेल-बूटे हैं।
रामनाथ की मूर्ति के चारों ओर परिक्रमा के लिए तीन परकोटे बने हैं। जिनकी लम्बाई चार सौ फुट से अधिक है। दोनों ओर चबूतरे हैं। चबूतरों के एक ओर पत्थर के बड़े-बड़े खंभों की लम्बी क़तारें हैं।
इस मंदिर के निर्माण में कई लाख टन के पत्थर लगे हैं। जो नावों में लाद कर लाए गए होंगे, क्योंकि आसपास में वहाँ गंधमादन पर्वत के अतिरिक्त अन्य कोई पर्वत नहीं है। जबकि गंधमादन पर्वत एक टीला मात्र है।
रामनाथ मंदिर के अंदर और परिसर में अभी बाइस मीठे पानी के तीर्थ कुण्ड हैं। जिनमें स्नान कर श्रद्धालु भगवान शिव का पूजन करते हैं। जिन्हें देखकर राजीव ने रागिनी से चिढ़ाते हुए पूछा, “क्या तुम भी वहाँ नहाने जाओगी?”
“जी नहीं! . . . . . . आपने जो पूछने का कष्ट किया। मेरे लिए इतना ही बहुत ज़्यादा है। आप दोनों बाप-बेटी अपना समझिए।”
वैसे अनेकों जनश्रुतियों और मान्यताओं में थोड़ी-बहुत उलटफेर के साथ रामायण की कथा के अनुसार रावण का वध करने पर ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिए राम ने यहाँ शिवलिंग की स्थापना का निश्चय करके हनुमान को काशी से शिवलिंग लाने भेजा। पर शुभ-मुहूर्त के समय पर हनुमान जी की होती देरी देखकर माता सीता ने रेत का शिवलिंग बना दिया। जिसे उचित समय पर स्थापित कर दिया गया था।
स्थापित होने के बाद हनुमान जी भी वहाँ पहुँच गए। जिसे देखकर हनुमान जी दुखित ना हो जाए का विचार कर के उस काले पत्थर वाले शिवलिंग की भी स्थापना की गई थी। वहाँ जो आज भी दोनों शिवलिंग पूजित और वंदित है।
यहाँ पर जैसे दो-दो शिवलिंग स्थापित हैं कुछ वैसे ही दो-दो देवियों की भी स्थापना है।
सेतु माधव कहलाने वाले भगवान विष्णु का मंदिर है। यहाँ के चप्पे-चप्पे में राम से संबंधित स्मृतियों को सँजोए अनमोल विरासत हैं।
“कहाँ-कहाँ जाओगी अभी? फिर कभी आएँगे तो चलना कभी! आज के लिए इतना ही रहने दो,” कहकर राजीव ने विराम लगा दिया।
अभी तो रामसेतु, विल्लीरणि तीर्थ, राम पादुका मंदिर, लक्ष्मण तीर्थ जैसे अन्य कई अन्य स्थान जिन्हें देखना और अनुभव करना बाक़ी था। पर . . . राजीव की अनिच्छा देख-समझ कर रागिनी के पास और कोई विकल्प ही नहीं था।
पर सच्चाई यही थी कि पूरे रामेश्वरम का समय राजीव के बक-बक में रागिनी के असफल मातृत्व पर उँगली उठाते-उठाते थक गयी थी। जो अपने आप में एक विचित्र अनुभव था एक पत्नी और माँ रूप में खींचतान लिए।
ढलती दोपहरी में पूरी तरह स्वस्थ करुणा को रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर खेलते हुए देखकर संतुष्ट राजीव ने दवा के सकारात्मक असर पर ख़ुशी जताई।
तभी तो कल शाम को मैं कहती रह गई थी . . . “अरे यार नाराज़ क्यों हो रहें? दवा लाइए ना जाकर!”
“इतना दूर तुम अनजाने जगह पर घर-घर जाकर, डॉक्टर खोजने आई हो? . . . तुम औरतों की यही कमज़ोरी है . . . बात-बात पर घबरा जाना है . . .। यही कारण था कि तुम दोनों को कहीं नहीं ले जाता था मैं! . . . क्या सोच रही हो तुम? . . . बिना डॉक्टर के यहाँ दवा मिल जाएगा?”
“उफ़ भगवान! . . . तब यही डायलॉग था ना आपका?” रागिनी ने व्यंग्य और खीझ में, चिढ़ाते हुए दोहरा दिया और पुनः किताब पढ़ने में व्यस्त हो गई।
यहाँ के धनुषकोडी से श्रीलंका की दूरी 48 किलोमीटर है। धनुषकोडी से मन्नार की खाड़ी तक पैदल मार्ग था जो 1480 ईसवी के चक्रवाती तूफ़ान में नष्ट हो गया था। तो लगभग चार सौ साल पहले राजा कृष्णप्पनायकन ने पत्थर का पुल बनवाया था जिसके क्षतिग्रस्त होने पर इस पुल को अँग्रेज़ों द्वारा एक जर्मन इंजीनियर की मदद से रेल पुल में परिवर्तित कर दिया गया।
राजीव के ध्यानाकर्षित करने पर रागिनी ने किताब बंद कर बाहर देखना शुरू किया।
“देखो-देखो यही है वो पांबन ब्रिज!”
सचमुच रामेश्वरम की यात्रा के प्रारंभ से लेकर लौटने के दिन दवा खा कर निकलने तक में कितना परिवर्तन था? और इस खाँसी के कारण दोनों के बीच रिश्तों की जटिल विसंगतियाँ भी बेहद संवेदनशील रहीं। पर सबसे विचारणीय विषय ये है कि उस निष्पाप बचपन को क्या पता कि उसके कारण उसके मूर्ख माता-पिता कब, क्यों और कैसे लड़-मर रहे हैं? बुद्धिमान होते तो परिस्थितियों की जटिलता उत्पन्न ही नहीं होती। बहुत कुछ ऐसा ही तो होता था रागिनी भी नन्ही बच्ची थी तब। छोटी सी बच्ची किसी परेशानी या बात पर रोती या कोई ज़िद करती तो दूसरे कामों या बच्चे में व्यस्त माँ, उसकी मान और मनमानियों को अनदेखा कर देती। ऐसे में कहीं से पहुँचने पर देख पिता असंतुष्ट और आक्रोशित होकर पत्नी को डाँट-फटकार कर बैठते। तो कभी रसोई में व्यस्त कामों को देखकर, कच्चा-पक्का जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता वह फेंक कर छिन्न-भिन्न कर डालते, सिलाई में व्यस्त माँ को देखकर मशीन, धागे, कपड़े कुछ भी उठा कर पटक-फेंक देते। परिणामत: हो जाता एक महाभारत!
लौटते हुए रागिनी की गोद में करुणा थक कर सो चुकी थी। बग़ल में पूरी तरह शान्त-संतुष्ट राजीव बैठा हुआ था। अति भीड़ के कारण रागिनी के समीप, दोनों की बाँहें एक-दूसरे से सटी हुई, एक स्वर में धड़कनों की स्पंदन लिए थी।
रागिनी के पैरों में झन्नाहट होने पर, राजीव ने अपनी गोद में लिए करुणा को सुला लिया। जिसे देखकर और अच्छे से करुणा के पैरों को रागिनी ने फैला लिया। आधा-आधा माता-पिता दोनों के गोद में लम्बवत सोई हुई स्वस्थ-सुरक्षित बेटी कितनी प्यारी लग रही थी।
पैसेंजर ट्रेन में बार-बार रागिनी का ध्यान एक महिला पर केन्द्रित था जो कई और लोगों के साथ भीड़-भाड़ में सीट ना मिलने पर किसी तरह जगह बनाकर नीचे बैठी है।
मुखाकृति जिसकी देखने में, उसकी देवरानी रानी जैसी है। उस महिला का शारीरिक सौष्ठव देवरानी की तुलना में बेहतर था। शरीर पर साड़ी तो यही कोई सामान्य रूप में था पर ज़ेवर-गहनों से बहुत अच्छी तरह निम्न-मध्यम वर्ग की एक ख़ुशहाली उसके हाव-भाव और चेहरे पर मुस्कान लिए थी।
रागिनी इतने दूर, अलग-अलग समाज-संस्कृति में रहने के बावज़ूद भी ईश्वरीय कृति की सुन्दर समानता देखने में व्यस्त थी। तभी राजीव ने उसे टोका, “इस तरह क्या देख रही हो?” राजीव को लगा कि उस महिला के द्वारा पहने गए ज़ेवर-गहनों पर रागिनी का ध्यान है। क्योंकि इस मामले में स्त्रियाँ तो जन्मजात बदनाम होती हैं।
“मैं उसके चेहरे को देख रही हूँ। क्या वो आपकी छुटकी (छोटे भाई पत्नी) {क्रमानुसार संदर्भ में बड़की-मझली-छोटकी बोलचाल में प्रयोग किया जाता है} जैसी नहीं लग रही है?”
“हाँ! सचमुच वैसी ही लग तो रही है।”
“तो मैं बस वही ध्यान से देख रही थी,” रागिनी ने स्पष्ट किया मुस्कुराते हुए।
पिछली यात्रा में एक शयन सीट पर बड़ी मुश्किल से नन्ही बेटी के साथ पति-पत्नी ने जो किसी तरह गुज़ारा किया था अनुभव कर राजीव ने वापसी में दो सीट रखीं। एक पर अकेला वह, और सामने की दूजे पर माँ-बेटी। गुलाबी रंग की हल्की साड़ी पर सितारों का काम था, जो इस बार रागिनी को दुर्गापूजा के उपलक्ष्य में उसकी माँ ने दी थी, बेटी को दूध पिलाने में सहजता के लिए पहन ली थी। गहरी नींद में बेटी के लात मारने पर जाने कब ओढ़ी हुई चादर आधी शरीर पर और आधी रेलगाड़ी के फ़र्श पर पड़ी थी। रागिनी की साड़ी भी घुटने तक ऊपर सरक चुकी थी। दिन भर की थकान और पिछली रात की जागरण में कुछ होश ही नहीं रहा। वह तो किसी के द्वारा चादर उसके पैरों पर डालने पर वह अकस्मात् उठ कर बैठ गई और सामने किसी अपरिचित को पाकर हतप्रभ थी कि हुआ क्या?
“ऐ क्या कर रहे हो?”
कठोरता भर कर सवाल उठाया। जिसे सुनकर राजीव भी उठ बैठा। वह अपरिचित भी रागिनी के संवेदनशीलता पर सफ़ाई देने लगा, “माफ करना तुम्हारा चादर नीचे गिरा हुआ था। तुम्हारी साड़ी भी घुटने तक उठी हुई थी जो ठीक नहीं लगा मुझे इसलिए चादर ओढ़ाने लगा। मेरा कोई ग़लत उद्देश्य नहीं था। आज तक मैंने अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला को छुआ तक नहीं है। सचमुच उसकी क़सम। भगवान क़सम।” उसके एक शब्द में हिन्दी, अँग्रेज़ी, मलयालम और तमिल शब्दों के मिश्रण के साथ शराब के नशे की ख़ुमारी थी। रागिनी की नींद उचट चुकी थी। एक पश्चाताप और अपराधबोध में वह दृढ़ निर्णययुक्त सबक़ ले चुकी थी यात्रा में कभी साड़ी ना पहनने का।
छुट्टी से लौटकर राजीव अपनी ड्यूटी में बुरी तरह व्यस्त हो चुका था।
कहती हुई रागिनी मौन हो गई . . .
“क्या माँ और भी बताइए ना? छोटी बेटी ने बड़ी की शैतानियों के प्रति उत्सुकता व्यक्त की।
करुणा मुहल्ले में सबसे नन्ही बच्ची थी इसलिए सभी उससे बहुत लगाव रखने लगे थे। जब भी जिसे भी मौक़ा मिलता सत्या-नित्या दो बहनों के अतिरिक्त अड़ोस-पड़ोस की लड़कियाँ उससे खेलने-खेलाने के बहाने ले भागती। वह भी अपनी प्यारी-प्यारी हरकतों और बोली से बेबी-डॉल की तरह सबक़ा मनोरंजन करती रहती।
खेलती-कूदती बड़ी सहजता से मलयालम और तमिल शब्दों का प्रयोग करने लगी थी। जैसे वेंडा (छोड़ दो या नहीं चाहिए के संदर्भ में) इल्लै (नहीं) वेनूम (चाहिए)।
सबसे बड़ी बात कि उसके लिए भाषा कोई रुकावट ही नहीं थी। पता नहीं कैसे? कुछ-कुछ बोल कर पौने दो साल की बच्ची अपनी अभिव्यक्तियों को बेझिझक प्रकट कर लेती।
एक दिन खिड़की से अपने पिता को बाय-बाय करती हुई, राजीव को, कहीं जाते हुए अलविदा पापा कर रही थी। तभी रास्ते से गुज़रती हुई एक बच्ची करुणा को प्रत्युत्तर में बाय-बाय करने लगी। तो वह उसे स्पष्ट कर बोली, “मैं अपने पिता को बाय-बाय कर रही, बाबू आपको नहीं।
वह बच्ची सुनकर बोली, “अप्रीया (ऐसा क्या?) पापा नहीं . . . कहो डैडिया! . . . पापा मतलब . . . छोटा बच्चा!”
तमिल में पापा का अर्थ 'छोटा बच्चा' होता है और पिता के लिए अँग्रेज़ी का 'डैडी' शब्द 'डैडिया!” . . . रूप में प्रचलित संबोधन है। दोनों अपनी-अपनी जगह सही थीं और आपसी संवाद से संपर्क स्थापित कर रही थीं। बालकनी से दो नन्ही बच्चियों का मधुर संवाद सचमुच विचारणीय और प्रभावित करने वाला था। जिसे ग़ौर से सभी आसपास के लोगों ने सुना।
पौने दो साल की बच्ची अपने से बड़ी बच्ची को बाबू कहकर बुला रही थी इससे अच्छा मज़ाक क्या होगा?
सामान्यत: जैसे दक्षिण भारतीय होते हैं वैसे ही गहरी श्यामल रंग-रूप वाली सत्या-नित्या जो कि कोडैकनाल की थीं, कोयंबटूर के किसी कॉलेज में पढ़ती थीं। उनकी माता की अपने पति की जगह पर अनुकंपा नियुक्ति हुई थी। छोटी बहन की तुलनात्मक दृष्टि से थोड़ी मांसल सत्या आत्मकेंद्रित, पर नित्या एकहरी शरीर वाली मुखर व्यक्तित्व की स्वामिनी थी।
सोते-जागते, उठते-बैठते करुणा कुट्टी (बच्चे को प्यार से पुकारते हुए तमिल शब्द) में ही उनकी जान बसती। करुणा भी अपने कमरे की संकुचित सीमा से थक-ऊब कर उनके पास भाग जाती।
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- नन्हा बचपन 1
- नन्हा बचपन 2
- नन्हा बचपन 3
- नन्हा बचपन 4
- नन्हा बचपन 5
- नन्हा बचपन 6
- नन्हा बचपन 7
- नन्हा बचपन 8
- नन्हा बचपन 9
- नन्हा बचपन 10
- नन्हा बचपन 11
- नन्हा बचपन 12
- नन्हा बचपन 13
- नन्हा बचपन 14
- नन्हा बचपन 15
- नन्हा बचपन 16
- नन्हा बचपन 17
- नन्हा बचपन 18
- नन्हा बचपन 19
- नन्हा बचपन 20
- नन्हा बचपन 21
- नन्हा बचपन 22
- नन्हा बचपन 23
- नन्हा बचपन 24
- नन्हा बचपन 25
- नन्हा बचपन 26
- नन्हा बचपन 27
- नन्हा बचपन 28
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- नन्हा बचपन 32
- नन्हा बचपन 33
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- नन्हा बचपन 37
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- नन्हा बचपन 42
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- नन्हा बचपन 44
- नन्हा बचपन 45
- नन्हा बचपन 46
- नन्हा बचपन 47
- नन्हा बचपन 48
- नन्हा बचपन 49
- नन्हा बचपन 50