रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 43

 

आज बहुत कुछ बोल गई थी। जो संभवतः ज़रूरी भी था। प्रत्येक घर में पति-पत्नी के रिश्ते में पति के रिश्तेदार हावी होकर नकारात्मक प्रभाव छोड़ जाते हैं। जो कि हर घर में होता है। इस प्रकार के बकवास से उन रिश्तों का वज़न भी हल्का होता है। 

पर क्या अपने पिता के व्यवहार और व्यक्तित्व से राजीव अपरिचित है? चलो माँ-बहन की ही बात हुई या पत्नी रूप में ही कोई है . . . तो तुम्हारा अपना विवेक किस दिन काम आएगा? माँ का सम्बन्ध पिता और उनके बच्चों के लिए है। पर . . . उसमें मैं कहाँ हूँ? . . . आपके बहन की अच्छाई उनके ससुराल और आपके बहनोई के काम आएगी . . . बहुत ख़ुश होगी तो हँस कर दो मीठे बोल बोलेंगी और इससे ज़्यादा मुझे क्या? . . . पर मैं तो हमेशा के लिए आपकी हूँ। इस तरह बिना सोचे-समझे का आरोप-प्रत्यारोप अत्याचार नहीं तो और क्या है? . . . ये झूठ-मूठ की भावनात्मक हत्या! अधिकारों का हनन! बहुत कुछ जान-समझ कर पति रूप में बेटा और भाई सम्बन्ध को भी समझदारी रखनी चाहिए . . .। पर नहीं, अपनी बेवुक़ूफ़ियों से अपना जीवन नर्क करते हुए पत्नी के सुख-चैन को नष्ट करने का अधिकार किसने दिया है तुम्हें? . . . कम से कम मैं तो नहीं देती तुम्हें! 

दोनों के वाक्-युद्ध में वह नन्ही बच्ची जो द्वंद्व में कभी माँ को देख रही थी, कभी अपने पिता को! आख़िर इनके बीच में हो क्या रहा था? शब्दों की तीव्रता जो उस उम्र और अवस्था के अनुसार समझ से परे थी। क्षुब्ध, अशान्त रागिनी, विचारों के तूफ़ानी भँवर से निकलने के लिए करुणा को लेकर बाहर चली गई। 

स्कूल से लौटते बच्चों को देखकर करुणा ढेरों सवाल करने लगी, “ये कहाँ जा रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? . . . क्यों जा रहे हैं? इनके बैग में क्या है? . . . हाथ में क्या है?” वहाँ ले चलो की ज़िद पर खींच ले गई। 

टहलती हुई बाहर सड़क की ओर बढ़ चली। ताकि पेड़ों-पौधों को देखकर अपनी उद्विग्न, मानसिक अशान्ति को वह कम कर सके। टहलती हुई एक जगह पर सजे हुए मंच और किसी प्रकार के आयोजन की तैयारियों को देखती है। आकर विशाखा से चर्चा करने पर पता चलता है कि रात में यहाँ भरतनाट्यम नृत्य का क्षेत्रीय आयोजन होने वाला है। जिस में यहाँ के स्थानीय लोग दर्शक हैं। नृत्य समारोह के बाद सामूहिक भोज की भी व्यवस्था है। “क्या हम लोग भी आएँगे यहाँ?” करुणा ने उत्सुकतावश पूछा। 

“पिता से अपने पूछ लेना . . . वो चलेंगे तो हम चलेंगे . . . नहीं तो नहीं जाएँगे।”

“हम जाएँगे माँ! हमें जाना है।” करुणा ने ज़िद की। जिसे स्वीकार करते हुए उसके पिता ने सहमति जताई। सचमुच बहुत ही ज़्यादा ख़ुश होकर एक-एक भाव भंगिमा देख रही थी और ख़ुशी से झूम कर कभी अपने पिता के कभी अपनी माँ की गोद में बैठती। 

अन्ततः कार्यक्रम समाप्त होने पर करुणा को विशाखा ने रोक लिया। राजीव और रागिनी घर वापस आ गए। 

कर्नाटक की नवरात्रि का असर वहाँ के समाज में पूरी तरह था। जिसके कारण दस दिनों का सार्वजनिक अवकाश रहता। उस दरम्यान पारंपरिक लोकनृत्य बाघ का मुखौटा लगा कर नृत्य करते हुए समूह में शामिल होकर लोग बहुत सुन्दर और आकर्षक अभिव्यक्ति करते हैं। सनातनी परंपरा को दर्शाती अद्भुत-सुन्दर, अप्रतिम विशाल झाँकी निकलती है। 

दक्षिण भारत के केरल और कर्नाटक में धर्म और आस्था के नाम पर लाख धर्म-परिवर्तन का बाज़ार गर्म है। पर वहाँ की सांस्कृतिक-विरासत की मज़बूती भी अस्वीकार नहीं की जा सकती है। जिसके सौंदर्य से रागिनी और करुणा अभिभूत होते हुए सुख ले रही थी। 

वहाँ का कैलेंडर पन्द्रह दिनों बाद वाला है। पूर्णिमा के बदले अमावस्या को महीने की समाप्ति होती है। पूरे एक महीनअ वहाँ के कार्तिक मास में पूजा-भण्डारा आयोजित किया जाता है। वहाँ के कोंकण ब्राह्मणी समाज की बात कर रही हूँ, जहाँ पर छठ पूजा की तरह छह दिनों का विशेष पूजन होता है। 

भोजपुरी और कोंकणी में आजा-आजी शब्द दादा-दादी के लिए प्रयुक्त होता है। गाय के लिए गाय शब्द हिन्दी वाला ही है। तमिल में सूर्येण-चन्द्रेण शब्द ही है सूर्य और चंद्रमा के लिए, कुटुम्बम् (संस्कृत शब्द) परिवार के लिए प्रयोग किया जाता है। 

ओह, बातों ही बातों में जाने कितनी बातें हो गई। पर नारियल पानी और फूलों के गजरे के बिना दक्षिण भारत की चर्चा अधूरी प्रतीत होगी। 

रागिनी और करुणा जैसे लोगों के लिए बाज़ार निकलने का मतलब नारियल पानी पीने का सुअवसर है। पर जो वहाँ के निवासी हैं उनके लिए तो खाते-पीते, सोते-जागते, दैनिक दिनचर्या का एक अभिन्न अंग बन कर प्रमुख साधन है। 

अब तक एक छोटा नारियल करुणा को दिया जाता था। जिसे पीकर संतुष्ट बच्ची बहुत आनंदित अनुभव करती। एक दिन एक बहुत बड़ा नारियल पानीवाला चुन कर राजीव ने रागिनी को देना चाहा पर करुणा ज़िद पर अड़ गई, “मुझे दो . . . पापा मुझे दो।” फिर क्या उसे दे दिया गया। सभी उसी को बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे। माता-पिता को देख कर इतनी छोटी बच्ची कितना पी सकती है? आधा पानी पीने के साथ ही उसने अति संतुष्ट हो कर अस्वीकार कर दिया। झट से जींस-पैंट खोलने के लिए छटपटाने लगी। जब तक पैंट का बेल्ट खोला जा रहा था तब-तक पैंट गीली हो गई। उदास हो कर उसने मुँह लटका दिया, “माँ मेरी पैंट गीली हो गई। कैसे अब घर जाऊँगी?” रागिनी को उसका व्यवहार देखकर तो बहुत हँसी आ रही थी। पर बेटी की जागरूक संवेदनशीलता देखकर आत्म नियंत्रण किया। 

जब भी गजरे का फूल कहीं से भी मिलता या ख़रीदा जाता तो बेटी हिस्सेदारी क़ायम रखती। पहले मुझे लगा दो ना, माँ! . . . दो गजरे आते। या एक रहने पर दो टुकड़े कर बँटवारा कर दिया जाता। 

जन्मजात प्राप्त काले घने बाल अब तो और भी लम्बे हो गए थे। जिन्हें सँभालने में अलग परेशानी होती। बाल धोने पर वहाँ के मौसम की नमी के कारण सर्दी-खाँसी की समस्याएँ उभर जातीं। सभी बच्चों की तरह, लम्बे और घने बाल झड़वाने की एक ही शर्त . . . “कहीं घूमने चलना है ना?” 

उस दूर्गा-पूजा में एक और घटना का ज़िक्र करना प्रासंगिक होगा। 

करुणा के प्रति कोई समस्या ना हो जाए इसलिए बहुत सहज और सजग रूप में समयानुसार सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करती हुई राजीव से आज्ञा लेकर रागिनी, बिना उपवास किए मात्र दुर्गा-सप्तसती का पाठ कर रही थी। जिसमें ढ़ाई-तीन घंटे लग ही जाते। 

उस दिन सारे घरेलू कामों को निपटाने के बाद सात-साढ़े सात बजे तक रागिनी अपने पूजा पर बैठ गई थी। उस दिन किसी कारणवश करुणा अभी तक सोई हुई थी और दस बजे से पहले उठने की कोई सम्भावना भी नहीं थी। नौ-साढ़े नौ तक में राजीव आ ही जाएँगे। 

पूजा के दरम्यान बिल्लियों के नवजात शिशुओं की तीव्रतम आवाज़ बड़ी नज़दीकी से रह-रह कर आ रही थी। वैसे बिल्लियों के ढेरों नवजात बच्चे इधर-उधर में थे। कई दिनों से जिनकी उपस्थिति दर्ज हो चुकी थी। छत पर, बाग़-बग़ीचे चारों तरफ़ में वह आवाज़ शोभायमान थी। 

अब जब तक पाठ सम्पूर्णता प्राप्त न कर ले वह उठती कैसे? बेटी कमरे में गहरी नींद सोई हुई थी। पूजा के कमरे तक जिसकी तेज़ साँसों का आवाज़ रागिनी को आश्वस्त कर रही थी। अन्य दिनों की तुलना में, उस दिन राजीव को आने में देर हुई थी। 

वह आकर बहुत ही सजगता और सावधानी से रागिनी के निर्देशानुसार बिना किसी हस्तक्षेप के ड्यूटी का सारा सामान जगह पर व्यवस्थित रखकर, हाथ मुँह धोकर अंदर कमरे में गया। अंदर खिड़की पास लगे बिछावन पर बेटी अभी तक सो रही थी। मच्छरदानी में घुसकर, उसके सिरहाने माँ बिल्ली अपने नवजात बच्चों को लिए नरम मुलायम तकिया पर आराम कर रही थी। 

राजीव को देखकर भयभीत माँ, अपने नवजात शावकों को छोड़कर, खिड़की से होती हुई बाहर भाग खड़ी हुई। राजीव ने नवजात शावकों की आवाज़ सुनी तो मच्छरदानी हटा कर देखा कि करुणा के सिरहाने में कोमल गद्दीदार तकिए पर बिना आँख खुले बच्चे एक दूसरे में सिकुड़े-सिमटे हुए “म्याँऊ . . . म्याँऊ” का शोर मचाए हुए थे। 

बड़े यत्न से एक बड़े-से कार्टन पर उन बच्चों को उठा कर राजीव बाहर बाग़ीचे में ले जाकर किसी सुरक्षित स्थान पर रख आया। वह माँ बिल्ली जहाँ पर अपने शावकों को छोड़कर गई थी बार-बार वहीं पर आकर ढूँढ़ रही थी। इस कारण वह बाग़ीचे में रखे हुए अपने बच्चों को अनदेखा कर उसी कमरे में अवलोकन-निरीक्षण करती हुई “म्याँऊ-म्याँऊ“ करती हुई तलाशती। वहाँ से बाहर भगाए जाने पर भी उसका सम्पूर्ण केंद्र-बिंदु बिछावन का सिरहाना रहा। इस चक्कर में पड़कर वह घंटों अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाई। 

पूजा समाप्त करने के बाद रागिनी सारी स्थिति परिस्थितियों से अवगत होकर एक माँ रूप में बहुत द्रवित और चिंतित हुई कि “कहीं ऐसे में उन शावकों की शारीरिक और जीवनी प्राण शक्ति का नुक़सान ना हो जाए?” 

“हे भगवान! वह बिल्ली अपने नवजात शिशुओं की उपेक्षा कर बार-बार उस कमरे में ही क्यों जा रही है? ये आपने क्या कर दिया, राजीव? आदमी के छूने पर पशु-पक्षी अपने नवजात शिशुओं को त्याग देते हैं। कहीं इसने भी तो नहीं?” भावुक सोचकर वह सिहर उठी। 

“तुम चिन्ता ना करो। कुछ देर में, वह अपने बच्चों को ढूंँढकर उनके पास पहुंँच जाएगी,” आश्वासन देकर, रात ड्यूटी की तैयारी में जाकर राजीव सो गया। पर रागिनी, पछताती हुई आत्म-ग्लानि में भरी हुई, “हे ईश्वर! अब मैं क्या करूँ?” पूरे दिन वह इसी सोच में परेशान रही। 

तब तक माँ बिल्ली अलग परेशान। बच्चे अलग परेशान। उन बिल्लियों को देख कर रागिनी भी अलग परेशान। उसकी परेशानी, उसके हाव-भाव और व्यवहार में दोषी-अपराध भाव, साफ-स्पष्ट झलक रहा था। जिसे देख-समझ कर ख़ुद राजीव भी परेशान हो गया। और सुझाव दिया कि जाओ जाकर विंशी की पत्नी, उन अक्का (दीदी) को बुला लाओ।

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