रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 21साल 2005 जून में शादी हुई और दो साल बाद दुर्गापूजा की दशमी को उन महादेवी का पदार्पण हुआ। पर इस बीच उसके आवे, ना आने के दरम्यान जो भी हुआ एक अलग कहानी है।
बार-बार जब भी पति लाने के लिए जाता तो कोई ना कोई बहाना बनाकर उसे ख़ाली हाथ भेज दिया जाता। जिस अतृप्त वासना की पूर्ति के लिए विवाह नाम की सामाजिक-पारिवारिक परम्परा का निर्वाह किया गया था; वह एकतरफ़ा आग में जलते पुरुष की अधूरी प्यास मात्र सिद्ध हुई थी।
पति रूप में राघव ने जाने कितने अरमान और सपने पाले थे। जब विवाह होने वाला था तब वह बहुत भावुक और ख़ुशी व्यक्त करते हुए रागिनी से कहता था, “जानती है भाभी! मेरी दुकान पर जब भी कोई नवविवाहित जोड़ा आता है, तो अपने आप में वो लोग! शानदार चक्रवर्ती सम्राट जैसा दिखावा करते हैं। मैं भी सोचता हूँ; ऐसा ही करूँगा। ऊँची सैंडल, आँख में गोगल चश्मा पहना कर; मैं भी अपनी नई दुलहन को लेकर बाज़ार जाऊँगा। फ़िल्म दिखाऊँगा। होटेल्स और रेस्टोरेंट में खाना खिलाऊँगा। ज़िन्दगी के वो सारे मज़े, जो फ़िल्मों में दिखाए जाते हैं उसके साथ करूँगा। मुझे तो रानी का राजा वाली भावनात्मक लगाव वाला अनुभव होता है। मैं तो बहुत-बहुत प्रेम करूँगा उसे; जैसे भैया आपको करते हैं।”
“कौन बोला आपके भैया मुझे बहुत प्रेम करते हैं? मुझे तो नहीं लगता।” मुस्कुराते हुए झूठमूठ रागिनी के कहने पर . . .
“आप दोनों साथ रहते हैं। साथ खाते हैं। साथ सोते हैं . . .”
“बस-बस अब चुप्प शैतान! इसके आगे अब एक भी शब्द नहीं,” बीच में ही रोकते हुए रागिनी बोली। तब जाकर वह शान्त हुआ।
राघव को रागिनी के साथ घुल-मिल कर बात करते देख कर जेठानी जल-भुन जाती और व्यंग्य करतीं, “इसकी संगति में तो गूँगा भी बोलना और मज़ाक करना सीख गया।” नहीं तो एक शब्द भी ज़ुबान से नहीं निकलता था।
राघव की आतुरता से अनजान पत्नी को उन सपनों और आकांक्षाओं से क्या? वह तो अपने मौसी घर के लोगों के बातों और बहकावे में आकर राघव के प्रेम से अछूती रह कर उसे जानबूझ कर या अनजाने में सताती। वह जब नहीं आती तो तनाव, हताशा और निराशा की स्थिति में ठुकराए प्रेम में भूखा पति अपनी कामनाओं की पूर्ति शीत निष्क्रिय रूप में सपनों और कल्पनाओं की दुनिया में करता। आख़िरकार बात क्या है? घर-परिवार वालों के समझ से बाहर की बात थी।
राघव के शीत निष्क्रियता का प्रभाव राजीव और रागिनी वैवाहिक संबंधों को भी कटुता में डाल रहा था। सासु माँ के व्यंग्यात्मक बातों से प्रतीत होता था कि जैसे किसी की नई नवेली दुलहन नहीं आ रही तो दूसरे जोड़े पूर्णतया समर्पित होकर भी दूर-दूर रहो। एक के नासमझी की सज़ा तुम दोनों भी भुगतो।
इतना तय था कि राघव के मानसिक विचलन से भरपूर आर्थिक-सामाजिक और पारिवारिक नुक़्सान हो रहा था। उस नुक़्सान के कारण घर का मुख्य सदस्य पिता ने पहले समझाने का प्रयास किया पर उसे समझाने-बुझाने के सारे प्रयास जब निरर्थक गये तो ऐसे में असंतुष्ट, क्षुब्ध और दुःखी पिता अक़्सर जवान विवाहित बेटे को मार-पीट बैठते। जिससे घर में विचित्र परिस्थिति हो जाती थी; जिसके कारण दूर या पास के प्रत्येक सदस्य जो आत्मीय रूप से जुड़े हुए थे; कहीं न कहीं परेशान हो रहे थे। रसोई का पका हुआ भोजन भी इंतज़ार करता रहता जाने कब खाँएगे, खाने वाले?
ये रागिनी का गर्भावस्था और बच्चे के जन्म के एक साल बाद तक वाला समय था। बच्चे के लिए किसी भी स्त्री के लिए पूरी तरह मानसिक शान्ति की आवश्यकता रहती है। इसके विपरीत ज़िम्मेदारियों और आवश्यकताओं के संघर्षरत अवस्था में देवरानी की मूर्खता की क़ीमत, जेठानी, सास, ससुर रूप में प्रत्येक रिश्तों को भुगतना पड़ रहा था।
बहू रूप में स्त्री जहाँ-तहाँ तो लेट कर आराम कर नहीं सकती, या सो नहीं सकती। तो अपनी निर्धारित सीमा अपने कमरे को अनुभव करती हुई; कमरे में ही रहती। बग़ल वाला कमरा जेठानी का था। कुँआरे, अकेले रूप में लड़का कहीं भी रहे पर विवाहित रूप में आदतन उसकी सीमा रेखा अपने कमरे और पत्नी तक, हो ही जाती है।
बरामदे में देवर और ससुर की मौजूदगी स्वतंत्र रूप में रहती। उस एक रागिनी के कमरे को छोड़कर बाक़ी सभी को जगह की आज़ादी थी; पर सासु माँ को तो इस रिश्ते पर हावी होने का कोई ना कोई बहाना चाहिए। जो कि इस रूप में मिल रहा था।
राजीव की अनुपस्थिति में भी, रागिनी कभी भी इधर-उधर बैठकर बहसबाज़ी से अच्छा अपने कमरे में व्यस्त आज़ादी अनुभव करती। तो सास की प्रतिक्रिया होती, जब देखो तब कोहबर (दुल्हा-दुलहन के लिए बनाया गया एकांत स्थान) में घुस जाती है।
पढ़ने-लिखने के लिए बहुत शान्त-स्तब्धता में रहती तो बड़बड़ाहट सुनाई देती सास की, “गई होगी दादी बनकर घर-घर घूमने। इसे भी मुहल्ले की हवा लग गई है।” जो बातें रागिनी के स्वभाव के विपरीत होतीं; उसकी काल्पनिक सम्भावना भी रच कर भुनभुनाती हुई सुनाई देती।
दैनिक दिनचर्या चलती रहती; जिसके बीच-बीच में स्पीड ब्रेकर बन कर सासु माँ एक झटका गाहे-बगाहे देती रहती। ज़िन्दगी की भयंकर उथल-पुथल के बीच में इस तरह का टोक-टाक बर्दाश्त के बाहर होने लगता। पर तत्क्षण अन्य कोई विकल्प भी नहीं था।
राघव की शिथिलता सभी को उद्वेलित करती। पिता अनियंत्रित होकर मारने-पीटने दौड़ते। माँ बचाने दौड़ती। रागिनी और जेठानी दौड़ती। बीच-बचाव के क्रम में माँ-बेटा दोनों घायल होते। ये स्थिति देवरानी के ना आने तक जारी रही।
रानी के लिए, सास साड़ी-कपड़े, कुछ रीति-रिवाज़ों के पालन; कुछ प्रलोभन देकर बुलाने की मनसा लिए भेजती। इस लेन-देन में भी रागिनी को नीचा दिखाने का कोई प्रयास नहीं छोड़ती। दो-चार दिन ससुराल रहकर राघव वापस आ जाता। कुछ दिनों बाद उसकी फिर वही स्थिति!
जब वही नहीं आ रही; तो मैं किसके लिए कमाऊँ? सोच हावी करते; वह पिता के सारे अपमान सहन कर भी पड़ा रहता। एक बार तो क्रोधित पिता ने बिछावन पर से घसीट कर उतार दिया और वो ज़मीन पर दिन भर लेटा रहा।
शाम के समय कहीं से साँप आया और राघव के बग़ल से गुज़रा। साँप को देखकर, तत्क्षण सक्रीयता में उसने पीछा करते हुए ढूँढ़ कर मार डाला और सब कुछ निपटाने के बाद, फिर वह वापस आकर लेट गया।
घरेलू वातावरण के अस्त-व्यस्तता का परिणाम, गला-घोंटू बाज़ारी प्रतियोगिता में असफलताओं भरी हुई; कम कमाई घर के लिए नुक़्सानदायक और प्रतिस्पर्धियों के लिए सुनहरा अवसर बन गया था। सप्ताह में तीन से चार दिन दुकान बंद रहने लगी।
दिन भर और कुछ काम न रहे तो पिता चौबीसों घण्टे नशे में रहने लगे। नशे की अवस्था में राघव को झकझोरते। घर का तनाव अब सामाजिक मनोरंजन का विषय बन कर रह गया था। अड़ोस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदार, सभी जान-समझ चुके थें कि पत्नी के लिए वह ऐसा सब कर रहा है।
लगभग दो साल का समय, कम समय नहीं होता है। इन नाटकीय परिस्थितियों से सभी छुटकारा चाहते थे; जो रानी के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय, कुछ भी नहीं कर सकता था।
पर रानी तो कोई दुकान की मिठाई-खिलौना तो नहीं थी जो ज़बरदस्ती उसके घर से उठाकर खाने-खेलने के लिए राघव की गोद में डाल दी जाए। क्योंकि रिश्तों की सामाजिक सहमति होने के बावजूद व्यक्तिगत सहमति सबसे महत्त्वपूर्ण बात होती है।
फोन पर फोन किया जाता तो और भी वह पक्ष गौरवान्वित महसूस करके अहसान जताने जैसा भाव उछालते। जिसे देख-समझकर भी पूरे परिवार के लिए बर्दाश्त करने की विवशता थी।
रागिनी के बार-बार मना करने के बावजूद भी राघव को समझाने के लिए, माता के द्वारा घोर आग्रह कर-कर के छोटा-बड़ा-समवयस प्रत्येक उम्र और अवस्था का जाने कितनी बार कौन-कौन रिश्तेदार बुलाया गया-मामा, चाचा, दादा, फूफा, मौसा, भैया, बहनोई, मित्र सभी आए। जिसकी आवश्यकता थी उसको छोड़ कर सभी आए। राघव के तन-मन की गर्मी जस की तस रही।
गोपियों पर उद्धव जी के ब्रह्मज्ञान की तरह सभी महापुरुषों का उम्र और अनुभव वाला ब्रह्मज्ञान, धरा का धरा रहा। उनको बुलाने, खिलाने-पिलाने और फिर वापसी के टिकट के साथ जेबख़र्च देने में एक अलग नाटक हो रहा था।
जिससे स्वयं जन्मदात्री भी खीझ कर झल्ला उठती। पर कुछ क्षण बाद पुनः मातृत्व हावी हो जाता। पिता द्वारा अपने बेटे को कुत्ते की तरह नोंचते-झकझोरते हुए देखकर, “हाय-हाय मार डाला मेरे बेटे को!”कहती हुई हर बार अपने घेरे डाल कर बाँहों में छिपा लेती।
कोई उपाय ना देखकर पिता अपने पुरुषत्व के अहंकार भाव में; कुछ नशे में; अपनी पत्नी को मुँह-नाक जहाँ भी मौक़ा मिलता, हाथ-पैर मार कर, भड़ास निकालने का सफल-असफल प्रयास करते।
जिसके कारण लाज-हया, रिश्तों की मर्यादा भूलकर, ससुर जी के हाथों का डंडा या कोई भी साधन छीनने के लिए हाथ पकड़ना पड़ता। रोकना, बीच-बचाव करना पड़ता।
मार खाने के बावजूद बेटा तो अपनी माँ-भाभियों के भरोसे बहुत हद तक सुरक्षित रहता। पर चोट तो चोट होती है। बेटे के हिस्से की दर्द और चोट अनुभव करतीं; सेवा करतीं, दवा लगातीं, दर्द निवारक दवा खिलाती माँ, घंटों रुदन-विलाप करती, कलपती; गृहस्वामी को श्रापती, “बाप नहीं कंस है कंस! रावण है मेरे फूटे नसीब का! ऐसे मारा जाता है? वह चुपचाप मार खा लेता है इसलिए तो मार लेते हैं। कल को उसकी पत्नी आएगी; देखकर बर्दाश्त करेगी? बिलकुल नहीं! हाथ टूट जाएगा! पैर टूट जाएगा! तब मेरा यही बेटा काम आएगा, समझे! इस आदमी के साथ आज तक एक भी दिन सुख-चैन नसीब नहीं हुआ। सिर्फ़ बच्चों का मुँह देखकर, ही तो आज तक ज़िन्दा हूँ। वरना मैं तो कब की मर चुकी होती। ये तो राघव है जो बर्दाश्त कर जाता है। राजीव होता तो एक बात नहीं सहन करता। अपने बड़े बेटे को मार कर देखना ज़रा! एक ही बार में जान ले लेगा।”
हर बार लगभग वही एक-सी परिस्थितियाँ और बातें दुहराई जातीं।
जब किसी की बात का कोई फ़ायदा नहीं लगा तो स्थानीय अस्पताल के चक्कर लगाते, अँग्रेज़ी, होम्योपैथिक उपचार, झाड़-फूँक, दुआ-प्रार्थना सब करके; पराजित माँ ने, अंततः दिमाग़ी डॉक्टर को दिखाने के लिए राजीव को गुहार की।
उसके इस तरह के रवैए पर मानसिक रूप में कोई समस्या तो नहीं? सोच-विचार कर ट्रेनिंग में गए; राजीव पर दबाव बनाया गया कि शीघ्र-अतिशीघ्र आकर राघव को मानसिक डॉक्टर से दिखला दे ज़रा।
हर बार एक ही बात, एक ही समस्या सबके लिए खीझ का विषय बन गया था। अन्ततः परेशान राजीव असमय आने को तैयार हुआ। दुःख-परेशानी से अन्य लोगों के साथ रागिनी भी परेशान थी। रागिनी की मानसिक हालत पर गोद में दूध पीने वाली करुणा, पर भी असर होना स्वाभाविक था।
लगभग छह महीने की लम्बी अवधि के बाद एक दिन किसी दोपहर, बिना किसी को बताए अकस्मात् राजीव आ पहुँचता है। अभी आँगन में अपना सामान रखा भी नहीं था कि उसके पैरों में गिरकर उसका पिता भरपूर आँसू लिए शिकायत कर रहा है, रागिनी की।
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