रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 22जाने कितनी सपनों की उड़ान उड़ता; पहली बार आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भरता की पहचान लिए; ऐसे ही किसी व्यस्त दोपहर में राजीव ने, अपने घर-परिवार वालों को अचंभित करने के लिए, अकस्मात् अपने घर में क़दम रखा ही था, तभी आँगन में बैठे पिता दौड़ते हुए उसके पैरों को घेरते हुए नशे की हालत में रोते हुए रागिनी की शिकायत कर रहे हैं।
ये राजीव के लिए कितनी अप्रत्याशित स्थिति रही होगी? . . . इस कल्पना से परे . . . बिना सोचे-समझे . . . जो भी मन में आया . . . नाटकीय अश्रुपूरित नेत्रों संग . . . नशे में अनवरत बोलते चले गए।
“तुम्हारा पत्नी! . . . तुम्हारा पत्नी! . . . ये जो है ना! . . . तुम्हारे नहीं रहने पर मुझे मारी है। तुम्हारे बाप . . .! जो तुम्हारा जन्म देकर . . . पालन-पोषण किया . . . महान बनाया। तुम्हारे महान बाप को मारा है।”
और भी बहुत से प्रलापों को सुनकर . . . वो भी उन्हें समझाते हुए . . . ढ़ाढस-सांत्वना देने लगा।
उन बातों के यथार्थ से कितना परिचित-अपरिचित रहा? . . . अपने प्रेम और रागिनी पर भरोसा करके . . . ये तो उसका हृदय जाने! . . . पर एक चुभन तो कील बनकर हृदय में अंकित रह गई।
अपने पिता के कथन का शाश्वत-सत्य रूप में! . . . आख़िरकार पिता से रक्त-संबंध जो होता है . . . और बेटे श्रवण कुमार के हृदय में वर्षों तक एक चुभन बन कर रहा।
उस समय माँ की गवाही और रागिनी के पक्ष को सुनकर . . . कठोरता की मुद्रा तो दब गई पर एक बीज पिता बो पाने में सफल रहे थे।
बड़ी बहू की शिकायत तो कर नहीं सकते थे! . . . क्योंकि वह सारी सीमाएँ और मर्यादा भूलकर नंगा नाचने लगती . . . जो कई बार हो चुका था . . . पर रागिनी आत्म नियंत्रित रहने वाली थी।
माँ भी बेटे की आवाज़ सुनकर दौड़ी चली आई। वो थके-हारे बेटे से बहू की शिकायत सुनकर . . . पति को डाँटते हुए, “छह महीने बाद बेटा, पहली बार उतना दूर से आया है। उसका कुशल-क्षेम पूछने के बदले नशे में अपनी राम कहानी लेकर बैठ गये। अपनी करतूतों को बताओ ना! . . . तब तो मानूँगी . . . चल बेटा! . . . हाथ-मुँह धोकर खाना खा ले,” पिता पास से ज़बरदस्ती हाथ पकड़ कर उठाती हुई बोली।
रागिनी उस समय रसोई में थी और अपने काम में व्यस्त रहने की विवशता में एक-एक बात सुन रही थी। सबसे बड़ी बात ख़ुद पर भरोसा रखते हुए कि सच्चाई क्या और कितना है? राजीव को स्पष्ट कर देगी।
सास की आज्ञानुसार, राजीव के नहा-धो कर तैयार बैठने पर भोजन लेकर आई। थाली सामने रखते हुए एक नज़र धड़कते हृदय राजीव की ओर देखा।
राजीव भी, रागिनी की ओर देख रहा था . . . पर उसकी आँखों में पिता के आँसू और कठोर शिकायतों वाले प्रश्न भाव छिपे हुए थे।
वह चुपचाप भोजन पानी की व्यवस्था करके अपने कमरे में चली गई क्योंकि वहाँ पर सभी मौजूद थे। माता-पिता, और भी घर के प्रत्येक सदस्यों की उपस्थिति में वहाँ बैठकर क्या करेगी? फिर नन्ही करुणा को भी देखना था, कि वह सोई है या जगी है? कहीं मल-मूत्र से गीली तो नहीं हुई?
वह अपने कमरे में आकर राजीव की प्रतीक्षा करने लगी। बाहर बातों के सिलसिले चल रहे थे। एक बात ख़त्म होते ही दूसरी शुरू।
आख़िरकार छह महीने की लम्बी अवधि, इतनी छोटी भी नहीं होती है जो दो-चार घंटे में समाप्त हो जाए। सबकी अपनी-अपनी जगह कुछ न कुछ बातें थी जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी।
कुशल-क्षेम पूछने के बाद . . . बातों के साथ रुँधे गले माँ लगी हुई थी, “अरे बेटा जब से तू इस घर से निकला है मेरे घर का सुख-चैन सब नष्ट हो गया है . . . हम सब का सुख-चैन छीन गया है . . . हमारी मति मारी गई थी जो उस लड़की से ब्याह किए . . . ना वो आ रही . . . ना मेरा ग्रह उतर रहा . . . दिन भर उसके लिए ये बिछावन पकड़े रहता है . . . काम धंधा चौपट पड़ा है। तुम्हारे पिता दिन भर नशे में रहते हैं . . . बाघ जैसा झपट्टा मारने के लिए मौक़ा तलाशते रहते हैं . . . इसके चक्कर में . . . मैं मार खा रही . . . देखो कहाँ-कहाँ चोट नहीं आई है मुझे और इसे भी!” . . . राघव की चोट को दिखाते हुए बोली।
हाथों से संकेत करते हुए कहा, “इतना मोटा डंडा लेकर मारने पर उतारू थे तेरे पिता! . . . वो तो बीच-बचाव में रागिनी और बड़ी बहू ने आकर . . . उनके हाथों का डंडा छीन कर फेंका। तब जाकर बचे, हम माँ-बेटे! . . . नशे में एक दम जानवर हो गया है ये आदमी! . . . बेटी-बहू की सीमा तक भूल गया है . . . कब, क्या और किसे कह रहा का होश कहाँ है इन्हें? रोज़-रोज़ का एक ही नाटक! . . . मन ऊब गया है . . . जी करता है घर छोड़कर कहीं चली जाऊँ . . . तब जाकर चैन मिले . . . पर बाल-गोपाल तुम बच्चों के लिए, मोह भी त्याग नहीं पा रही . . . सोची थी! . . . राघव का घर बस जाए तो चैन से मर सकूँ . . . पर वो औरत जाने किसी और से फँसी है या क्या? . . .
“जो जितना था उस हिसाब से ले देकर सामाजिकता का निर्वाह करते हुए सब किया गया . . . पर फ़ायदा क्या? . . . वो तो आने का नाम नहीं ले रही . . . ये उसके बिना कमाएगा नहीं . . . इतना समझा-समझा कर हार गए हैं . . . कौन-कौन नहीं आया समझाने के लिए पर इसके दिमाग़ में जाने क्या घुस गया है? . . . जो निकल नहीं रहा . . . और भी बहुत कुछ अर्थ-व्यर्थ चलता रहता है,” . . . पर तभी ध्यान आया कि बेटा तो खाना खा चुका है।
“ठीक है बेटा जाकर आराम कर; इतनी दूर से आए हो थक गए होगे।”
तब कुछ देर बाद वहाँ से उठकर हाथ-मुँह धोकर, अंदर कमरे में प्रवेश किया। बेटी करुणा को गोद में लेकर, एक दृष्टि में रागिनी के दुबली-पतली काया देखकर; “लगता है माँ-बेटी खाना ठीक से नहीं खा रही थी क्या?”
भावुक रागिनी गले लग गई। ज्यों गले लग कर अपनी बेगुनाही साबित कर पिघले लोहे को ठंडा करने का प्रयास कर रही हो।
“मैं आ गया हूँ ना! . . . सब ठीक कर दूँगा। . . . फ़िक्र की कोई बात नहीं। माँ से तो पता चला . . . पर बाबू जी से क्या ज़रूरत थी तुम्हें उलझने की?”
“तो क्या आपकी माँ को मारने-पीटने देती उन्हें? . . . आप अच्छी तरह जानते हैं! . . . ना मार खाऊँगी ना किसी भी औरत को मारने दूँगी . . . बीच-बचाव करने में . . . डंडा लेकर उनको दूर कर दिया! . . . मात्र यही ग़लती है मेरी!
“ग़ुस्से में आपके पिता बहुत कुछ अपशब्द बोले भी हैं मुझे! . . . फोन पर क्या मैंने आपसे कोई शिकायत की?”
विचार करती हुई मौन हो गई; ‘पारंपरिक, अशिक्षित, नशे में धुत्त, एक अहंकारी पुरुष! जो उसके पति का पिता भी है। जिनका उसका पति बहुत सम्मान करता है। भगवान मानता है बेटे के रूप में; कहीं पति रूप में पिता के पद-चिन्हों पर ना चलने लगे! पर एक शिक्षित स्वाभिमानी स्त्री रूप में उस महानता को अस्वीकार करती हूँ। जो अपनी पत्नी का सम्मान नहीं कर सकता! जो दुनिया के लिए विनम्रता की प्रतिमूर्ति होने का दिखावा करता है। पर अपनी जीवन संगिनी के लिए हमेशा नकारात्मक रहने वाले के लिए मुझे क्या?
‘पर घर में इस प्रकार का माहौल एक चेतावनी भी तो है . . . हम-दोनों के संबंधों के लिए . . . तेरा भविष्य मुश्किल है रागिनी! . . . सँभल जा।’
अन्ततः एक दृढ़ निश्चय ठान लिया। उसके बाद से वह ससुर के लिए मात्र औपचारिकतावश भोजन-पानी देने तक सीमित हो कर रह गई। बेटी करुणा के लिए वह आते तो बग़ल होकर हट जाती।
दादा रूप में एक विचित्र आदत थी कि सोते बच्चे को उठा ले जाते पर जैसे ही बच्चा कच्ची नींद से उठ कर कुनमुनाने लगता या अंशमात्र भी रोना शुरू किया तो बच्चे को झट से माँ पास सुपुर्द कर जाते। (लो पकड़ो-पकड़ो कहकर)
छुट्टी लेकर राजीव सीमित समय के लिए आया है। उसी में माँ की लम्बी सूची तैयार है। बहन से मिलने जाओ! . . . आशा लगाए हुए है . . . दादी घर! . . . नानी घर और भी जाने कहाँ-कहाँ?
ये वही सासु माँ है जो रागिनी के परिवार वालों के नाम सुनकर एक टिप्पणी करने से कभी नहीं चूकती, “इतना लम्बा रिश्ता कौन निभाता है?” जबकि रिश्ते निभाने की उनकी बड़ी और छोटी बहू के लिए सारी आज़ादी है। पर रागिनी जब तक सुन रही है; मुफ़्त का टोक-टाक करके प्रभुत्व जताने से बाज़ नहीं आना है।
एक सप्ताह में डॉक्टर के पास से राघव को दिखाने से लेकर . . . रिश्तेदारी में चारों चौहद्दी पूरा कराकर . . . अपने नौकरी वाले बेटे का प्रर्दशन करा कर अपने अभिमान की पूर्ति करा ली . . . और जाने का भी समय आ गया।
रागिनी से मज़ाक के रिश्ते की एक दो औरतों ने पूछा था, “इतने दिनों बाद राजीव आया है माँ-बेटी के लिए क्या लाया है?”
रागिनी सहज-स्वीकार्य होकर कह देती, “कुछ भी नहीं . . . इतना समय उनको कहाँ मिला? . . . अचानक हड़बड़ाहट में वो तो आएँ हैं।”
मुहल्ले की औरतें पूछ रही हैं, “बेटा क्या लाया है? बेटा तुम्हारे लिए, क्या लाया है?” सासु माँ, रागिनी के पास आकर अभिव्यक्त किया।
तो रागिनी ने पूछा, “आपने क्या कहा?”
“मैं क्या कहती; बेटा क्या लाया है? . . . ये तो बहू ही जानेगी।”
सासु माँ की ये बात सुनकर रागिनी के दिमाग़ में आया, ‘ये बात तो मैं भी नहीं सोची थी कि क्या लाएगा मेरे लिए मेरा पति? पर अपनी नन्ही सी बेटी के लिए जो आदमी, एक झुनझुना तक ना लाया हो उससे और क्या शिकायत की जाए? . . . बचपन से जो संस्कार माता-पिता बच्चों को सिखाते हैं। बच्चे बड़े होकर वही तो दुहराते हैं। इसमें मेरा क्या क़ुसूर? आने दो पूछती हूँ। सासु माँ का संदेश उन तक पहुँचा कर विचार जानती हूँ।’
अपने आठ हज़ार के वेतन में से भाई, नौकरी लगने पर श्वेता के सड़े दाँत का इलाज के नाम पर दो हज़ार रुपए देकर आया था। रागिनी से अपनी माँ का विचार सुन कर राजीव बोला, “अपने सीमित बचत से कोई सामान ख़रीद कर लाने से अच्छा मुझे लगा कि माँ-बाबू जी को पैसे ही दे दूँगा; ताकि वो बेहतर उपयोग कर सकें।
“अभी जब से आया हूँ, बचत के रुपए ख़र्च कर रहा हूँ। इलाज से लेकर प्रत्येक ख़र्च यहाँ से वहाँ, कहीं भी जाकर जो ख़र्च हो रहा है किसने दिया? पर मेरी बचत के पैसों की भी आख़िरकार एक सीमा है रागिनी!
“अनजान जगह पर रहता हूँ तो अपने पास भी कुछ रुपए रखना ही चाहिए। वहाँ कौन देगा मुझे? मेरी अपनी भी कुछ ज़रूरतें हैं।
“अभी जहाँ भी गया भाड़े से लेकर मिठाइयाँ, फिर आते समय सभी के हाथ में व्यक्तिगत रूप में सौ-पचास, दो सौ, चार सौ देता आया हूँ।
“अभी जाने के पहले तुम्हें भी देना है कुछ रुपए माँ-बाबू जी को भी। अन्य ख़र्चों के अतिरिक्त श्वेता ने वादा लिया था अपना दाँत बनवाने के लिए . . . उसे भी दो हज़ार देकर आया हूँ।”
इस वादे पर भी एक नज़र डालना मज़ेदार होगा। तीन बेटों में अकेली बेटी थी; और सबसे छोटी! तो आदतन घर में सबसे छोटे को मान-आदर मिलता ही है। इतना प्यार था कि मिठाइयाँ खाकर बिना मुँह साफ़ किए ही सो जाती।
परिणामस्वरूप दाँत गये . . . विवाहोपरांत नई नवेली दुलहन के सड़े दाँतों में दर्द उठा तो पति ने फ़रमान जारी कर दिया बातों-बातों में हँसते हुए, “देखो भाई, विवाह के बाद की जो भी समस्या होगी, सारी मेरी ज़िम्मेदारी। पर जो भी विवाह के पहले की समस्याओं को लाई हो; ये तुम्हारे मायके की ज़िम्मेदारी समझी जाएगी।”
तो आधा किलो दूध के नाम पर भाभी को नीचा दिखाने वाली ननद रूप में बहन श्वेता ने बाक़ी और कई ज़िम्मेवारियों के अतिरिक्त एक और ज़िम्मेदारी अपने भाई राजीव पर उछाल दी, “ऐ भैया जब तुम्हारी नौकरी लग जाएगी तो मेरा दाँत बनवा देना।”
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