रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 15

नवजात शिशु के जन्म की ख़बर सुनकर बधावा (बच्चा जन्म लेने पर मिलने वाली शुभकामनाएँ) देने के लिए अगले ही दिन किन्नरों का दल सुबह-सुबह आ गया।

उनके ताम-झाम को देखने के लिए अड़ोस-पड़ोस के फ़ुर्सत वालों का जमावड़ा भी फ़सल पर उमड़े टिड्डी दल की भाँति टूट पड़ा। सभी की उत्सुकता इस बात की रहती है कि तमाशा ज़रा देखा जाए। क्या, कितना लेन-देन पर मामला निपटता है? सबकुछ आसानी से सँभलेगा या झमेले के साथ; चलो इसी बहाने, कुछ न कुछ रोचक, मनोरंजन तो होगा। 

आते के साथ सामने बरामदे में, बिछावन पर, मच्छरदानी लगाकर सुलाई गई तीन महीने की श्वेता की बच्ची ‘पलक’ मिली। जो रूप-रंग में माता की परछाईं थी। ऑपरेशन के दवाओं की गर्मी की वजह से उत्पन्न समस्या दस्त के कारण निर्बल शरीर! माता-पिता का आनुवंशिक बनावट जो भी था।

दुबली-पतली होने के कारण तीन महीने या तीन दिन के बच्चे का अंतर आसानी से समझना मुश्किल था। उससे ज़्यादा दोहरा बलिष्ठ तो नवजात शिशु करुणा थी। पलक को गोद में उठा कर आकस्मिकता में नाच-गान प्रारंभ।

बच्ची इस प्रकार के शोरगुल से भयभीत होकर जो रोना प्रारंभ की उस आवाज़ के सामने ढोलक और तालियों का ताल तो पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ . . . सब निरर्थक!

अपनी शक्ति से ज़्यादा, बेतहाशा बच्ची का रुदन-क्रंदन-आलाप अपने सर्वोच्च शिखर पर था। स्थिति को सँभालने के लिए सासु माँ सामने आकर बोली, “बेकार में बच्चे को डरा दी। अब इसको संभालेगा कौन? घर में सौ काम है। ऐसे में सोए बच्चे को जगाकर एक अलग मुसीबत। आपलोग को जो लेना है लीजिए पर कोई जोर-ज़बरदस्ती नहीं कीजिए। मैं सामर्थ्यानुसार दे दूँगी। बस ये शोरगुल बंद कर दीजिए।

सारा काम छोड़कर श्वेता, अपनी बेटी पलक को दूध पिलाकर, चुप कराने के लिए अंदर कमरे में चली गई। (एक तरफ़ से 500 रुपए लाकर सासु माँ देने लगीं; तो रुपए गिनकर अपनी असंतुष्टि जताते हुए) “इतना से क्या होगा? कम से कम 100₹ ही सही, हरेक को मिलना ही चाहिए। 1100 से एक रुपए भी कम नहीं चाहिए हमें! क्या री बहिन? सुनकर सभी किन्नर समवेत स्वर में, “हाँ . . . हाँ!” पूरी तरह कठोरता जताते हुए वो लोग अड़ गए।

अपनी आर्थिक स्थिति और बेटे की बेरोज़गारी में बेटी होने की दुहाई देने पर, “क्या दीदी! भगवान के बरकत से इतनी भरपूर गृहस्थी है तुम्हारी। किस दिन के लिए ये कंजूसी भला? चल दे दे हमें। बेटा-बेटी सब अपने-अपने भाग्य से है। बेटा-बेटी में आज अंतर कैसा? अपने माँ-बाप के बारे में बेटे से ज़्यादा बेटी सोचती है। तुम भी तो किसी की बेटी हो। कुछ हमारे बारे में भी सोचो। कौन है हमारा? जो भी है तुम लोगों के ख़ुशहाली से ही तो है। साड़ी कपड़े, ज़ेवर गहने जो भी देना है बिना किच-किच के दे दो।”

इतना सुनकर सासु माँ बोली, “साड़ी-कपड़े, ज़ेवर-गहना का नाम न लीजिए। बाल-बच्चों की ज़िम्मेदारी में ख़ुद, मेरे लिए दुर्लभ है। सौ बार सोचती हूँ तो तन ढकने के लिए एक बार ख़रीदने की हिम्मत कर पाती हूँ। बातों में बहलाते हुए, देखो लोहे की अँगूठी भी जब नहीं रखीं हूँ अपने लिए तो तुम्हें क्या दूँगी?” कहती हुई रसोई में चाय बनाने के बहाने झट से अपने कानों का छोटा सा फूल उतार कर रख दिए ताकि वो लोग छीना-झपटी में ले ना लें।

चाय पीने के क्रम में एक की नज़र उनके गले में चेन पर नज़र गई। जिसे हड़बड़ाहट में उतारने का ख़्याल ही नहीं आया था। तो झोंक में दबाव बनाते हुए, “मेरी बातों पर भरोसा नहीं तो हाँ, हाँ ले-लो, ले-लो; नक़ली है। लेकर फिर गलियाते रहना . . . बेचने पर कुछ भी नहीं मिलने वाला।”

आत्मविश्वास भरा एक-एक शब्द प्रभावित करने वाला था। वो तो अच्छा था कि पुरुष सदस्यों की अनुपस्थिति ज़्यादा ड्रामेबाजी से बचने में सहायक रहा। जो भी, जितना था सासु माँ के नियंत्रण में था।

ख़ैर यथासंभव मौखिक ड्रामेबाज़ी के साथ एकाध घंटे में ही एक हज़ार रुपए लेकर, थोड़ा किच-किच करते, मोल-तोल करते हुए नौटंकी के साथ चलते बने। उनके जाने के साथ मुफ़्त दर्शकों का समूह भी ढलानों पर बरसाती पानी की तरह चलते बना।

इधर चुपचाप रागिनी और स्तनपान करती उसकी बेटी शान्त-संयमित, प्रसूति कक्ष में से प्रत्येक दृश्य-परिदृश्य श्रवण करती रही। एक आश्चर्यजनक बात यह थी कि बेटी जो आवाज़ के प्रति बहुत संवेदनशीलता प्रदर्शित करती थी वो जाने किस शक्ति के वशीभूत सहज थी।

अनजाने रूप में किन्नरों को लगा ही नहीं कि इस घर में श्वेता की बेटी पलक के अतिरिक्त कोई अन्य शिशु भी है। पोती के नाम पर नातिन को देखकर, खेला कर आशीर्वाद देती हुई वो चली गई थीं।

किन्नरों के चले जाने के बाद जो विजित भाव सासु माँ का रहा वो कोई क़िला फ़तह करने से अंशमात्र भी कम ना था। बार-बार बातों-बातों में क़िस्से कहती कि किस प्रकार उन अकेली ने किन्नरों को सँभाला और झट से उनसे पीछा छुड़ाया। रागिनी को चिढ़ाते हुए हँसी-मज़ाक में कहती, “अच्छा हुआ जो अभी राजीव नहीं आया है। कहीं तुम्हारा हीरो उनके सामने पड़ता तो वो लोग मिलकर उसकी पैंट उतार देतीं। तुम्हें क्या पता उन्हें नियंत्रित करना कितना कठिन है? आसानी से तो बिलकुल पीछा नहीं छोड़तीं। एक दोगी तो पाँच खोजेंगी। इन्हें संतुष्ट करना टेढ़ी खीर है। समझी मैडम?”

पुनः एक झटका नियमित रूप से उनके चेन का पड़ता। “बाल-बाल बचा ये चेन! नहीं तो ये उनके नज़र चढ़ चुका था। गाढ़े ख़ून-पसीने की कमाई का था इसलिए बच गया भगवान,” कहकर दीर्घ उच्छवास भरती।

उनके अपने ही घर में कुछ क्षण पहले तक में क्या घटित हुआ था औरों के मुँह से पता चला। अलग-अलग कहानियों को सुनते हुए किन्नरों के चले जाने के बाद एक-एक करके पुरुष सदस्य जो जहाँ थे; वहाँ से वापस लौटे। मूल क़िस्सा एक था पर . . . कथाकार अनेक!

सासु माँ का अफ़सोसजनक एक झटका ये भी था कि जिस धाय और फूआ श्वेता ने अपना अमूल्य योगदान दिया, उनका क़र्ज़ बाक़ी ही रहा। पर बग़ैर किसी योगदान के हवा के झोंके की तरह आईं और एक बड़ी रक़म लेकर उड़ती-चलती बनीं।
 

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