रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 29

 

चचेरे भाई-बहन की संगति में खेलती, उस एक स्क्रू ग़ायब डंडे को पकड़ कर बैठी बच्ची झूलने के क्रम में धड़ाम . . . ऽऽ

मुँह के बल कभी, इधर से उधर असंतुलित बार-बार गिरती। जबकि बच्ची हर बार उस पर बैठने के लिए आतुर और उत्सुक रहती। पर हर बार संतुलन के अभाव में और चोटिल होती। 

अन्ततः दादी ने नाराज़ होकर उस अशुभ कुर्सी को हटाने का आदेश जारी कर दिया। जिसका पालन करती हुई रागिनी ने छज्जे पर डाल दी। जब भी माँ-बेटी एकांत में रहतीं तो सावधानी से उपयोग होता फिर छिपा दिया जाता। इस तरह बच्ची और कुर्सी दोनों की सुरक्षा सुनिश्चित की गई। 

रक्षाबंधन में बहन श्वेता ने अपने भाइयों के साथ-साथ भतीजे-भतीजियाँ सभी के लिए राखी भेजी। जो रागिनी के संरक्षण में था। उस दिन बड़े तड़के ही बड़े भाई साहब जाने क्या सोच-विचार कर अपनी दुकान पर भाग गए। घर में रागिनी और जेठानी मात्र थीं। सासु माँ अपने मायके या कहीं अति आवश्यक काम से कुछ दिनों के लिए गई हुई थीं। सब काम शान्ति पूर्वक सम्पन्न हो रहा था। तभी गुंजन दीदी आकर बड़ी अचंभित होकर पूछती हैं, “ऐ रागिनी क्या श्वेता अपने सबसे बड़े भैया के लिए राखी नहीं भेजी है?” 

सुनकर थोड़ा विनम्रतापूर्ण पर पूर्ण विश्वास के साथ रागिनी पूछी, “कौन बोला आपको? जो बहन अपनी नवजात दूधमुंँही भतीजी के लिए राखी भेज सकती है। वह अपने बड़े भाई के लिए राखी कैसे नहीं भेजेंगी?” 

“तो फिर तुम दी क्यों नहीं?” 

“सोकर उठने के साथ राखी कौन बाँधता है? चाहे जिस रूप में भी सही, यहीं एक साथ हम दोनों देवरानी-जेठानी घर-परिवार के सारे काम निपटाने में लगी हुई हैं। जिसे कुछ समझ नहीं आएगा तो वह पूछे तो सही। एक बार भी कोई बात ना विचार! मन ही मन अपने आप में इस विषय पर और ऐसे ही गहन संवेदनशील मुद्दा कैसे बन गया भला? बात आप तक पहुँचने से पहले, मुझ तक पहुँचनी चाहिए थी। ये देखिए।”

कहकर अपने कमरे से निकाल कर लाते हुए सभी एक जगह रखी गई राखियों का ढेर उझल दिया। तीन भाइयों की राखियाँ एक जैसी, भतीजे-भतीजियों की रंग-बिरंगी अलग चमकती हुई थीं। 

“नीयत उस बहन की इससे ज़्यादा और क्या चाहिए? भौजाई कुछ भी करे-कहे, वो तो ग़ैर घर की है पर भाई के मन में बहन के प्रति संदेह और अविश्वास पर क्या कहा जाए? राखी तो पूरे दिन में कभी भी बँध जाएगी। पर मुझे लगा एक ही बार में सबका हो जाए तो अच्छा रहेगा।”

रागिनी का बेबाक स्पष्टिकरण देखकर-सुनकर गुंजन दीदी चली गई। तीन बच्चों का पिता, लगभग बत्तीस से पैंतीस वर्षीय भाई दिन भर रूठा रहा। विवाहिता बहन पर या भभू के मालिकाना अधिकार पर, ये तो वही जाने? 

रागिनी के आने से जेठानी में कितना स्त्री जनित ईर्ष्या जागृत हुई थी? ये तो जगज़ाहिर है पर जेठ के दिमाग़ में ज़्यादा खलबली थी। वह रागिनी के भाग्य से ईर्ष्या ज़ाहिर करते हुए कहते, “मुफ़्त में इसे बैठे-बिठाए कमाने वाला पति मिल गया।”

ज्यों रागिनी को उनके हिस्से का सारा सुख मिल गया हो। व्यर्थ की इस भावना का कोई हल हो सकता है भला . . .? घरेलू कामों को निपटाने के बाद यथासंभव व्यवस्था करके रक्षा-बंधन की भरपूर ख़ुशियाँ मनाई गईं। रागिनी और उसकी जेठानी के साथ, बच्चे भी बहुत ख़ुश थे। स्मृति चिह्न रूप में तस्वीरें ली गईं। 

रात्रि में दुकान से बड़े भैया के लौटने पर राखी बाँधने के लिए गुंजन दीदी ज़बरदस्ती बुलाकर लाई गई। जब श्वेता की भेजी राखियाँ बाँधना चाहीं तो उसके लिए धर-पकड़ की आवाज़ के साथ उभरे नाटक का अदृश्य संवाद सुनती रही रागिनी! जिसमें जेठानी अपने रूठे पति को घर-परिवार, सामाजिकता के औपचारिक निर्वाह की भरपूर दुहाई दे रही हैैं। अन्ततः रागिनी अपने कमरे में चली गई। 

नौ से दसवें महीने में चलना सीख कर धीरे-धीरे बच्ची एक साल की हो गई। पहला जन्मदिन मनाने की पूरी व्यवस्था उसके चाचा राघव ने की। फूआ ने जन्मदिन के कपड़े भेजे थे। मुहल्ले के लोगों की भीड़ देख कर चंचलता में इधर-उधर ख़ुश करुणा झूम रही थी। पर जैसे ही बलून फूटा अकस्मात् उस आवाज़ को सुनकर रोने लगी। माँ से जाकर चिपक गई। 

अपने चचेरे भाई-बहन के साथ बढ़ती करुणा बहुत कुछ सीख रही थी। शब्द भंडार में वृद्धि हो रही थी। एक दिन बैठी हुई करुणा अचानक अपने पीछे बनी परछाईं को प्रतिक्रिया करती देखकर घबरा गई। चिल्लाती हुई रोने लगी। माँ ने उसे अपनी परछाईं दिखाकर आश्वस्त किया। उसके बाद माँ-बेटी मिल कर विविध आकृतियाँ दीवार पर बनाने लगी। जो फ़ुर्सत में बहुत सुन्दर खेल था। 

ठंड के दिनों में भी जेठानी के बच्चे कुएँ पास नहाने के लिए सुबह-सुबह शुरू हो जाते। जब मौक़ा मिलता; लो उझल लो पानी। पूरे दिन में चाहे कभी भी, कैसा भी, काम के लिए पानी निकाला गया, बच्चे पलक झपकते बर्बाद कर बहाने से नहीं चूकते। 

उम्र के इस पड़ाव में अपने हिसाब से अब तक करुणा तो शाम को आठ-नौ बजे तक सो जाती। रात्रि के दो-तीन बजे उठ कर खेलती। मालिश होने के बाद दूध पीकर फिर सो जाती। उसके बाद आराम से सुबह के नौ बजे तक की छुट्टी। पर जागने के बाद देखा-देखी पानी में कौन बच्चा छुबकना नहीं चाहेगा? बच्चे तो नक़लची बंदर होते ही हैं। 

जब तक करुणा सोई रहती, झट-पट नौ बजे तक में रागिनी अपनी नियमित दिनचर्या के अधिकांश काम निपटाने की कोशिश करती। बेटी बिछावन पर से कभी भी गिर कर चोटिल ना हो इसके लिए सावधान रागिनी ने बहुत कम ऊँचाई का लगभग एक फ़ुट ऊँचा पलंग अपने कमरे में रखा था। जिससे गिरने और चोटिल होने की सम्भावना से निश्चिंत रहती। चतुर करुणा तकिया गिरा कर आराम से उतरने के बाद माँ की गोद में बैठकर विजित मुस्कान देती। 

पर कई बार मालिश के लिए तेल की कटोरी बिछावन के नीचे रखी हुई रहती, उससे खेलने लगती। अपने पूरे हाथ-पैर में देखा-देखी लगाती। नक़ल करने की कोशिश करती और सीढ़ियों से उतरने में तैलीय चिकनाई से फिसल कर तीन-चार सीढ़ी नीचे लुढ़क जाती। हाँ, कई बार ऐसा हुआ था। पर उसी दिन होता, जिस दिन वह एकांत में तेल की कटोरी उझल कर खेली रहती। 

हालाँकि जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी समस्याएँ और शरारतें भी प्रबल हो रही थीं। हमेशा सावधान रहने के बावजूद करुणा किसी दिन छत पर अकेली चढ़ गई। नीचे झाँकती, माँ को अचंभित करने की कोशिश में छत के घेरे वाले सीमेंटेड आकृतियों में गर्दन फँसा ली। जो छत पर हवा के अबाध प्रवाह के लिए बनाई गई थी। और जब फँस गई तो भयभीत प्राण संकट में अनुभव कर भयंकर चीख के साथ करुण-पुकार करने लगी। 

हे भगवान! ये क्या हुआ? विचारती रागिनी बचाव में दौड़ी। उसे ढ़ाढस-सांत्वना देती हुई बहुत देर तक प्रयास करती रही। ताकि कम से कम नुक़्सान में, सुरक्षित जैसे वह गर्दन घुसाई थी, वैसे ही सहजता से निकाल सके। 
जिसके लिए सबसे पहले करुणा की घबराहट को कम करना ज़रूरी था। ”माँ यहीं है न, बेटा जी! चुप रहो बिलकुल शान्त रहो।” रागिनी की बातों पर धैर्य और सुरक्षा अनुभव करती करुणा सहज होने लगी। वहाँ, तब तक अन्य लोग भी आ चुके थें। जो शान्ति बनाए रखने के लिए आस-पास खड़े तो थे पर कोई शोरगुल नहीं कर रहे थे। 

धीरे-धीरे करती हुई वह करुणा के सिर को उस हिस्से में ले गई। जहाँ से वह घुसी थी। दोनों माँ-बेटी उस उलझन से मुक्ति पाने में अन्ततः सफल रहीं। हर बार माँ रूप में रागिनी का ख़ून सूखना स्वाभाविक था। 

अकेलेपन में, अंदर से खेलती हुई, एक बार तो वह ख़ुद को अपने कमरे में बंद कर लिया था। “माँ खोल! दबाजा खोल!” कह कर हँगामा शुरू कर दिया। रागिनी आवाज़ सुनकर दौड़ी। आई तो देखती है, बच्ची अकेली कमरे में बंद है। जिसने नीचे की कुंडी लगा तो दी है पर खोल नहीं पा रही है। रागिनी को हर बार की तरह, असमंजस और बदहवासी में बहुत रोना आए। पर माँ के रोने पर बेटी के घबराने का डर भी था। सोच-समझ, जान-मान कर आत्म संयम रखती हुई; खिड़की पास आकर वह बाहर से ही बेटी को बार-बार प्रेरित करने लगी, धीरे-धीरे खोलो बेटा! जैसे-जैसे बंद की थी वैसे ही खोलो। करुणा अकेलापन पाकर घबराहट में और भी ज़ोरों से रोने लगी थी। बहुत देर तक प्रयास करने के बावजूद जब करुणा नहीं खोल पाई तो बाहर से दरवाज़ा तोड़ना पड़ा। जिसके लिए एक अलग नाटक . . .! एक अलग खेल . . .! बचाने वाला नायक और कौन . . .? यह काम भी राघव के अतिरिक्त और कौन कर सकता था भला? 

भरे-पूरे परिवार के साथ रहते हुए यह सब तभी होता जब सुबह, शाम या दोपहर में रागिनी घरेलू कामों में व्यस्त रहती। अकेले रहते, कुछ भी होने पर जाने कितना सवाल उठता? हाँ, कैसी लापरवाह माँ है? पर यहाँ आसपास लोगों की फ़ौज होने के बावजूद घटित हो जाता। 

अपने बाल कटवा कर रागिनी, करुणा को लेकर बाज़ार से लौटी है। उसे देखकर सास ने व्यंग्य किया, “आ गई मंग मुरली चिड़ैया! . . . पर कटी चिड़ैया! बन कर माँ-बेटी! जो एक पैसा अच्छा नहीं लगता।”

सुनकर हँसती हुई रागिनी अपने बालों की दुनिया में खो गई। 

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