रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 37
मंजेश्वरम आए कितने दिन हो गए थे पर अभी तक समुद्र किनारे नहीं जा पाए थे। अरब सागर से मात्र एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर रहने के बावजूद भी हर दिन गुज़र जाता इसी वादे में, “अगले सप्ताह चलेंगे।” बेटी रोज़ मचलती, घूमने के लिए। उधर खींचतान करती, चलने के लिए। परन्तु विशाखा के माँ की कहानियाँ और चेतावनी उधर अकेले जाने से रोकती।
शान्त-स्तब्धता में तूफ़ानी समुद्री लहरों की आवाज़ें उभरती और जैसे दस्तक देतीं मन-मस्तिष्क से होती रागिनी के कानों तक अपनी उपस्थिति दर्ज करतीं।
रागिनी से बातों-बातों में विशाखा पूछ बैठी, “समुद्र तट गई थीं आप लोग?”
“नहीं, रोज़ाना वादा कर के ड्यूटी के कारण राजीव टाल दे रहें।”
आदतन जो स्वाभाविक समस्या है राजीव की, ‘कुछ मन का आलस्य; कुछ काम का दबाव।’ जिससे रागिनी अच्छी तरह परिचित है। पहले बेरोज़गारी की शिकायत या बहाना था और अब ड्यूटी की व्यस्तता का। पहले ससुराल का दबाव था और अब उनके अधिकारियों का। जीवन की समस्याएँ कब पूर्णतः हल हुई हैं? रागिनी मन ही मन आकलन कर रही थी।
“कोई बात नहीं रविवार की शाम चलिए हमारे साथ,” विशाखा ने प्रस्ताव रखा।
रविवार को राजीव, सुबह के नौ से शाम के सात-साढ़े सात बजे तक की ड्यूटी पर थे।
फिर क्या रागिनी और करुणा नियत समय पर विशाखा और उसकी माँ, सीमा-नीमा को साथ लेकर छोटी-बड़ी गलियों से निकल पड़ीं।
समुद्र तट पर करुणा की मस्ती देखने लायक़ थी। वाक़ई वह बहुत ख़ुश लग रही थी। लहरों की चंचलता देख कभी आश्चर्यचकित होती! . . . कभी ख़ुशी व्यक्त करती! . . . कभी पास जाती; कभी दूर भागती . . . समुद्री सीपी और केकड़ों को देखकर तरह-तरह के सवालों की बौछार कर देती। रेत पर देर तक सीमा-नीमा की देखा-देखी आकृतियों को टेढ़े-मेढ़े ढंग से उकेरने का प्रयास करती रही। जेब में बहुत सारे कंकड़-पत्थर चुन कर रखे।
सभी शाम ढलने के पहले लौटने लगीं। पर करुणा को अभी और खेलना है . . .बहुत खेलना है . . .। माँ अभी और . . . अभी और रुको ना! . . . की रट लगाए हुए करुणा को समझाते हुए माता बोली, “अगली बार पापा के साथ आएँगे . . .। है ना? पर उसके लिए घर जाना पड़ेगा . . . पापा के आने के पहले चलो, घर चलें . . .। जल्दी से खाना भी बनाना है . . . फिर अगली बार आना है। . . . पापा को भी लाना है।” तब जाकर रागिनी की गोद में चढ़ कर करुणा आने को तैयार हुई।
अभी तक करुणा लगभग ढाई साल की थी। ऐसे में या तो रागिनी की परिक्रमा करती रहती या बाहर उन लड़कियों के साथ खेलने में व्यस्त रहती। पर बच्चों के मन का मौज कभी स्वीकार लिया; कभी नहीं भी स्वीकार किया। कभी करुणा ने उनके निर्देशों का अक्षरशः पालन किया और कभी नहीं भी किया। आपसी संवाद का एक फ़ायदा यह था कि करुणा का अंग्रेज़ी, मलयालम, कन्नड़ भाषा के प्रति शब्द-भंडार खेल-खेल में बढ़ रहा था। इतनी सहज और स्वाभाविक रूप में कि अविश्वसनीय था।
एक बार अक्षता-अक्षिता फूलों की रंगोली, जो केरल का लोकप्रिय सजावट का काम है, कर रही थी। पिंजरे से आज़ाद पंछी की तरह करुणा भाग कर निकली और जुड़वांँ बच्चियों के बीच में पहुँची। पर अनजाने में ही करुणा के पैरों से थोड़ी सी रंगोली ख़राब हो गई। जिसके लिए दोनों बहनें उसे डाँटने लगीं। और वहाँ से भगाया उसे! . . . फिर क्या? “मुझे को (क्यों) डाँटी?” कहकर और एक टाँग उस रंगोली में मार कर आई।
पीछे-पीछे दोनों बहनें शिकायत लेकर रागिनी पास पहुँची, “आंटी! . . . आंटी! . . . करुणा ने हमारी रंगोली ख़राब कर दी, टाँग मार कर ऐसे, ऐसे!” करके सांकेतिक दिखाती हुई।
“लाओ इसकी टाँग ठीक करती हूँ।”
धमकाती हुई रागिनी ने करुणा को डराया।
. . . तो रोती हुई बोली, “मुझे नहीं खेलाई . . . तो टाँग मार दी . . . ख़राब कर दी . . .। जाओ . . .!”
सुनकर उसके जवाब पर रागिनी हतप्रभ थी। विचित्र जवाब था। हँसी भी आ रही थी पर आत्म संयम रख कर उन दोनों को आश्वस्त किया, “ठीक है अब से नहीं करेगी ऐसे . . . है ना बेटा जी? . . . कान पकड़ कर, सॉरी बोलो दीदी को।”
अभिमान मिश्रित . . .”ठीक है . . . छॉली!” कहकर, करुणा अपना बाटा का क़ीमती लाल चप्पल तीन-साढ़े तीन सौ का चप्पल पहन कर भागी। राजीव से लड़-झगड़ कर जो बहुत मुश्किल से रागिनी ख़रीदवाई थी।
राजीव का कहना था, “छोटी बच्ची है! बार-बार चप्पल खेलने-कूदने में खोने का भय रहता है। कोई सस्ती सी ले लो।”
पर रागिनी, करुणा की पसंद देखकर अड़ गई। यही लेना है मतलब लेना है।
वह चप्पल कई दिनों से ग़ायब है। रागिनी बार-बार चारों तरफ़ खोज रही है . . .आकुल-व्याकुल ढूँढ़ रही है . . . कहाँ गया आख़िर?
करुणा, अक़्सर इधर-उधर छोड़ देती तो कोई न कोई बच्चा देखकर वापस पहुँचा जाता था। या वह ख़ुद भी ढूँढ़़ कर लाती थी। कभी रागिनी या राजीव इधर-उधर पड़ा हुआ देखकर लाते।
सबसे पूछने पर पता चला, “करुणा को पता है आंटी, उसी से पूछिए! . . . उसी ने छिपाई है।”
रागिनी ने बड़े प्यार से पूछा, “बेटा जी आपका लालू-लालू चप्पल कहाँ है? आप कहाँ रखी है?”
सुनकर थोड़ा विचार कर बाहर की ओर दौड़ कर गई और नाली में से निकाल कर लाई।
रागिनी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था ये क्या है?
“आप डाँटी। मैं चप्पल फेंकी! . . . आप डाँटी . . . मुझे गुच्छा (ग़ुस्सा)! . . . मैं चप्पल फेंकी।”
चप्पल की दुर्गति देखकर, “रुक जा शैतान की बच्ची! मैं तुझे बताती हूंँ।” एक लकड़ी उठा कर डराया।”मुझे ग़ुस्सा . . . तो पिटाई तुम्हारी अब!”
सुनकर भागती हुई बोली, “छॉली माँ!, अब नहीं करूँगी!”
“रुक जा छॉली की नानी!” उसे डराने के लिए माँ ने दौड़ाया।
करुणा अपनी माँ के हाथों का खाना, पानी, जूठन कुछ भी खा लेती पर पिता का इनकार करती।
”मुझे नहीं चाहिए पापा का ये जूठा है।”
कहकर अजीब व्यवहार करती।
”तुम माँ-बेटी भी अजीब हो! क्या-क्या सिखया है अपनी बेटी को? वही तो अनुकरण करेगी ना?” कहकर अपनी बेटी के पंडिताई पर राजीव ख़ूब हँसते।
दरअसल घर में संयुक्त परिवार में रहते हुए स्वास्थ्य की दृष्टि से सोच-विचार कर वह किसी का भी जूठन पानी वग़ैरह अपनी बेटी को पीने नहीं देती थी। करुणा के खान-पान के प्रति हमेशा सावधान रहती। अपना जूठन भी नहीं देती थी। जिसे करुणा अपने पिता पर भी लागू करती यहाँ।
थककर दोपहर, शाम या आधी रात को कभी रागिनी गहरी नींद में सोई रहती और प्यास लगने पर जब करुणा पानी माँगती, और यदि राजीव पानी देता तो वह कहती, “आप क्यों लाए हैं? . . . ये गंदा पानी है . . .।नहीं पीना है मुझे, ये पानी . . . माँ देगी पानी . . . माँ तुम दो मुझे।”
करुणा की सभी आवश्यकताओं का एक ही समाधान थी। सिर्फ़ और सिर्फ़ . . .माँ!
जिसके लिए रागिनी कभी-कभी क्षुब्ध भी हो जाती। ये कौन सी आदत है?
साफ़-सफ़ाई के प्रति समर्पित माता को देखकर वह भी नक़ल करती। जान-बूझकर कर राजीव फलों के छिलके इधर-उधर फेंक देता और उसे देखकर छिलका उठाने के लिए करुणा डस्टपैन लेकर दौड़ती, “उफ़्फ़ पापा समझते नहीं। . . . माँ थक जाती है . . . काम करते-करते। मेरे गन्दे पापा!”
माता-पिता को फल और सब्ज़ियाँ खाते देखकर करुणा भी धीरे-धीरे सीख रही थी।
पर उसका सबसे ज़्यादा ध्यान रहता विशाखा के यहाँ जाकर इडली-डोसा, केक-बिस्किट अधिकार पूर्वक खाने पर।
वह अपना अधिकार सीमा-नीमा की तरह उस घर में समझती। उसे लगता कि वह उसका ही घर है। कई बार तो कहती, “मैं वहाँ नहीं रहूँगी . . . वह अच्छा घर नहीं है। . . . ये नानी का घर बहुत अच्छा है . . .मैं यहीं पर रहूँगी। नहीं जाना गंदे घर में . . .। मुझे नया घर चाहिए। पापा को कहो मेरे लिए अच्छा घर ला दें।”
अपने घर के फल, केक और बिस्किट देखकर कहती, “नानी! . . . नानी! . . . माँ वाला नहीं चाहिए। मुझे तो आप दीजिए!”
एक दिन, दो दिन की बात हो तो कोई बात नहीं! रोज़ाना की नियमितता पर रागिनी को बिलकुल अच्छा नहीं लगता। “हे ईश्वर! ये कौन सी लीला है करुणा की! . . . घर का खाना अच्छा नहीं है।” कहकर करुणा अस्वीकार कर देती और बाहरी खाना थोड़ा बहुत खा लेती अपनी इच्छानुसार।
कई बार घर का खाना बना कर रागिनी, विशाखा के यहाँ रख आई। जिसे देखकर रोती चिल्लाती हुई वह कहती, “नानी ये खाना नहीं चाहिए। आपका खाना, अच्छा खाना! माँ का खाना गंदा वाला है।”
उत्तर भारतीय रसोई में रोज़ाना इडली-डोसा सम्भव नहीं था। करुणा को जो अति प्रिय था। और विशाखा दक्षिण भारतीय खाना इडली-डोसा से ऊबी हुई थी तो उन्हें रागिनी उत्तर भारतीय व्यंजन उपलब्ध करा कर स्वाद परिवर्तन कराती। और बदले में करुणा दक्षिण भारतीय स्वाद का मज़ा लेती।
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