रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 42
सारे तनाव के बीच रह-रह कर राजीव, रागिनी को चिढ़ाने के लिए कहता, “जानती हो इन सब के बीच में मात्र एक बात अच्छी हुई है कि तू यहाँ पर है . . . नहीं तो . . . ?”
राजीव का सांकेतिक संदर्भ रागिनी सब कुछ देखते-समझते हुए मौन थी। अंदर तक एक भूकंप उठता पर बड़ी कुशलता से सँभाल लेती। क्योंकि वह अच्छी तरह जान चुकी है, “पति, पति होता है।” लोग भले ही कहते रहें, ‘स्त्री के त्रिया-चरित्र को ब्रह्मा भी नहीं जानते’। पर इन वर्षों के अनुभव में ब्रह्म-ज्ञान जो पाया है उसके अनुसार, सम्बंधियों के ग़लत रहने पर भी मूकदर्शक रह कर देख लिया जाएगा। पत्नी के लाख सती-साध्वी रहने के बावजूद न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, सही-ग़लत से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण रक्त-संबंध होता है। जाने कब और किस बात पर हावी हो जाए? वह अपनी माँ और बहन का पक्षपाती होकर गिरगिट की तरह रंग बदल ले? पति रूप की राजनीति ब्रह्मा, विष्णु और स्वयं महेश की सर्वोच्च संयुक्त शक्ति भी नहीं जान सकती है। फिर पत्नी रूप में रागिनी की औक़ात ही क्या?
ख़ैर माँ द्वारा, अपने बेटे को अधिकार पूर्वक आज्ञा निश्चित राशि भेजने का फ़रमान जारी हुआ था। आज्ञाकारी श्रवण कुमार बेटे ने शीघ्र-अतिशीघ्र भिजवाया।
जिसके भरोसे जाकर, जितना जल्दी हुआ सोने की चेन बनाकर बेटी को सौंप कर उऋण हो ली। माता और भाई के हृदय ने आसानी से स्वीकृत किया। प्रत्येक अट्ठन्नी-चवन्नी की क़ीमत वाली बात पर बहू और पत्नी रूप में अवश्यंभावी अहसान का टोकरा हज़ार गुणा अधिक डाला जाता है। पर जब बात अपनी बहन-बेटी की हो तो रूई का बोरा समझ हँसते-हँसते उठा लिया जाता है। हाँ, तो यहाँ अज्ञात रहस्य ही रहा कि चोर कौन है?
छह महीने बाद राघव की पत्नी रानी को अपने मौसेरे भाई की शादी में सोने की चेन मिली। ”मिला है या आप ख़रीदी हैं?” सवाल उठाकर जिस घर में ननद को, रागिनी के मायके से सोने की ढ़ाई-तीन ग्राम की अँगूठी मिलने पर भी संदेह हुआ था। वो अपनी छोटी भाभी के मिली सोने के चेन पर भरोसा करें . . . ना करें . . . उनकी मर्ज़ी? ज्ञात . . . कितना अज्ञात रहा? इसमें माथापच्ची करके भी क्या? ख़ैर उनका भी क्या गया? बिल तो फटा किसी और का . . . वो भी मुफ़्त में।
हाँ, तो इस कहानी को यहीं विराम देती हुई उस छठ से पहले की कुछ रोचक बातें जो कि छूट गई हैं इस पर भी चर्चा कर ली जाए।
गृहस्थी के प्रारंभ से लेकर अब तक में रागिनी और राजीव दूसरी बार दीपावली में एक साथ थे। रागिनी के अनुसार पहली बार पालघाट में, जिस दिन बहुत सहयोगी रूप में राजीव रहा था।
मंजेश्वरम में रात ड्यूटी कर के लौटे पति सुबह-सुबह पूछ बैठे, “दीपावली पर, आज के दिन की तुम्हारी क्या योजना है?”
सुनकर ख़ुशी में बहुत ही भावुक हो कर रागिनी, राजीव को समझाते हुए बोली, “देखिए अब हम लोग गृहस्थी में हैं। माता-पिता रूप में बाल-बच्चेदार हैं। इसलिए हमें अब परिपक्व-अनुभवी बन कर आस्था-विश्वास भरी हुई दीवाली मनानी चाहिए। मैं शाम की पूजा तक उपवास करूँगी। आप अपना समझिए!”
“मैं चौबीसों घण्टे का उपवास करूँ तो?” राजीव ने व्यंग्य किया। जिसे रागिनी समझ नहीं पाई थी। और बोल गई, “ये तो और भी अच्छा होगा।”
रागिनी के ये बोल सुनकर, दृढ़ प्रतीज्ञ राजीव फ़ोल्डिंग खाट पर चादर तान पसर गया। लो अब आज का अनशन शुरू किया। मन-ही-मन जाने क्या विचार कर अड़ियल बैल की तरह जम गया।
रागिनी अन्य घरेलू कामों में व्यस्त हो गई थी। बाज़ार से लाने वाले सारे आवश्यक सामग्रियों की सूची लेकर पहुंँची तब पता चला कि लो हो चुका है बेड़ा ग़र्क़!
“आज तो मैं चौबीसों घण्टे के उपवास पर हूँ। अब सुन लो कहीं नहीं जाने वाला। ना नहाऊँगा और ना ही खाऊँगा!”
धमकी सुनकर विचार करने लगी, “हे भगवान! ये तो बड़ी मुश्किल हुई बाबा! पर अब किया क्या जाए? समझना मुश्किल? . . . समझाना मुश्किल!” पूरा दिन अब रागिनी उलझकर रह गई। वह भी राजीव के साथ भूखी-प्यासी रही . . . मनाने-समझाने का जितना भी प्रयास करती उसमें तो और भी मामला जटिल होता जा रहा था। जिस शान्ति और संस्कार की आवश्यकता आज थी वह तो भयंकर रूप से नष्ट हो चुका था।
“ड्यूटी का तनाव था या जो कुछ भी समस्या हो बता दो . . . बोल दो यार! पर इस रूप में परेशान करना। मेरा ख़ून जलाना अन्याय नहीं तो और क्या है? बाहरी दुनिया का भद्र-पुरुष पर इस तरह का शैतान हावी होना कुछ ऐसा ही है जैसे ये वो आदमी है ही नहीं जिसे मैं जानती हूँ।”
सोचकर आहत दुःखी मन बहुत ही रोना आए। बैठ कर वहीं सामने ही उसके, जी भर कर रो ली। अंत में वहाँ से उठती हुई बोली, “आज के दिन आप जो ये नाटक ठाने हैं, ना इसका ख़म्याज़ा पूरे साल भुगतना पड़ सकता है। देख लीजिएगा। फिर मत कहिएगा कि बताई क्यों नहीं?”
सुनकर ग़ुस्से में जवाब, “हाँ, वही तो चाहिए मुझे! सब नष्ट कर दूँगा! . . . देखती रहना।” प्रारंभ हुआ सो क्रोधित, सही-ग़लत की प्रत्येक सीमा के परे नकारात्मकता से भरपूर पुरुष अनियंत्रित बोलता चला गया। आख़िरी विराम इन वाक्यों से हुआ, “तू है ही बदमाश! जब मेरे महान पिता को मार सकती है। अपमानित कर सकती है . . . तो मुझे क्यों नहीं?”
सुनकर तिलमिलाहट में करुणा को लेकर वहाँ से चली गई। कुछ देर बाद बेटी की भूख का ख़्याल आते ही, वापस आकर उसके लिए खिचड़ी बनाकर खिला दी। दूध-फल, बिस्किट और केक खिलाकर किसी तरह काम चलाया।
कहाँ तो दोनों पति-पत्नी आज लक्ष्मी-गणेश की पूजा करने वाले थे। अब लो मज़े! . . . ना बाज़ार गई! . . . ना दीवाली का एक भी दीया जला . . . ना पूजा हुआ! . . . ना कोई ख़ुशी और ना कोई उमंग! ना चाहते हुए भी खिन्न मन, उद्वेलित, निराश होकर अपनी बेटी को लेकर अंदर कमरे में चली गई। बाहरी किसी से कोई संपर्क नहीं रखी।
सचमुच वह बहुत दुखी और नाराज़ थी। सब कुछ देखते-समझते हुए भी दोनों पति-पत्नी के रिश्ते में, इनका पिता कहाँ से आ गया? सोचती हुई फफक-फफक कर और भी रो उठती।
अमावस्या की काली रात के अँधेरे के साथ राजीव के मन का अंधकार भी छँटा। अगले दिन कुछ थोड़ा-बहुत कुछ खा-पीकर ड्यूटी गया।
दूसरे सहकर्मियों के असहयोग और भाषा अवरोध के कारण से एक-दो दिन बाद ही ड्यूटी में कुछ गड़बड़ कर गया। उसके तनाव से अलग समस्याएँ उभरती जा रहीं थीं। तब-तक में श्वेता की सोने की चेन खोना भी अगली एक और कड़ी का हिस्सा बन गया।
इतना सब कुछ बिगड़ने के बाद, “मुझे तो ड्यूटी की चिंता-परेशानी रहती है पर तुम्हें नाराज़ होने की क्या ज़रूरत है? सब तुम्हारी वजह से हुआ!” कह कर श्रीमानजी ने पल्ला झाड़ लिया था।
साथ रहते गृहस्थी का नकारात्मक पक्ष बनकर, अब छोटी-सी भी बात का बहाना मिलने की देरी थी, पति-पत्नी के रिश्ते के बीच में पिता का भूत लाकर खड़ा कर देता। बातों-बातों में माँ-बहन द्वारा भी की गई शिकायतों का हिसाब-किताब चक्रवृद्धि ब्याज दर पर बढ़ा-चढ़ा कर करने लगता।
अनदेखा करके टालती चली जा रही थी। पर ये तो नियमित दिनचर्या बनती जा रही थी। एक दिन रागिनी पर भी विरोध का चढ़ा भूत!
“एक दिन हुआ, दो दिन हुआ। ये बार-बार की बदमाशी अनजाने में नहीं होती है। इसे जानबूझ कर की गई साज़िश कही जाती है जी! समझें आप? चलो मैं बुरी हूँ! . . . बहुत ही बुरी हूँ . . . सबके लिए; आपके माँ, बाप, बहन सबके लिए! और आपके लिए भी! हाँ स्वीकारती हूँ! . . . अब ये बताओ आप! . . . कि आपको करना क्या है? . . . आप चाहते क्या हैं? वहाँ थी तो सोचती थी, आप मेरे अपने हो . . . कम से कम आप वैसा कुछ भी मेरे साथ ग़लत, अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करेंगे। पर यहाँ आकर पता चला कि आप तो उन सबसे भी गए गुज़रे निकले . . . जाओ ले आओ जी . . . कोई दूसरी . . . तीसरी! जो आपके माता-पिता और बहन को सिर पर बिठा कर रखे। प्यारी हो, दुलारी हो . . .। मैं आज तक न लड़ी, ना झगड़ी! . . . बावजूद दुष्ट हूँ! . . . बदमाश हूँ! क्योंकि सुन लेती हूँ इसलिए न?
“आपकी ही की माँ के सुरक्षा के चक्कर में पिता से ये बदनामी मिली। और आज आप मुझपर अपयश लगा पा रहे। कुछ भी ऐसा पता होता मुझे, तो छोड़ देती मार-पीट क्या हत्या भी कर देते; बावजूद भी आपके उन महान परम प्रतापी भगवान बाबू जी को नहीं रोकने जाती।
“अब हट गई हूँ! . . . आपके माता-पिता, बहन के पास से ना? . . . क्यों नहीं हैं सुखी वो! . . . अब तो उनकी प्यारी बहुएँ उनके पास हैं? . . . अब समस्या क्या है? . . . अरे वो लोग भाँड़ में जाएँ! . . . आपका क्या घट गया मुझसे? . . . ओए दुनिया को और मुझे भी बेवुक़ूफ़़ बनाने वाले भद्र-पुरुष! अभी बताएँ? . . . मैंने क्या बिगाड़ा आपका? इन बेवुक़ूफ़ियों से मेरी ज़िंदगी नरक मत कर यार!
“आपकी प्यारी माँ या बहन और हाँ भगवान बाबू जी जीवन भर साथ देंगे ना देंगे . . . नहीं जानती? पर मैं, हर स्थिति में साथ निभाने का हौसला रखती हूँ . . . जिसे भूलकर भी चुनौती मत देना। यदि मात्र वही महत्त्वपूर्ण हैं तो मैं यहाँ क्या कर रही हूँ? . . . आप किसे बेवुक़ूफ़ बना रहे हैं? . . . ख़ुद को? . . . अपने रिश्तेदारों को? . . . या मुझे? . . . जो हज़ारों किलोमीटर दूर रहकर भी मेरे जीवन को नरक करने का मौक़ा मिल रहा उन्हें? या आप दे रहे हैं उन्हें? अब तो ये आप ही समझिए।
“मेरी नज़रों में आप ख़ुद को कितना महत्त्वपूर्ण बना रहे या गिरा रहे? वो तो मात्र हम-दोनों की बात है। पर आपके रिश्तेदार, जो पहले से ही क्या हैं? कैसे हैं? जान-समझ कर भी मेरी दृष्टि में ख़ुद को और क्यों गिरा रहे हैं? बड़े नेक दिल हैं पिता! तो माँ की हड्डियाँ क्यों तोड़ते हैं? माँ भी बड़ी मीठी है तो रोज़ का महाभारत क्यों मचा रहता है? बहन और भाभी लोग भी भली थी तो स्वर्ग था न आपका घर? तो वहाँ से निकल कर भागने की नौबत क्यों आई आपको?
“ . . . थोड़ा सा आदमीयत की पहचान करवाने की कोशिश कर रही थी तो महिषासुर बनने का शौक़ चढ़ा है . . . तो बउआ समझ लेना दुर्गा बनकर मर्दन भी करने आता है।”
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