रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 35

 

रसोई का सामान ले जाकर रसोई में एक-एक कर अन्य वस्तुओं को उनके सही जगह पर रख कर व्यवस्थित करने का काम रागिनी का प्रारंभ हुआ। जिसे यथासंभव करके निपटाई। धीरे-धीरे बिखरा हुआ कमरा, एक घर में परिवर्तित हो गया। जहाँ नर-नारी एकाकार रूप में गृहस्थी चलाएँगे। 

घर के पीछे चारों तरफ़ जंगल की सघनता के कारण रसोई की खिड़कियाँ-दरवाज़े सिर्फ़ खाना बनाते समय खोलती और अन्य समय में बिल्लियों के डर से बंद कर रखती। एक बात भी सत्य कि चौदह महीने के वास में मात्र एक दिन वो भी एक चूहा दिखाई दिया जो बिल्ली के पंजे में था। 

सप्ताह भर भी नहीं हुआ था कि रसोई की खिड़की जो पीछे के घने बाग़ीचे की तरफ़ खुलती थी; जैसे ही खिड़की खोली कि एक बड़ा सा साँप, पेड़ की डाली में लिपटा हुआ इधर ही मुँह किए लहराता हुआ दिखा। ज्यों कह रहा हो “तेरा पड़ोसी मैं भी हूँ। मेरे परिवार से यदा-कदा सामना होता रहेगा। समझी!” इस अप्रत्याशित सामने पर रागिनी ने झट से खिड़की बंद कर ड्यूटी में, राजीव को फोन पर एक साँस में सब बता दिया। 

सप्ताह भर की छुट्टी के बाद वापस ड्यूटी आने पर व्यवस्था जनित अनेक समस्याएँ थीं। जिन्हें निपटाने में भी समय लगता है। सब व्यवस्थित करने में इधर राजीव उलझा था। आपसी सामंजस्य बिठा कर के जाने के बावजूद विभागीय अधिकारियों से कुछ व्यवस्थागत असंतुलन के कारण उत्पन्न समस्या पर अस्त-व्यस्त राजीव खीझ कर बोला, “अरे बाबा! मुझे ड्यूटी करने दोगी भी। यह भारत का सर्प ज़ोन है। यहाँ अलग-अलग क़िस्मों की रंग-बिरंगी, सैंकड़ों प्रजातियाँ रहती हैं। दरवाज़े-खिड़कियांँ बंद रखो। बेटी को सँभाल कर रखो। तुम्हारे घर में सांँप-बिच्छू आया या मेहमान आया? सबका हिसाब-किताब मैं यहाँ काम पर बैठे-बैठे नहीं कर सकता . . . समझी!” कह कर फोन काट दिया। 

घबराहट के कारण बेचैनी में देर तक हृदय धक-धक करता रहा। ‘सर्पदर्शन की बेचैनी भरी खिड़की और राजीव की झिड़की’ जनित असंतुलन के साथ मन किसी काम में नहीं लग रहा था। अंततः पिछला दरवाज़ा और खिड़कियों को बंद कर रागिनी, करुणा को लेकर अंदर के कमरे में, मुड़ने वाले एकल चारपाई पर जाकर सो गई। 

बग़ल वाले घर में दो जुड़वाँ बच्चियांँ थीं जो अपनी माँ के साथ रहती थीं। रागिनी और करुणा का प्रथम दृष्टया परिचय उनका ऑटो रिक्शा पर खेलते हुए ही तो हुआ था। गौर वर्ण का डील-डौल में लम्बा, आकर्षक व्यक्तित्व संम्पन्न स्त्री-पुरुष का जोड़ा दिखाई देता था। रागिनी का अपरिचित लोगों से होनेवाला स्वाभाविक संकोच! जिनसे ज़्यादा ज़ल्दी परिचय होने में रुकावट थी। 

पर सप्ताह भर में पता चल गया कि वह पड़ोसन! मलयालम क्षेत्र में ससुराल था जिसका, कन्नड़भाषी, तुलु क्षेत्रीय भाषी, हिंदी और अंग्रेज़ी की भी जानकार महिला है। 

इसका एक रोचक प्रसंग है—रागिनी के कमरे के ठीक सामने वाले घर में, मकान मालिक की दो बेटियांँ, सीमा-नीमा। जो बारह और छह वर्ष की थीं। भाड़ेदार रूप में रागिनी की पड़ोसन की बेटियांँ अक्षता-अक्षिता, जो लगभग नौ-दस वर्ष की रही होंगी। उन चारों को खेलते देख कर ढाई वर्षीय उत्साहित करुणा भी गई। करुणा की अपरिपक्व चंचलता उन चारों के खेल में बाधक प्रतीत हुई होगी। तो अपने समूह में लेने से जुड़वांँ बहनों में से एक ने अस्वीकार कर दिया। 

जिससे आहत होकर पराजित भाव करुणा ने अपने चचेरे भाई-बहन द्वारा प्रयुक्त अमोघ अस्त्र तूत्ता (कुत्ता) अस्पष्ट-अस्फुट शब्द में प्रयोग कर दिया और वहाँ से भाग आई। 

आहत करुणा अश्रुपूरित, माँ की गोद में बैठ कर गले से लिपट रोते हुए दोनों बहनों की बहुत शिकायत की। “वो मुझे नहीं खेला रही। वो मुझे नहीं खेला रही। गंदी दीदी है। मैं किसके साथ खेलूँगी? मेरे लिए भी एक भाई-बहन ला दो माँ! मैं कभी उनके पास नहीं जाऊँगी। ना उन्हें घर में आने दूँगी।” बहुत कोमलता से बहला-फुसलाकर कर रागिनी ने करुणा को शान्त किया। 

टूटे-फ़ूटे अंग्रेज़ी के शब्दों में किसी दिन अक्षता-अक्षिता अपनी माँ के सामने रागिनी से अर्थ पूछने लगी, “आँटी-आँटी तूता मिनिंग? ओ . . . जब हमने खेल में शामिल नहीं किया तो करुणा बोली हमें।”

रागिनी सुनकर बहुत आश्चर्यचकित रह गई, “तूता? ये क्या है?” 

उसकी माँ, गूढ़-गंभीर मुस्कान लिए स्पष्ट करती हुई, “तूता मिनिंग ‘नाई’ बोली!”

सुनकर दोनों बिदक गई, “छीः हमें डॉगी बोली। करुणा हमें डॉगी बोली।”

ये शब्द रागिनी के लिए हतप्रभ करने वाला था। बेटी के पालन-पोषण में ये तो उसके संस्कार नहीं थे। वो समझ नहीं पाई कि यह शब्द उसकी जेठानी के बच्चों से होते हुए उसकी बच्ची के मुँह पर कब और कैसे आ बसा? 

कमरे में आ कर रागिनी ने करुणा को बहुत प्रेम से समझाया कि वह कभी भी, “किसी को भी कुत्ता नहीं बोलेगी! . . . है ना बेटा जी?” और बड़ी मासूमियत से करुणा ने अपनी स्वीकृति दे दी। 

मंजेश्वरम आने के पहले करुणा ने अड़ोस-पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने में जो एक और शब्द “भूत” जो संगत में कमाया था, उस शब्द को भी प्रयोग से निकालने में समय लगा। 

करुणा जो अपनी संयुक्त परिवार में, बड़ी माँ के साथ घर-घर घूमने की अभ्यस्त थी, पालघाट और मंजेश्वरम में आने के बाद पूर्ण नियंत्रित होकर सिमटने लगी थी। मौक़ा तलाशती बच्ची! सुबह-दोपहर-शाम, दिन-रात की सीमा से परे आज़ादी की अभ्यस्त दूसरों के पास भाग जाती। सोकर उठते ही कुर्सी पर चढ़कर डोरबेल बजा कर ज़बरदस्ती दरवाज़ा खुलवाती। करुणा की आज़ादी की क़ीमत में दूसरों की परेशानियाँ बढ़ रहीं थीं। किसी भी काम से जैसे ही उसके पिता ने दरवाज़ा खोला और बेटी ग़ायब। 

अब ढूँढ़ते रहो? कहाँ और किसके घर गई या खुली सड़क पर? उसकी सुरक्षा की दृष्टि से सजगता बहुत ज़्यादा ज़रूरी भी थी। अबोध नन्ही बच्ची और अपरिचित लोग! अनजान भाषा और संस्कृति! उस चारदीवारी में चार नियमित परिवार थे तो अपने आर्थिक-सामाजिक, पारिवारिक विवशताओं के कारण कुछ पुरुष भी तो सामूहिकता में रहते थे। आस-पास की प्रकृति में ज़हरीले कीड़े-मकोड़ों की मौजूदगी भी करुणा के प्रति सतर्क करती। 

“अरे बाबा ये क्या? बेटी के प्रति, मैं अपनी ज़िम्मेदारियों को किसी का बोझ क्यों बनने दूँ?” रागिनी अक़्सर विचार करती। 

एक सरकारी कर्मचारी के रूप में रात ड्यूटी, लगभग बारह घण्टे की और दिन ड्यूटी लगभग दस-ग्यारह घंटे तक राजीव की ड्यूटी रहती। किसी-किसी दिन सहकर्मियों के सहयोग-असहयोग के नाम पर कम-ज़्यादा और भी लग जाता। 

सप्ताह में दो-तीन रात ड्यूटी जाना है। अतः सम्भावना व्यक्त होती थी, “या तो रात ड्यूटी है इसलिए सोया है . . . या रात ड्यूटी कर के आया है इसलिए सोया है।” अकेली माँ-बेटी को टहलते या बैठे हुए देखकर, अड़ोस-पड़ोस के लोगों में सुप्रसिद्ध कहावत बन गई थी उसके लिए। 

वह अनुशासित रूप में अपनी ड्यूटी नियमित दिनचर्या की आवश्यकतानुसार जाता। जिसके लिए अच्छी नींद, अच्छा स्वास्थ्य चाहिए ही चाहिए। उसकी सुविधा-असुविधाओं के बारे में विचार कर रागिनी अपनी बेटी को लेकर बहुत शान्त-संयमित रहकर तीन-चार घंटे तक राजीव को निर्विघ्न सोने देने का प्रयास करती। 

माँ-बेटी! राजीव के ड्यूटी के अनुसार समय पर विस्तृत बाग़ीचे में चटाई, चादर, पानी की बोतल, बिस्किट, फल और मिठाइयाँ सब कुछ करुणा के लिए आवश्यकतानुसार लेकर बैठ जाती। 

साफ़ खुला मौसम रहने पर तो कोई बात नहीं थी क्योंकि आसपास प्राकृतिक मनोहारी दृश्यों के साथ अद्भुत-सुन्दर सम्पूर्ण दुनिया थी। पर वर्षाकाल में गहन निःशब्दता में एक कमरे में सिमट जाती। ताकि राजीव को अपनी ड्यूटी में अवरोध का कोई भी बहाना ना मिले। 

सम्पूर्ण ध्यान रखने के बावजूद स्वाभाविक बाल-सुलभ बचपना संग नन्ही बच्ची, उसी समय अपनी आवाज़ और उद्वेग, प्रदर्शित करती; जब घर में पूर्णतः इमरजेंसी वाला निषेधाज्ञा लागू रहती। बावजूद अपने माता-पिता की वह पूर्णतया शिष्ट और अनुशासित बच्ची!

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