चुभन
पाण्डेय सरिताकल्पना के लिए ये जीवन का पहला अवसर था, जब उसकी माँ और सासु माँ एक साथ उसके पास पहुँची थीं। माँ, सासु माँ, पति और बच्चों के साथ संबंधों की तुलनात्मक प्राथमिकताओं में कहीं-ना-कहीं फ़र्क़ तो पड़ेगा ही। सजग और सावधान कल्पना, चाय-नाश्ता, भोजन या किसी भी रूप में सर्वप्रथम-सर्वोपरि सासु माँ को रखती, फिर उनके बाद अपनी माँ को, उन दोनों के बाद पतिदेव का क्रम था बच्चों से पहले और सब के बाद ख़ुद को रख रही थी। दोनों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के क्रम में कहीं कुछ असंगत, अप्रत्याशित, अवांछित स्थिति उत्पन्न ना हो जाए जैसी अति सावधानियों के बावजूद धुआँ, आग और चिंगारियाँ उठीं भी तो कहाँ? जिसके प्रति पूर्ण आश्वस्त थी,वहाँ।
यह बात अति हास्यास्पद और अविश्वसनीय लग सकती है। पर, सच्चाई यही है कि पतिदेव अमर उपेक्षित अनुभव करने लगे थे। जबकि मात्र एक-दो सप्ताह की ही बात थी। उन्हें समझना चाहिए था पर पति का मन तो आख़िर देवत्व अधिकारी मन ठहरा। जिस अधिकार भाव को दर्शाने का कोई अवसर चूकने का तो सवाल ही नहीं उठता।
लम्बी यात्राएँ और खान-पान के असंतुलन से मौसमी एलर्जी रूप गले में ख़राश उत्पन्न हो गई थी। गर्म पानी के लिए प्रारंभ में एक-दो बार पूछा गया तो वह टाल गया था। 'जब आवश्यकता होगी तब वह बोलेंगे ही' के विश्वास पर कल्पना ने अनावश्यक पूछना बंद कर दिया था।
रात में संभवतः दर्द बढ़ गया था, पर अभिमान में या अपनी पत्नी की परवाह रूपी परीक्षा लेने के उद्देश्य से, ना तो अमर ने माँगा, ना ही कल्पना ने कोई पूछ-ताछ की और ना कोई जोर-ज़बरदस्ती की।
ड्यूटी जाने के लिए तैयार अंदर ही अंदर कुढ़न में जलता हुआ सुबह-सुबह अमर ने ताना मारते हुए कहा, "दोनों बुढ़ियों के चक्कर में तुम्हें, मुझसे क्या मतलब?" यानी कि अपनी सास और माँ के कारण तुम्हें तो मेरी परवाह ही नहीं।
सुनकर आश्चर्यचकित व भ्रम से जागी कल्पना झट से रसोई में भाग कर तत्क्षण यथाशीघ्र पानी गर्म करके, फ़्लास्क में डाल कर ड्यूटी पर जाते पति को थमाने लगी।
लगभग पाँच मिनट तक बहुत ज़िद और अनुनय-विनय के बावजूद, गर्म पानी का बोतल छोड़कर, बिना पानी लिए "रखो-रखो, मुझे नहीं लेना।" कहकर पति अपने गुमान में हाथ छुड़ा कर, निकल पड़े।
क्षण भर पहले ही इस लेन-देन की प्रक्रिया और जाते हुए कठोर वचनों की स्थिति-परिस्थितियों से आहत कल्पना अभी मानसिक रूप से सँभल भी नहीं पाई थी कि दोनों बुढ़िया टहलती हुई वापस आ गईं।
रुआँसी ग़ुस्से में बोतल उठा कर खीझती कल्पना जाते हुए पति को देखती रह गई। दोनों वृद्धाएँ इस मामले की गंभीरता से अनभिज्ञ, कल्पना की बचकानी ज़िद मान कर उसे ही सुनाने लगीं, पति की किसी छोटी-सी बात का बतंगड़ ना बनाने का सलाह देने लगीं।
मन मसोस कर मौन, अब कल्पना उन दोनों को क्या और कैसे समझाए कि बेटे और दामाद के अतिरिक्त, रिश्ते में संवेदनशील पति रूप में बात कितनी छोटी सी है या बड़ी सी है?
बेटे की प्रत्येक करतूत को जान-समझ कर भी माँ, हमेशा अनदेखा कर पक्षपात कर लेगी। क्योंकि, माँ की दृष्टि में बेटा हमेशा ही निष्कलंक छवि श्रवण कुमार रहता है और बहू बुरी, उकसाने वाली, परेशान करने वाली मूर्ख-पराई। ग़लतियों का सारा ठीकरा तो बहू के सिर पर ही फूटना चाहिए। यह समझ-मान कर बहू को ही दोषी और झूठी मान कर सारा दोष आरोपित करेंगी। बेटी की माँ बेटी-दामाद के बीच किसी भी बहाने आना नहीं चाहेगी। आदर्शवादी दामाद के मन में क्या चल रहा जान-समझ कर सास के रूप में बेटी की माँ तो दुःखी हो जाएगी।
किंकर्तव्यविमूढ़ अब एक पत्नी बताए कैसे, क्या? गर्म पानी की आड़ में कौन सा पिन चुभा कर एक पति गया है अभी, किसी छोटी सी-बात की आड़ में?
1 टिप्पणियाँ
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ऐसी परिस्थिति में ऐसा ही तो होता है.. आगे कुआँ पीछे खाई!