रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 34

 

दो साल की करुणा को बुख़ार आया था और कमज़ोरी से अनियंत्रित पैंट में शौच हो गया। वह बुरा अनुभव कर रोने लगी। क्योंकि दो-चार महीने के उम्र से ही रागिनी सचेत रह कर शौच क्रियाएँ नियमित समय पर ही संपादित कराती थी। साल भर की उम्र से ही टॉयलेट में बैठना सिखा दिया था। 

उसके ठीक उलटा करुणा का डेढ़ साल बड़ा चचेरा भाई, दिन भर बाहरी अनाज ख़ूब खाता और दो बड़े आदमियों के बराबर का अकेला पैंट में ही भरपूर निकालता। 

साढ़े तीन साल का बच्चा! नया-नया जो अभी बड़ी मुश्किल से सप्ताह भर पहले ही पैंट उतार कर टॉयलेट सीट पर बैठना सीख रहा था। करुणा को रोते देख कर मोटा-थुलथुल, अस्पष्ट, अस्फुट स्वर में शर्मिंदा करते हुए कहता है, “हगनी कहीं की, पैंटे में हग्गो है।”

जिसके कारण घर के नाले में हमेशा गंदगी मची रहती थी। पैंट का अपशिष्ट पदार्थ दुष्टतावश उसकी माँ, नाली में ही छोड़ देती थी। शालीनता व शिष्टाचारवश जिसे राघव हमेशा नहाने के पहले साफ़ किया करता था। वो बच्चा बाबा बनकर सभ्य-शिष्ट बच्ची को चिढ़ाने के लिए बोल रहा था। समझकर और देखकर तो रागिनी को हँसी फूट आई . . . अरे वाह, ग़ज़ब दुनिया का अजब दस्तूर!

 . . . चलनिया हँसे सूपवा पर, जे में सहसर गो छेद। 

अपने कर्मक्षेत्र मंजेश्वरम में राजीव ने किराए की मकान लेकर सारी व्यवस्थाओं के बाद आने की ख़बर रागिनी को दे दी है। 

गर्भपात के साथ ही गर्भावस्था की सारी समस्याओं का तूफ़ान भी चला गया था। सारी मितली, थकान, कमज़ोरी, ब्लडप्रेशर और इसके साथ-साथ राजीव की तनाव और चिन्ताएँ भी समाप्त। पर जागृत मातृत्वबोध के कारण रागिनी ख़ुद को माफ़ नहीं कर पा रही थी। कहीं न कहीं अपराध बोध से ग्रसित थी। 

गर्भपात के बाद सासु माँ का नज़रिया भी कुछ नरम हुआ था। इस नरमी में एक और महत्त्वपूर्ण बात थी कि अब रागिनी, अपने मायके में ज़्यादा से ज़्यादा समय रहने लगी थी। अब माँ-बेटी, के केरल जाने का समय भी तय हो चुका था। परदेशी होने वाली भावना के कारण भी कुछ हद तक नियंत्रित व्यवहार करने लगी थीं। 

काँसा-पीतल हो तो बदल भी दिया जाए; पर आदमी कैसे बदलें? आदतन जो दिल-दिमाग़ होता है, गाहे-बगाहे उभर ही आता है। बस समय और अवसर मिलने की देरी होती है। विवाह समारोह में सम्मिलित होने जेठानी और देवरानी अपने-अपने मायके गई थी। 

पूर्णिमा का दिन पड़ा तो साफ़़-सफ़ाई के नाम पर बातों-बातों में मुहल्ले की स्त्रियों के चौपाल पर चर्चा हो रही थी। बातों ही बातों में सासु माँ का व्यंग्य उभरा, “पड़ोस में रहने वाली एक मजदूरिन कैसे नवें महीने के गर्भ रहने के बावजूद खेती-मजदूरी के साथ-साथ सम्पूर्ण घर-गृहस्थी भी सँभालती है। उसे तो कभी भी कुछ भी नहीं होता। पर इन बहुरानी (रागिनी) को जितनी सुविधाएंँ उपलब्ध हैं, बावजूद समस्याएँ ही समस्याएँ हैं।” 

सुनकर रागिनी आहत होकर, रसोई के काम के बाद ऊपर के दो कमरे, बरामदे, ऊपर से नीचे दोमंज़िले सीढ़ियों को साफ़ करती हुई; नीचे के भी सारे कमरे, बरामदे, आँगन साफ़ करने लगी। सासु माँ के साथ सारे काम निपटा कर, आराम करने के लिए अपने कमरे में जब आ रही थी तो बेटी करुणा गोद में आने के लिए आतुर हो कर चढ़ गई। 

थकान के साथ बेटी को गोद में लिए धीरे-धीरे रागिनी सीढ़ियों पर चढ़ती किसी तरह अपने कमरे में आई और सो गई। नींद खुली भी तो उल्टी, भयंकर पेट दर्द और बुख़ार के साथ। 

बर्दाश्त के बाहर था शारीरिक कष्ट! किसी तरह डॉक्टर आने के बाद आकस्मिक रोकथाम के लिए तीन सूइयाँ पड़ी। दवाइयों का प्रबंध हुआ। तब जाकर रुका और तीन चार दिन की छुट्टी। शारीरिक-मानसिक कमज़ोरी हुई सो अलग। 

नियमित प्रबंधन की पूर्ण ज़िम्मेदारी सासु माँ पर। लो अब मज़ा! ज़्यादा के चक्कर में रागिनी का आधा ही सही जो सहयोग था, अब सब गया। 

मध्य जून की गर्मियों में माँ-बेटी को ले जाने के लिए राजीव आया है। जेठानी और देवरानी अपने-अपने मायके से लौट आईं हैं। तो जेठानी ने करुणा को खेलाने के बहाने व्यंग्य किया, “माँ-बेटी प्रसूति सँभालने के डर से भागी जा रही हैं ना?” 

रागिनी की अनुपस्थिति में प्रसूति को सँभालने में पड़ने वाले बोझ पर विचार कर, सवाल भी कौन उठा रही थी? जो पल्ला झाड़ने के लिए, हमेशा कहा करती थी; “मेरा जब कोई नहीं सँभाला है; तो मैं भी किसी का सहयोग क्यों करूँ?” 

अविश्वास और नकारात्मकता में जीने वाली स्त्री! अविचारे कैसे कह लेती थी? ये तो मात्र वही जानेंगी। रागिनी के आने तक वह तीसरे बच्चे के लिए गर्भवती थी। महारानी बन कर घर-घुमनी बिल्ली बनी इधर-उधर मात्र घूमने और अपने बच्चों के लिए क्रियाशील रहती थी। 

जेठ-जेठानी के व्यवहार में ढिठाई की भी हद थी। ना शारीरिक सहयोग, न मानसिक सहयोग और ना ही आर्थिक सहयोग! बावजूद लड़-झगड़ कर अपना झंडा बुलंद! और उस पर एक और जादू! अपनी कूटनीतिज्ञ प्रभाव से रागिनी को ही दुश्मन साबित करने का प्रयास रहता। 

किसी न किसी बहाने से रागिनी के समय में तो जेठानी-देवरानी दोनों ने पल्ला झाड़ा था। उसी को याद कर, उनका अब अपने दिमाग़ का ख़ुराफ़ात जागा था। 

“बिना सँभाले जा रही है तो कौन सँभालेगा?” बार-बार एक ही सवाल उठाकर। जाने में अवरोध उत्पन्न करने के लिए जून में ही भावी अक्टूबर की चिंता जताई जा रही है। 

हालाँकि कहने के लिए रागिनी के पास बहुत कुछ है। पर शिष्टाचार और अनुशासन की दृष्टि से समय पर छोड़ कर, मौन रहकर देखने और समझने में ही समझदारी है। 

विचार कर, हँसते हुए रागिनी ने जवाब दिया, “जब ज़रूरत होगी, यहाँ आ जाएगी माँ-बेटी! अभी तो नहीं है ना?” 

नये जगह संबंधित अन्य लोगों की जिज्ञासा शान्त करते हुए बता रहा था राजीव! “वो अभी पहले से भी और लम्बी दूरी है। जहाँ अभी जाना है। सदाबहार जंगलों से घिरा, कोरोमंडल तट पर बसा हुआ एक गाँव है। मकान से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर समुद्र है। लगभग नौ-दस महीने की वर्षा होती है वहाँ। काजू की खेती ख़ूब होती है।”

“तब तो बहुत सस्ती होगी वहाँ। आते समय हमेशा दो-चार किलो हमारे लिए भी लेते आइएगा भैया!” भैया-भाभी जा रहें हैं तो मिलने आई, रास्ते की तैयारियों के लिए नमकीन छानती हुई, अल्हड़ बहन ने विकेट मारते हुए कहा। 

हावड़ा रूट होते हुए कोरोमंडल एक्सप्रेस से, चेन्नई से मंगलोर एक्सप्रेस से रात की यात्रा है। उत्तर भारत में, जून की तपती गर्मी भले ही थी, पर दक्षिण भारत का केरल अपनी बरसाती दृश्य-परिदृश्य के लिए जगत प्रसिद्ध है। धान, सुपारी, नारियल और केले की प्रमुख फ़सलों के साथ, गर्म मसालों एवं फूलों जैसे अन्य नक़दी फ़सलों के दूर-दूर तक खेत-खलिहानों के बीच में आर्थिक और प्राकृतिक सम्पन्न एक छोटा सा घर! 

भारत के पश्चिमी तट पर बरसाती बूंँदों ने रागिनी और करुणा का स्वागत किया। खेतों में जहाँ-तहाँ जमा जलराशि और उनमें कहीं-कहीं धान के बिहन, तो कहीं रोपित फ़सल! . . . कहीं ख़ाली खेत! फ़सलें मख़मली चादर सी बिछी लग रहीं। ख़ाली खेत मढ़े हुए आईने की तरह चमक रहे हैं। पटरियों के किनारे तो कहीं दूर . . . निचले स्तर की भूमि का जल जमाव कृत्रिम, कहीं प्राकृतिक तालाब का रूप लग रहा। उन सब के बीच तो कहीं दूर, कहीं पास यत्र-तत्र हरे-भरे वृक्ष सघन तो कहीं सामान्य औसतन रूप में लता-झाड़ियों के साथ खड़े शान्त लग रहे हैं। धान के खेतों में बगुलों की चौकसी, तो कहीं व्यस्त कृषक! 

ईख की फ़सल के साथ नारियल और ताड़ के पेड़ों की खड़ी क़तारें, उन्नत छतरीनुमा पत्तियों वाले वृक्ष स्वप्निल संसार रच रहे हैं। जन-जीवन में कठोर अरबी, इस्लामी समाज का प्रभाव व्याप्त दिखाई देता। जिधर देखो स्त्रियाँ और बच्चियांँ काली बुर्क़े में परछाइयों की तरह घूमती। 

करुणा देख कर, ‘भूत’ कह कर अपनी माँ से चिपक जाती। सवा दो साल की बच्ची को मुहल्ले के बच्चों ने एक नये शब्द का परिचय कराया था “भूत“! कुछ भी अप्रत्याशित, अपरिचित दिखाई देता तो झट से भूत कह कर वह अपनी शब्दकोश को प्रकट करती। 

बहुत तेज रफ़्तार में चलती ट्रेन से, राजीव ने इंगित किया, “वो देखो समुद्र दिखाई दे रहा।”

“यहाँ के रोम-रोम का सचमुच अद्भुत सौंदर्य है,” भावाभिभूत रागिनी के शब्दों में फूटा। 

स्टेशन पर उतर कर रागिनी को चारों तरफ़ दिखाते हुए अपने ऑफ़िस के बग़ल वाले वेटिंग रूम में ले गया। अँग्रेज़ों के जमाने का जहाँ एक पुराना टेबल था। जिसकी दो फ़ीट की चौड़ाई के साथ, तीन-साढ़े तीन फ़ीट की लम्बाई थी, को दिखाते हुए कहा, “देखो-देखो मैं इसी पर लगभग एक सप्ताह तक सोया हूँ। क्या तुम्हारे लिए ये सम्भव हो पाता?” 

स्टेशन से लगभग एक-डेढ़ किलोमीटर अंदर गाँव के किसी घर में किराएदार रूप में आई थी। बाल सुलभ जिज्ञासा लिए रागिनी और करुणा, आश्चर्यचकित चारों तरफ़ की हरियाली और सौंदर्य को निहारती हुई पहुँची थी। 

जो लगभग तीन से चार एकड़ तक फैले ज़मीन में सघन, विस्तृत पेड़ों के बीच में था। छोटा-सा घर एक जोड़े के लिए पर्याप्त था। जैसे-तैसे, लाए-गए जिसमें सारे सामान वैसे ही पैकिंग किए हुए रखे हुए हैं। जो राजीव के अपरिपक्व पुरुष रूप में दूसरी बार की पहचान है। 

पहली बार में, प्रत्येक वस्तु पालघाट में भी तो वैसे ही पड़ी हुई थी जिसे रागिनी आते ही एक-एक करके सब कुछ व्यवस्थित कर के घर का रूप दे दिया था। अपनी उम्र और अवस्था के अनुसार अनुभवी व्यवहार से यहाँ फिर से आगे की गृहस्थी बसानी है। 

वहाँ के अन्य स्थानीय निवासियों में किसी न किसी कार्यक्षेत्र की विवशता के कारण बग़ल में अन्य और भी किराएदार थे। 

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