रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 46
जैसा कि पहले ही चर्चा हो चुकी है कि राजीव के पास टीवी तो था जिसमें डीवीडी प्लेयर की सहायता से मनोरंजन के लिए फ़िल्में और गाने देखते-सुनते थे। वहाँ हिंदी अख़बार की कोई गुंजाइश ही नहीं थी तो जानकारी के लिए अंग्रेज़ी का अख़बार ‘द हिंदू’ पढ़ कर देश-दुनिया की ख़बर प्राप्त करते थे।
रागिनी के अतिरिक्त अन्य सभी के यहाँ दिश नेटवर्क उपलब्ध था। जिसमें से सुबह-सुबह डीडी न्यूज़ की संस्कृत भाषा में आने वाले समाचार के नियमित दर्शकों में जया अक्का भी थी। टीवी की आवाज़ इतनी ऊँचे स्वर में होती कि रागिनी भी बहुत ध्यान से सुनती। सच कहा जाए तो अनजानी भाषा-संस्कृति के बीच में इस तरह से संस्कृत भाषा में समाचार सुनकर बहुत ही ज़्यादा अपनत्व भरा भावनात्मक अहसास उभरता। एक ढ़ाढस मिलता अपने आप में कि किसी बाहरी दुनिया में नहीं बल्कि वह अपने देश में ही हैं।
मुम्बई के छब्बीस ग्यारह की दुर्घटना के बारे में ख़बर सुबह-सुबह रागिनी को उसी संस्कृत समाचार के माध्यम से सुनाई दिया। जिससे वह दौड़ी हुई आई और वहीं दरवाज़े के चौखट पर बैठ कर देखने-सुनने लगी। मलयालम या कन्नड़ भाषा तो उसकी समझ से बाहर थी पर दृश्यों की विकट असंवेदनशीलताओं को देखकर आसानी से समझ आ रहा था कि आज बीती रात में क्या, कुछ, कितना भयंकर दु:स्वप्न बन कर गुज़र गया है। जीवंत संघर्ष का सजीव प्रसारण बन कर अभी भी वर्तमान संदर्भ में जारी था।
“हे भगवान! मिडिया चैनल वाले ये क्या कर रहे हैं? ऐसे सीधा प्रसारण होने से तो आतंकियों को सब पता चल जाएगा और नकारात्मक शक्तियों के लिए सहायक पक्ष बन जाए गया। इसका सुरक्षाकर्मियों के लिए बहुत ही घातक असर पड़ सकता है। ये तो देशविरोधी गतिविधि हुआ। अरे यार मुझ जैसे को सीधा प्रसारण का नफ़ा-नुक़्सान पता चल रहा है पर ये कौन हैं वो बेवुक़ूफ़ जो इतना भी समझ नहीं पा रहे हैं? मुख्य जन-प्रतिनिधियों और लोक-प्रशासकों को हे ईश्वर सद्बुद्धि दो।”
अति बेचैनी में हाथ मलती हुई, दाँत किंचती हुई विचाराधीन रागिनी कभी अपने सिर पर हाथ रख कर चिंतित-परेशान होकर देख रही थी। मारे गए लोगों की बढ़ती संख्या सभी चैनल अपने-अपने हिसाब से प्रसारित कर रहे थे। कितना भयंकर दृश्य! रेलवे स्टेशन से लेकर अस्पताल . . . ताज होटल! . . .
ट्राइटेंड होटल! नरीमन हाउस! . . . लियोपोल्ड कैफ़े! . . . विले पार्ले इलाक़ा! सभी जगह की वीभत्स, बेचैन करने वाली मीडिया कवरेज टेलीविज़न के दृश्य-पटल (स्क्रीन) पर दिख रहा था।
अपनी माँ के साथ गोद में बैठी करुणा भी कभी टीवी स्क्रीन, कभी अपनी माँ का दुःखी भावुक अश्रुपूरित चेहरा देख कर आँसू पोंछ रही थी। कहीं कुछ ग़लत-अनहोनी का अनुभव करती हुई सहभागिता प्रर्दशित करती हुई अपनी माँ के सीने से चिपकी हुई वह बहुत-बहुत शान्त थी।
“हे ईश्वर! विनाश अब बंद करो। बहुत ज़्यादा हो गया इतना।” मन ही मन प्रार्थना करती हुई रागिनी अपने अन्य कामों को निपटाने के बाद पुनः बैठ जाती। ”काश अब सारे आतंकी मारे और पकड़े जा चुके हों। काश सारे बंधक छुड़ाए जा चुके हों।”
इस प्रकार जब तीन दिनों के संघर्षों में कुछ बचाव सुरक्षाकर्मियों की शहादत के साथ 29 नवंबर को जैसे ही 300लोगों को घायल करते हुए अन्य 160 लोगों के मारने वाले उन नौ आतंकियों को ढेर करते एवं एक आतंकी अजमल कसाब को जीवित पकड़ते हुए मिशन समाप्ति की घोषणा हुई तभी पूरे देश के साथ-साथ रागिनी भी राहत की साँस ले पाई।
सच कहा जाए तो हर प्रकार के लोग हर जगह मिलते हैं। जो अपनी बातों से अपना अलग-अलग अनुभव व्यक्त करते हुए अपने मन-मानसिकता का प्रभाव दे जाते हैं।
रागिनी, अक़्सर अकेली ही करुणा को लेकर अस्पताल वग़ैरह का काम निपटाती थी। जिसमें उसके हिंदी भाषी होने पर स्थानीय लोग रागिनी से पूछते, “राजस्थानी मीना हो क्या? वही लोग आरक्षण के बल पर पूरे भारत में हैं।” यही सवाल सरकारी अस्पताल के मुख्य चिकित्साधिकारी ने भी उछाल दिया था।
“जी मैं झारखण्ड से हूँ।”
“वह कहाँ है?”
“महेंद्र सिंह धोनी को आप जानते हैं ना? वही राँची, झारखण्ड! बिहार!”
(झारखण्ड अपने अस्तित्व के सात-आठ वर्षों बाद भी दक्षिण भारत के जन-मानस में स्थान बना नहीं पाया था। वहाँ केरल में रागिनी ने अनुभव किया था।)
“अच्छा! अच्छा! . . . बिहार? . . . लालू के गाँव से आए हुए हो?”
“पैसा लेकर सबको रेल में नौकरी दिया है लालू? अपने आसपास के लोगों से कहते हुए, अरे एक नम्बर का चोर है साला! . . . पूरा रेल को डूबा दिया है। पक्का एक नम्बर का . . .॥&&&॥ है।”
उनके आसपास के क्षेत्र का जनप्रतिनिधि क्या है? कैसा है? जिनसे ना व्यक्तिगत, ना पारिवारिक, ना सामाजिक परिचय? उसके सही-ग़लत निर्णय का हिसाब-किताब का स्टाम्प हज़ारों किलोमीटर दूर एड़ियाँ रगड़ कर पहुँचे हुए किसी आम आदमी पर थोपना? है ना विचित्र? पर यह एक कठोर सच्चाई भी तो है यदि हम कभी भी, किसी स्वार्थ के तहत भ्रष्ट नेता को चुनते हैं, मतलब वहाँ की जनता भ्रष्ट है तभी तो? उसके भ्रष्टाचार और पाप का कलंक उसके परिवार पर लगे ना लगे एक-एक आम आदमी जन-मानस जो बिहार से बाहर, कहीं भी हो उसके सिर और कंधों पर उस बदनामी का बोझ चाहे-अनचाहे ढोना ही पड़ता है। कालिख अपने माथे पर अनुभव करके पोंछना ही पड़ता है।
जिसे यथासंभव रागिनी को स्पष्ट करना पड़ता। हालाँकि किस-किस को सफ़ाई देती फिरती? बावजूद यह एक विराट यक्ष प्रश्न था। जिसका सामना चाहे-अनचाहे उन दोनों को कई बार करना ही पड़ जाता था। कई विस्तृत मन-मानसिकता के बीच बैठे संकुचित मानसिकता की दुर्भावना का शिकार बनकर वह सोचने पर विवश हो जाती। राजीव उसे समझाते हुए अनदेखा करने का सलाह देता।
करुणा का प्रभाव तो वहाँ के सामाजिक और पारिवारिक जीवन में था ही अब विद्यालय में अपने कक्षा की भी सरदार थी।
लम्बी गूँथी हुई चोटियाँ, गन्दे बिखरे बालों में बदल जाते। साफ़-सुथरी बेटी धूल मिट्टी की गंदगी में सराबोर मिलती। रोज़ाना वह ख़ुद कहीं, उसके सारे सामान कहीं और किसी के पास मिलते। हद है यार! . . . प्रथम दृष्टया इतना ज़्यादा करुणा का परिवर्तित रूप देख कर खीझ, झल्लाहट उभरता। पर करुणा की निष्पाप विजित मुस्कान देखकर अपना क्रोध कोई भी भूल जाता।
एक दिन गोद उठा कर ज़बरदस्ती स्कूल ले जाते समय विशाखा और विंशी के घर में पालित-पोषित बतखों-मुर्गा-मुर्गियों और पैंतीस-चालीस उनके रंग-बिरंगे चूज़ों को स्वतंत्र विचरते, दाना चुगते देखकर करुणा का दर्द उभरा, “ऐ मुग्गा-मुग्गी तुम कूल नहीं जाते ना। मेरी माँ ले जाती है . . . मुझे नहीं जाना . . . घर अच्छा! कूल गंदा . . . टीचर गंदी! . . .”
“और तेरी माँ भी गंदी! है ना बेटा?” रागिनी ने टोकते हुए कहा।
“नहीं, तुम अच्छी हो माँ! बहुत अच्छी हो।” मुर्गे-मुर्गियों को देखकर संकेत करते हुए “वो कूल नहीं जाते ना माँ?”
“जाते हैं बेटा! जिस दिन तुम जाती हो वह भी जाते हैं। जब तुम नहीं जाती हो वो भी नहीं जाते। वो कहते हैं करुणा नहीं गई है स्कूल तो हम भी नहीं जाएँगे। तुम स्कूल चलो तो उनकी माँ भी लेकर जाएँगी।”
“ठीक है तुम मुझे लेने जल्दी आ जाना। नहीं तो मैं रोने लगूँगी और पढ़ूँगी भी नहीं।
स्कूल में स्लेट पर पेंसिल से लिखने के लिए मलयालम का अ लिख कर दिया गया था। वह उस पर मस्ती में गोलाकार बना कर किए जा रही। किए जा रही।
शिक्षिका ने पूछा, “क्या लिख रही?”
“अ . . .। अ . . .। अ!”
“इसमें अ कहाँ है?”
“है ना। इसके अंदर।”
सभी उसकी हाज़िर जवाबी पर हँस रहे थे।
एक दिन अपने घर में अ के जगह पर उसी तरह अनवरत गोलाकार लिखे जा रही थी। जिसे देखकर विशाखा पूछ बैठी, “क्या लिख रही करुणा?”
“अ लिख रही हूँ मैं!”
“इसमें अ कहाँ है? ये तो घोंसला है।”
“अच्छा . . .घोतला . . . घोतला! . . . रटने लगी।
उसके बाद तो जब भी पूछा जाए कि क्या लिख रही हो?
तो नन्हे हाथों को गोल-गोल घुमाते हुए प्यारी मुस्कान के साथ जवाब मिलता . . . ”घोतला बना रही हूँ।” स्कूल छुट्टी रहने पर वह बहुत ख़ुश रहती।
अब दोपहर की टिफ़िन ब्रेक के बाद भी स्कूल में रहने लगी थी। अपने हाथों से उसे खाना खाने के लिए सीखना था। जो काम घर पर पर्वत रूप में था वह स्कूल में अपने समवयस बच्चों के साथ थोड़ा-थोड़ा खाने लगी।
तीसरे जन्मदिन पर बाहरी दिखावे से दूर माता-पिता ने स्कूल की संस्था में दान करने का विचार किया। छोटे बच्चों के लिए संचालित सामाजिक कल्याण में ही आवश्यक सामग्री की सूचना मांँग ली थी। निर्देशानुसार वस्तुएँ ख़रीद कर राजीव द्वारा दे दिया गया। सभी नन्हे-मुन्ने बच्चों के लिए दोपहर के भोजन में पौष्टिक आहार रूप में स्कूल की रसोई में करुणा के जन्मदिन के उपलक्ष्य में खीर बना दी गई।
अति उत्साह और मस्ती में नया कपड़ा जो पहना कर भेजा गया था खींच-तान में फाड़ कर खोंच लगा उद्घाटन के साथ हमेशा की तरह समापन भी कर दिया था। उसकी हालत देखकर रागिनी सिर पीटने लगी। हे ईश्वर! . . . ये क्या हुआ भगवन।
<< पीछे : नन्हा बचपन 45 आगे : नन्हा बचपन 47 >>विषय सूची
- नन्हा बचपन 1
- नन्हा बचपन 2
- नन्हा बचपन 3
- नन्हा बचपन 4
- नन्हा बचपन 5
- नन्हा बचपन 6
- नन्हा बचपन 7
- नन्हा बचपन 8
- नन्हा बचपन 9
- नन्हा बचपन 10
- नन्हा बचपन 11
- नन्हा बचपन 12
- नन्हा बचपन 13
- नन्हा बचपन 14
- नन्हा बचपन 15
- नन्हा बचपन 16
- नन्हा बचपन 17
- नन्हा बचपन 18
- नन्हा बचपन 19
- नन्हा बचपन 20
- नन्हा बचपन 21
- नन्हा बचपन 22
- नन्हा बचपन 23
- नन्हा बचपन 24
- नन्हा बचपन 25
- नन्हा बचपन 26
- नन्हा बचपन 27
- नन्हा बचपन 28
- नन्हा बचपन 29
- नन्हा बचपन 30
- नन्हा बचपन 31
- नन्हा बचपन 32
- नन्हा बचपन 33
- नन्हा बचपन 34
- नन्हा बचपन 35
- नन्हा बचपन 36
- नन्हा बचपन 37
- नन्हा बचपन 38
- नन्हा बचपन 39
- नन्हा बचपन 40
- नन्हा बचपन 41
- नन्हा बचपन 42
- नन्हा बचपन 43
- नन्हा बचपन 44
- नन्हा बचपन 45
- नन्हा बचपन 46
- नन्हा बचपन 47
- नन्हा बचपन 48
- नन्हा बचपन 49
- नन्हा बचपन 50