रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 24

करुणा की एक विशेषता, अद्भुत थी कि जहाँ इस घर में सभी कलह प्रिय थे; वहाँ वह किसी को ऊँची आवाज़ में बात करते, देखती-सुनती तो सबसे पहले ग़ौर से भावभंगिमा पढ़ने का प्रयास करती। संभवतः यह मान कर कि शोरगुल हो रहा या झगड़ा हो रहा तो डरकर रोने लगती बहुत ध्यान से आमने-सामने वाले की मुख-मुद्रा और हाव-भाव का निरीक्षण-परीक्षण वाला भाव, बहुत ज़्यादा बुद्धत्व वाला प्रतीत होता। रागिनी इसलिए करुणा को हमेशा शोरगुल से दूर रखती। 

दूसरी विशेषता थी कि कहीं धम्म या फट्ट की आवाज़ आई। पेट के बल लेटे हुए, सिर या मुँह पटकने पर, बैठने-बिठाने की कोशिश में टकराहट या हाथ-पैरों को हिलाते-डुलाते कहीं चोट लगती और कुछ सेकेण्ड तक शान्ति छाई रहती उसके उपरान्त कोई रुदन स्वर प्रस्फुटित होता अर्थात्‌ इसका सम्बन्ध करुणा से ही है। वह जिसे चोट लगी। बिना देखे ही उसकी माँ रूप में रागिनी समझ जाती। बच्ची करुणा को कुछ क्षण आकलन करने में लग जाते कि आख़िर उसके साथ हुआ क्या? उसके बाद वह रोना प्रारंभ करती। झट से रागिनी को संकेत मिल जाता। वह उसके पास दौड़ती। 

फोटो खींचनेवाले कैमरे के फ़्लैश लाइट्स की चमक चाहे जिधर से डालो वह उधर देखती हुई मुस्कुराने लगती। इसलिए किसी भी कारण से रोती बच्ची को हँसाने के लिए कैमरे की लाइट्स डाल कर रागिनी जैसे ही फोटो खींचने लगती या दिखावा करती तो करुणा रोना भूलकर, मुस्कुराहट बिखेरने लगती। 

हरी-भरी पेड़ों की डालियों को देखकर बहुत ख़ुश होती। एक बूँद आँसू ढुलकने के पहले एक फूल, एक पत्ती भी मिल जाने पर रुदन, अकस्मात् थम कर हास में परिवर्तित होने लगता। वह सब-कुछ भूल कर देखने लगती। 

पढ़ाई के नाम पर रागिनी को आगे पढ़ने पर मनाही थी। उसके भावनात्मक संघर्षों को देखते-समझते हुए बी.एड. करने की स्वतंत्रता मिली। मायके में रहकर तैयारी करने देने के पक्ष में सासु माँ नहीं थी। सो ससुराल में रहते हुए कोशिशों में लगी हुई थी। जिसके लिए एंट्रेंस परीक्षा निकालनी ज़रूरी है। नन्ही बच्ची के साथ जब भी पढ़ाई में व्यस्त होती; कुछ ना कुछ गड़बड़, बेटी के लिए स्वास्थ्य समस्या बनकर उभरने लगती। 

होता ये कि घरेलू कामों को निपटाने के साथ रागिनी देर तक पढ़ने के बाद थकी-हारी गहरी नींद सोती। बच्ची के बिस्तर गीला होने पर नींद नहीं खुलने से, करुणा को सर्दी-खाँसी, बुख़ार झट से पकड़ लेता। जिसके कारण रागिनी का ध्यान भटकता। 

आत्म-ग्लानि होने लगती। पढ़ाई के प्रति समर्पित होने पर बेटी के प्रति थोड़ा-बहुत असंतुलन होने लगता। बेटी के प्रति समर्पित रहती तो पढ़ाई-लिखाई का पलड़ा असंतुलित होने लगता। हालाँकि भरपूर कोशिशों के बावजूद भी भाग्य, स्थिति और परिस्थितियों की विसंगतियों के परिणामस्वरूप रागिनी का बी.एड. डिग्री अब तक आकाश-कुसुम रूप में है। 

हमेशा क्रियाशील रहने वाली करुणा, राजीव की अनुपस्थिति में रागिनी के लिए घरेलू कामों के अतिरिक्त बहुत बड़ी मनोरंजन और व्यस्तता का माध्यम रहती। रागिनी भी अपना सम्पूर्ण समय और ममत्वपूर्ण समर्पण उसके प्रति रखती हुई जागरूक रह कर लालन-पालन कर रही थी। चाहे कुछ भी हो जाए दिन भर में चार से पाँच बार तेल मालिश करती। 

दादी घर में तो और भी बच्चे थे। करुणा अपने नानी घर में पहली संतान थी जिससे अपनी मौसियों की अकेली खिलौना थी। उसकी प्रत्येक गतिविधि मौसियों के लिए आकर्षण का केंद्र-बिंदु होता। सभी अपने-अपने हिसाब से उसके लिए कुछ ना कुछ करने को तत्पर रहते। 

रागिनी की एक कमज़ोरी थी; उसे बच्चों का अतीव रोना बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता था। हल्की चोट-चपेट पर रोता बच्चा, माँ के दूध और प्यार-पुचकार से मान जाए तो ठीक वरना रागिनी के लिए घबराहट की स्थिति बन जाती। वह घबराकर रोने लगती। ईश्वर की कृपा से करुणा इस मामले में बहुत-बहुत सहायक रही। वैसी स्थितियाँ बहुत मुश्किल से दो-तीन बार आईं और सँभल गईं। 

एक बार की बात है। लगभग एक महीने की नन्ही करुणा को शाम की ठंडक से बचाने के लिए शॉल ओढ़ाकर रागिनी ने गोद में लेना चाहा। अँधेरे में शॉल की झालर, बच्ची की कोमल आँखों में लगी और बच्ची बेतहाशा रोने लगी। स्थिति समझ से परे रागिनी के लिए कि आख़िरकार हुआ क्या? क्षुब्धता और आत्म-ग्लानि में भर कर अपनी बेटी को गोद में लिए दुखित होकर वह भी रोने लगी। उसके बाद वह सदैव तत्पर रहती कि ये भूल दुबारा न हो। फिर क्या? रागिनी द्वारा सारे झालर-मालर, सितारे-गोटे वाले कपड़े समेट कर एक तरफ़ हटा दिए गए। 

सादगी तो हमेशा से रागिनी की स्वाभाविक आदत थी। परन्तु बेटी के लिए अब तो कच्चा दूध या दूध की मलाई भर थोड़ी-सी ही वह अपने चेहरे और हाथों में लगाती ताकि बच्चे के लिए नुकसानदायक केमिकल का संपर्क ना हो। नींद खुलने के साथ करुणा, माँ को जगाने के लिए नोंचना शुरू कर देती। आँखों में ऊँगली डाल कर जगाती। थपकिले हाथों से थपाक-थपाक गालों पर मारकर जगाती। 

हाँ तो इधर बात चल रही थी; राजीव की छुट्टियाँ ख़त्म होने वाली थी। उसी रात ट्रेन से जाने वाला था। लगभग एक सप्ताह के दरम्यान अन्य ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ माँ के दबाव में, अन्य रिश्तेदारों के यहाँ भी जाना पड़ा। जिससे रागिनी और बेटी के साथ समय बिताने का सीमित समय मिला था। जिस ग्लानि की क्षतिपूर्ति करने के लिए देवी मंदिर जाकर, प्रसाद चढ़ाकर, मन्नत पूरी करके, आने के बाद राजीव ने कहा, “शाम को एक-दो जगह दुर्गा-पूजा घूमाने की योजना है मेरी! इसलिए समय पर माँ-बेटी तैयार रहना। वरना सोचती रह जाना।”

शाम को एक दुकान पर ले जाकर; दबाव डालते हुए राजीव ने रागिनी को छोला-चाट खाने की ज़िद की। बार-बार इनकार करने के बावजूद भी रागिनी को विवश हो कर ये सुनकर खाना पड़ा, “अरे यार बड़ी नखरे करती है तू!” लौटकर आने के बाद थके-हारे सभी सो गए। ख़राब गुणवत्ता वाले छोले खाने के कारण कई बार उल्टियाँ-दस्त के साथ रागिनी पर विषाक्त भोजन का असर शुरू। अपनी ग़लती मानकर राजीव को यह कहकर उल्टियाँ साफ़ करनी पड़ीं, “रहने दो माँ, मैं सब कर दूँगा! तुम सोने जाओ।” 

नियत समय पर ट्रेन थी। उल्टी-दस्त से पस्त रागिनी को सोता देखकर, बिना किसी आवाज़ के अगली छुट्टी तक की अवधि के लिए राजीव घर से निकल पड़ा। 

तब तक के लिए मात्र फोन पर ही दो-चार मिनटों की औपचारिक हाल-चाल। 

पत्नी से प्रतियोगिता करती, माँ की ईर्ष्या भाव भरे चक्रव्यूह में अन्य रिश्तेदारी निभाते; अकेले घर-परिवार से दूर इसी तरह वनवास भुगतते; सीमित समय में आते-जाते राजीव, अपने दो साल की ट्रेनिंग अवधि में से लगभग पौने दो साल तक का जीवन बिताया। जहाँ से कहानी की शुरूआत हुई थी। 

“क्या माँ! आप भी इतनी जल्दी कहानी ख़त्म कर रही और भी कुछ बताइए ना! हमें और भी जानना-सुनना है। 

“जब आपको बी.एड. करनी थी तो क्यों नहीं की? स्कूल क्यों छोड़ दिया? अपनी पढ़ाई और अपनी योग्यताओं को क्यों बर्बाद किया?” 

सुनकर प्यार से मुस्काती हुई बोली, “ताकि मैं अपना समय और सारा प्यार माँ रूप में अपनी राजकुमारियों को दे पाऊँ इसके लिए।”

“और भी बताइए।” 

उत्सुक बेटियों की ज़िद पर बोली, “अच्छा बाबा और भी बताऊँगी एक-एक करके ज़रा याद तो करने दो।”

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