भ्रम

पाण्डेय सरिता (अंक: 219, दिसंबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

“कई बार जो जैसा दिखता है वह वैसा होता नहीं है” वाली कहावत सुनी है। जिससे सिद्ध होता है कि लोकसेवा की भी कोई सीमा होती है। कोई ‘बेचारा’ चेहरे से हो वह वास्तव में भी हो ज़रूरी तो नहीं। 

कोचिंग ख़त्म हुई थी। घर वापसी के क्रम में रास्ते के एक किनारे पर इंजीनियरिंग के हट्टे-कट्टे विद्यार्थी शेर के समूह की तरह किसी मेमने की तरह एक दुबले-पतले लड़के को घेरकर झपटने को तैयार खड़े थे। वह ख़ुद को असहाय अकेला पाकर मिमिया रहा था। 

उस कमज़ोर लड़के को अकेला घिरा देखकर बहुत ही बेचारगी लग रही थी। 

ख़ुद को ‘सुपर’ बालिका समझने वाली सोलह वर्षीया लड़की रिम्मी का आत्ममन कह रहा था कि चलकर लड़के की मदद की जाए, बेचारा! . . . ‘कौन है रे मेरे भाई को धमकाने वाला? मेरा भाई ऐसा-वैसा नहीं है। तुम लोगों से ग़लती हुई है। चल भाई . . . चल घर चलते हैं,’ कहकर बचा ले वह! 

फिर एक मन सतर्कतापूर्ण चेतावनी दे रहा था ‘चल निकल ले यार! कहीं ऐसा ना हो कि वो बेचारा दिखनेवाला वास्तविकता में बदमाश हो और उल्टे में बचाव करने वाली ही मैं फँस जाऊँ?’ 

विचार करके रुक गई और घर के लिए निकल गई। 

खाते-पीते, सोते-जागते, पढ़ते-लिखते उस बेचारे की बेचारगी आँखों पर तैरती रही। बहुत बुरा लग रहा था कि उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाई। 

फिर यह भ्रम टूटा। अगली शाम ट्यूशन पहुँच कर रिम्मी देखती है—ट्यूशन बिल्डिंग के नीचे कल का वह ‘बेचारा’ फुदक-फुदक कर चुनौती दे रहा था। उसके साथ मरियल लड़कों की पूरी टीम हाज़िर थी। जिनके हाथों में लाठी-डंडे और बेल्ट थे। गाली-गलौज के साथ भरपूर चुनौती देता वह! 

पूरा माहौल तनावपूर्ण था। स्थिति नियंत्रण के सारे स्टाफ़ भाग-दौड़ कर रहे थे। सारे नवयुवकों को एक तरफ़ समेटने के लिए चार फ़ीट की मैम छह फुटिया विद्यार्थियों को डाँट कर मोबाइल छीनकर एक कमरे में बंद कर रही थी। मुहल्ले के लोग फ़िल्मी शूटिंग देखने जैसे मूकदर्शक होकर, जो जहाँ थे; कुछ खुले में कुछ खिड़की-दरवाज़ों से देख रहे थे। 

‘हे भगवान! कल मैं इसी की बहन बन कर बचाने जा रही थी। आज मेरी ख़ैरियत नहीं रहती। अच्छा हुआ जो मैं बच गई।’ 

घर पहुँच कर माँ को सुना कर ख़ूब हँसी। अब जब भी याद आती है एक सबक़ मान, पेट पकड़ कर हँस लेती है। वह तनावपूर्ण स्थिति ख़ुद पर व्यंग्य प्रतीत होता है। 

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