रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 18माँ-बेटी की आवश्यकताओं के प्रति पूर्ण जागरूक और समर्पित रूप में राजीव अपने वादे के अनुसार नियमित दिनचर्या में लग गया था। रागिनी बेटी के लिए कपड़े की नैपी और बिछावन बनाने में लगी थी।
जिसके लिए भी राजीव सारी व्यवस्था करने में मददगार लगा हुआ था। समय मिलने पर सूई-धागे से सिलाई भी कर देता। “लाओ, लाओ तुमसे बेहतर मैं सिलाई जानता हूँ। माँ के लिए कभी-कभी करता था मैं! तुम बस बता दो क्या और कैसे करना है?”
जिससे सास-ननद का अनावश्यक बोझ तो कम हुआ पर एक स्त्री सुलभ ईर्ष्या भाव उदित होकर हावी हुआ कि एक पति रूप में वह अपनी पत्नी का ग़ुलाम होकर रह गया है। जिसे बातों और व्यंग्य रूप में ज़ाहिर करने से नहीं चूकतीं। दामाद, उनकी बेटी की ग़ुलामी करे तो ख़ुशनसीबी! पर बेटा करे तो सबसे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति मान माँ-बेटी की जल मरने वाली स्थिति में थी।
जो पैसे श्वेता की बेटी जन्म समय मायके से आर्थिक मदद दी गई थी; वो पैसे लेकर, उसमें कुछ और पैसे जोड़ कर, बच्ची के भविष्य के लिए जमा करने की इच्छा, बेटी अपनी माँ पास जताई।
माँ, राजीव पास आकर उस विषय पर विचार-विमर्श कर रही थी तभी बीच में चहकती हुई श्वेता बोली, “ए भैया आपकी नौकरी ज्वाइनिंग होने के बाद, मेरी बेटी के नाम से हर महीने पैसे जमा कर देना। हमारी बेटी का ब्याह तो सामाजिक रीति-रिवाज़ों से ही होगा जिसमें बहुत ज़्यादा ख़र्च बैठता है। कहाँ से आएँगे पैसे? आपकी बेटी तो अपनी माँ की तरह अपनी पसंद के लड़के से शादी कर लेगी। जिसके लिए आपको तो चिन्ता करने की ज़रूरत है ही नहीं।”
भाई पर बहन का अधिकार कब, क्या कितना है . . .? इस समाज में इस विषय पर तो कभी कोई प्रश्न ही नहीं . . . पर बड़े भाई से इस तरह की बात . . .? इस बात की चोट क्या और कितनी है? क्या वो समझ भी पाई होगी? वहीं पर माँ और भाई-भौजाई के सामने वह बोल कर भूल भी गई होगी।
एक त्रिकाल सत्य बेटी और बहन रूप में बचपना मान कर, माँ-भाई के लिए भूलकर पचा जाना अति सहज भी है। पर एक दरार रागिनी के मन में आई जिसे वह निर्भय होकर स्वीकारती है। चाहे जिसे भी बुरा लगे वो समझता रहे।
मूर्खता की चरम हद . . .!
जी में आया कि सुना दे ननद को, “प्रेम विवाह यूँ ही नहीं होता किसी का, इसके लिए शक्ल और अक़्ल दोनों योग्यतम ईश्वरीय वरदान चाहिए। योग्यता ओर क्षमता होने पर ही कोई पुरुष प्रभावित होता है ननदरानी। ना कि यूँ ही।”
पर भाई ने इस मौखिक तमाचे को अनसुना और अनदेखा किया है तो स्थिति और बात की संवेदनशीलता सोच-समझ कर रागिनी मौन टिस सँभालती रह गई।
दिमाग़ कौंधता रहता। वह विचारती रही, “हक़-अधिकार और स्वार्थ की भी एक सीमा है। जिस तरह आप इस घर की बेटी हैं; मेरी बच्ची ने भी इस घर की बेटी रूप में जन्म लिया है। जितना आपका मान-सम्मान और मर्यादा है; उतना ही मेरी बेटी की भी है। अभी चार दिन जन्म लिए हुए नहीं और सगी फूआ होकर इतनी दूर तक चली गई। जैसी आपकी बेटी वैसी ही मेरी बेटी भी तो है। कोई ग़ैर कहता तो अलग बात थी। ननद-भौजाई की ईर्ष्या भी अपनी जगह है; पर अपनी भतीजी के लिए ये भावना-दुर्भावना! कहाँ तक उचित है? वो अभी पैदा हुई है। जाने कितने दिन की आयु और उम्र है; ईश्वर जाने! . . . पर ये भाखा! भविष्यवाणी! क्या सोचूँ-समझूँ?” लाख भूलना चाह कर भी रागिनी के लिए भूलना असंभव हुआ।
हाँ, इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्री में स्त्री के प्रति ही प्रतिस्पर्धा जागृत होती है जिसे उभरने से वह चाहकर भी नहीं रोक सकती। बोली-व्यवहार से या कि विचार से चाहे वो किसी भी रूप में हो। इसे मानवीय दृष्टि से देखा जाए तो स्त्री-पुरुष सभी की जन्मजात स्वाभाविक प्रक्रिया है। मात्र अंतर इस बात की है कि पुरुष अपनी बुद्धिमानी और राजनीति से छिपाने में कमो-बेश सफल हो पाता है।
साफ़-सफ़ाई का भी एक अलग महत्त्व है पर इस बात के लिए अपनी शारीरिक क्षमता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। सासु माँ का काम, अपनी गँवई अंदाज़ में एक-एक सूई के नोक बराबर तक खोद-खोद कर सफ़ाई के नाम पर करना है। जो आसान तो बिलकुल नहीं होता। इतनी फ़ुर्सत और समर्पण बहुत टेढ़ी खीर है।
सफ़ाई अभियान के तहत जो भी था अनवरत क्रियाशील। रात को अलाव जलाकर कर बच्चियों की तेल मालिश और सेंकाई की जाती। नानी ही तेल मालिश नतनी की करे वही ठीक भी रहेगा इसलिए अपनी बेटी की मालिश स्वयं रागिनी करने का यथासंभव प्रयास करती। कभी-कभी दादी या फूआ कर देती जो रिश्ते की स्वीकार्यता रूप में करने की ख़ुशी होती।
छठीयारी के लिए द्वंद्व बना रहा; हो या ना हो? उधेड़-बुन में हाँ और ना; दोनों स्थिति घड़ी के पेंडुलम की तरह उद्वेलित करे। ख़ैर अभी इतना पैसा था रागिनी के पास कि वह अपनी बेटी की छठीयारी में ख़र्च कर सके। अंततः तय हुआ कि चलो किया जाए। बेटी हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है इसमें कोई संदेह नहीं जिसकी ख़ुशी अपनी सीमित बजट में मनानी ही चाहिए।
“बच्ची का मुंडन छठीयारी के दिन किया जाएगा!” सास के मुख से सुनकर एक माँ रूप में रागिनी सिहर उठी। “इतनी कोमल उसकी त्वचा है। कहीं छिल ना जाए? वैसे भी यह बच्ची हम-दोनों के लिए काशी विश्वनाथ के आशीर्वाद का ही फल है। तो कभी जाने पर वहीं मुंडन करा लेगी।” सोचकर उसने मना कर दिया।
सासु माँ ने इनकार करने की वजह पूछी, “कहीं किसी जगह की मन्नत तो नहीं?” सुनकर टालने के लिए “हाँ” बोल दी। सुनकर संतुष्ट हो कर सासु माँ ने एक मन्नत तत्क्षण माँग ली, “हे देवी माँ इसकी जोड़ी लगा देना। तुम्हारे दरबार में आकर सपरिवार ख़ूब धूमधाम से मुंडन कराएगा मेरा बेटा! . . .” अभी वो कुछ और बोलने वाली थी कि रागिनी ने बीच में टोकते हुए एक पूर्ण-विराम दिलवाया। कहीं उसकी सास! मन्नत माँगते-माँगते खस्सी-पठरू के बलि की बात धारा प्रवाह में ना कर बैठे। जो उन जैसी महिलाओं के लिए बहुत छोटी सी बात है।
“माँ एक बात सुन लीजिए मेरी! हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन है कि हमारे लिए कभी भी कोई, किसी प्राणी का बलि की बात नहीं होनी चाहिए। आजीवन फल, नारियल, मिठाई इनमें से कुछ भी चलेगा पर वो सब कुछ भी नहीं; जिसमें जीव-हत्या हो।”
सुनकर वह मौन हो गईं। और वहाँ से हट गई। एक ठंडी आह भरते हुए रागिनी ने अपना सिर पटक लिया, “लो फँसी अब एक और मुसीबत में।” एक रुपए ख़र्च कर लाख रुपये का ताना-व्यंग्य मारने वाली सास ने एक और कर्म-कांड के नाम पर बेटे को फँसा दिया।
सबका अपना-अपना एक स्वाभाविक गुण होता है। किसी की सीमित-लघु व्यवस्था भी फलीभूत होती है। पर कोई-कोई कितना भी सीमित प्रयास कर ले उसमें एक अलग विस्तार हो ही जाता है। बजट और व्यवस्था की सूची बनने लगी। एक-एक करके एक लम्बी लिस्ट तैयार। जोड़ते-जोड़ते बहुत कुछ छोड़ते हुए भी सौ से ऊपर तक के लोगों की उपस्थिति की सम्भावना बनी।
बाहरी किसी को भोजन प्रबंधन की व्यवस्था दी जाए; यह बात सासु माँ ने अस्वीकार कर दी। वो ख़ुद बनाएँगी, माँ-बेटी की उद्घोषणा हुई।
रागिनी ने राजीव से क़ीमती बिरयानी चावल मँगवाया। दाल-सब्ज़ी की विशिष्टता उस दिन मानी जाती है ही। रसगुल्ले के प्रबंध के बाद आज्ञा मिली कि मछली भी होनी ही चाहिए।
ये बात! पूर्णतः शाकाहारी रूप में बहू रागिनी के बातों-विचारों और सिद्धांतों के विरुद्ध थी। पर उसे राजीव ने सहमत कर लिया।
“सारी व्यवस्थाएँ मैं कर रहा हूँ पर मछली से संबंधित पूरा ख़र्च और काम बाबू जी के अनुसार होगा तो होने दो। इसमें हर्ज़ क्या है? तुम कुछ मत कहना; थोड़ा उन लोगों के हिसाब से भी होने दिया जाए।”
मछली लाकर रखने के बाद बच्ची के बाबा जो खा-पीकर टुन्न होकर बिछावन पकड़े सो कोई होश नहीं रहा कि घर में क्या हो रहा, या नहीं हो रहा? पूरे चौबीस घंटे के लिए शीत-निद्रा में चले गए। उस बीच कितना प्रयास किया गया जगा कर खिलाने का। पर नशे के उस कुंभकरणी नींद में कोई फ़ायदा नहीं।
उबलते पानी में चावल धोकर मिलाया ही था कि राजीव ने किसी के बारे में पूछा, “क्या उसे निमंत्रित किया है, माँ!” अकस्मात् याद आया कि इतने लोगों को बुलाने के बावजूद वह तो रह ही गयी।
जानकर, “झट से उसे निमंत्रित करके आओ माँ!” बेटे की आज्ञा सुनकर माँ, चावल मिलाकर दौड़ी। तब-तक में बिरयानी चावल का गीला होना स्वाभाविक था। दाल भी ग़ज़ब फीकी पनीयल पड़ गयी थी। जो सासु माँ, अपनी बहू के सामने, अपनी रसोई पाक कला का गुणगान करते नहीं थकती थी। रसोई प्रबंधन का रौब झाड़ती थी; बहुत बुरी तरह असफल हुईं। रागिनी ने, अपनी सासु माँ के हाथों का पूरे जीवन में उस दिन जितना बुरा खाना कभी नहीं खाया था। यदि कहा जाए तो अपमान माना जाएगा पर सच इसके अतिरिक्त नहीं।
रागिनी जो अन्नपूर्णा मान कर भोजन में भगवान मानती थी। बावजूद उस दिन ये सोच कर व्यथित हुई थी कि जिन गणमान्य अतिथियों को बुलाया है, जाने वो क्या अनुभव करते हुए जाएँगे? हे ईश्वर! सारा समय, परिश्रम और संसाधन व्यर्थ चला गया।
सोच-सोच कर ना चाहते हुए भी भरपूर आँसू फट पड़े। ख़ैर हो सके मछली के साथ खाने वाले सभी संतुष्ट हुए होंगे या नहीं? रागिनी के लिए ये तो अज्ञात रहा। अति उत्साहित कर्ता-धर्ता द्वारा जो जितना समझाया या दर्शाया गया था वो तो अति संतुष्ट थीं।
नौ दिनों से मात्र दाल-रोटी पर गुज़ारा करने के बाद इनाम क्या मिला? बेटी की छठीयारी के दिन . . .? आज बच्चे की तृप्ति का दिन है! इतना बुरा अनुभव? क्या संतुष्ट होगी मेरी बच्ची! विचारती, असंतुष्ट रह गई। रुँधे कंठ, किसी तरह अंशमात्र गीला भात-दाल और थोड़ी सब्ज़ी खाकर उठ गई। इस विचार से परे कि अपनी प्यारी बच्ची को वो रात भर में बिना खाए, क्या पिलाएगी?
एक भी रसगुल्ला प्रसूति को छूने नहीं दिया जाएगा। सासु माँ ने बेटे को चेतावनी देते हुए धमकाया, “पक जाएगा टाँका तो फिर मत कहना।” इतना तो कठोर नियम टाईप टू का ब्लड-शुगर मरीज़ रूप में ख़ुद के लिए पालन जिनसे नहीं होता। कुछ दिखा कर कुछ छिपा कर गटागट निगल लेंगी।
एक माँ रूप में ऑपरेशन के बाद भी बेटी को खिलाने से नहीं चूकी थी। उस समय पर बहू से जीवन भर का त्याग और बलिदान का भरपूर पालन करवाया गया था। आज माँ रूप में सोच कर तो भरपूर हँसी आती है।
आत्ममुग्ध सास और ननद तो अपनी ज़िम्मेदारियों से पूर्ण संतुष्ट थीं। अगले दिन से गाहे-बगाहे सारे प्रबंधन का मुक्तकंठ प्रशंसा गान माँ-बेटी में होता रहता।
इस परवाह से परे कि जिस बच्ची के लिए उसकी माँ ने इतना संघर्ष किया। कुछ त्याग-तपस्या रूप में कुछ उसका भी महत्त्व होना चाहिए। वह संतुष्ट हुई भी या नहीं?
बहू रूप में, कर्त्तव्यशीलता की ज्ञान देने वालों की कोई कमी नहीं। राह चलते हुए यूँ ही जिसमें अपनी कोई सोच और समझ ना हो वो भी बड़ा ज्ञानी-विशेषज्ञ बन कर चार बातें सुनाकर निकल जाएगा? पर बहू की अपनी कुछ सोच और आवश्यकताएँ हैं। जिनकी पूर्ति उसके क़रीबी रिश्ते-नातों की ज़िम्मेदारी है। समझते-समझते जान-ज़िंदगी और रिश्ता पूरी तरह कलुषित हो चुका रहता है।
विधि-विधान के नाम पर इतने दिनों में तीन बार पूरी तरह साफ़-सफ़ाई अभियान चलाया गया। एक-एक वस्तु की छील-छीलकर, मल-मल कर धुलाई की गई।
उन्नीसवें दिन तय किया गया कि प्रसूति के छूतके को अब समाप्त किया जाए। वैसे पोता होता तो बीस दिनों के उपरांत; एक्कीसवें दिन में माना जाता।
बहू रूप में माँ-बेटी की सेवा करते सास रूपी माँ-बेटी थक चुकी थीं। जिसे स्वीकार कर लिया था उन्होंने और उनकी प्रसूति रूप में रागिनी भी। इसमें तो कोई संदेह नहीं बचा था।
सासु माँ जो प्रसूति गृह में रागिनी के साथ ही सोती थीं। प्रसूति कक्ष से निकलने के बाद भी अपनी बहू-पोती के साथ सो कर बच्ची के देखभाल में अपना योगदान देंगी।
सुनकर रागिनी ने स्पष्ट किया हँसते हुए, “माँ, आपका बहुमूल्य योगदान पोती के लिए बहुत है। अब इससे ज़्यादा मैं आपका अहसान पचा नहीं सकती। अब आप अपनी बेटी और नातिन को समय दीजिए। आपकी पोती अब अपने पिता के साथ समय बिताना चाहती है। फिर तो उसके पिता अपने ट्रेनिंग में चले जाएँगें। आख़िरकार पिता को भी तो समय मिले बच्चे के साथ के लिए, जो एकाध महीने का समय है। फिर जाने छह महीने, लगे या एक साल! कौन जानता है?”
बहू की बातों को सुनकर सासु माँ को बेताबी लगी थी। रहस्यमयी और अनुभवी खिलाड़ी बनकर जिस पर वह ख़ूब हँसी थी।
तो स्कूल बंद करने के बाद से वह ढीले-ढाले सूट और साड़ी ब्लाऊज पहनावे-ओढ़ावे में छोड़ ही चुकी थी। बच्चे के सहूलियत के हिसाब से और कहीं नहीं आने-जाने से; लगभग नाइटी में ही काम चल जाता था। मातृत्व वशीभूत पहले के सारे कपड़े और ब्लाऊज छोटे पड़ गये थे।
किसी तरह ज़बरदस्ती ननद का ब्लाऊज पहनने में पूरा हाथ छिल गया था धूप से बचने के कारण शरीर का और भी गोरा रंग निखर आया था। जिसपर चर्चा आते-जाते सभी कर ही चुके थे।
बिना बच्चे की ज़िम्मेदारी के होना अलग बात है। उस समय अपने हिसाब से औरत चलती है। पर बच्चा होने के बाद स्त्री की दिनचर्या में बच्चा पूरी तरह हावी रहता है। बच्चे के हिसाब से सोना-जागना, खाना-पीना सब कुछ तय होने लगता है।
जिसे समझने-जानने के बावजूद सासु माँ को पहले वाली पूरी तरह क्रियाशील बहू चाहिए थी। जो फूलकुमारी होने के बावजूद, उत्साही थी। पर यह इच्छा अधूरी रह जाती थी। मदद तो उन्हें तब भी करनी पड़ती थी और अब भी करनी पड़ रही थी। नयापन इसमें कुछ भी नहीं था; मात्र स्वीकारने की सहजता की कमी थी। जो दोनों के बीच आ रही थी।
बीस दिन पूरे होने पर मायके से बुलावा आया। नानी, बच्ची को देखने के लिए इच्छुक थी। राजीव और सासु माँ से रागिनी इस बात की चर्चा की। पितृसत्तात्मक समाज में बहू का दायित्व मायके पर थोप कर परिवार निश्चिंत होना चाहता है। नानी घर से क्या मिला? मायके से क्या मिला का प्रश्न बड़ी बेशर्मी से उठा कर ससुराल पक्ष अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेना चाहता है। पोती रूप में दादी घर से कुछ मिलने की उम्मीद तो थी नहीं, इसलिए अपने पहले बच्चे पर शौक़ पूरा करने के लिए जल्द से जल्द अपनी बचत के पैसों से बच्ची के लिए चाँदी का कड़ा हाथ और पैरों के लिए बेड़ा लाने की बात की।
संभवतः 15 से 17 रुपए प्रति ग्राम चाँदी पर प्रतिक्रिया में सुनने को मिला, “बड़ी महँगी है चाँदी! बड़ी महँगी है चाँदी!”
अपने पहले के पुराने गहने देकर उन्हें नये में बदलवा कर ख़रीदवाया। तब जाकर नवजात को पहना सकी।
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