रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 41
रागिनी ने राजीव की महत्वाकांक्षा जान कर वादा किया, “अब से सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी ड्यूटी एवं प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए पढ़ाई पर ध्यान दीजिए। बाक़ी सभी घरेलू ज़िम्मेदारियों जैसे राशन, सब्ज़ी बाज़ार से लाने की सारी व्यवस्था मैं सँभाल लूँगी।” सुनकर राजीव हँसने लगा।
राजीव के अथक परिश्रम के एक-एक क़दम से परिचित होकर उसे मानसिक और भावनात्मक सहयोग कर रही थी। नौकरी में रहने के बावजूद राजीव अब फिर से नए बेहतरीन अवसर की तलाश में फ़ॉर्म भर कर, तैयारी करते हुए गाहे-बगाहे परीक्षा देने जाने लगा। अकेली माँ-बेटी वहाँ रहतीं। राजीव की अनुपस्थिति में रागिनी, करुणा के साथ बाज़ार जा कर अन्य आवश्यक सामग्री ले आती। तबीयत ख़राब होने पर स्थानीय अस्पताल में ले जाकर दिखा आती। डॉक्टर के निर्देशानुसार दवा ले आती।
हाँ, तो जिस रंगीन टीवी की बेहूदा और अनावश्यक चिंता उस मज़ाकिया मित्र ने जान-बूझकर उत्पन्न कर दी थी, उसका समाधान हो चुका था। परीक्षा के बाद लौटते हुए शुभचिंतक मित्र के यहाँ जाकर सही-सलामत टीवी को ले आया। जाने कब तक ट्रांसफ़र होगा? . . . चाहे जब भी हो! . . . सोच-विचार कर, आख़िर संसाधन रहने के बावजूद किस लिए तंगी हो? स्थानांतरण दो सप्ताह में होने वाला है, सुनते-सुनते अब तीन-चार महीने से ज़्यादा समय गुज़र चुके थे। अज्ञात सम्भावनाओं के साथ और जाने कितने महीने लगेंगे?
अब टीवी तो आ गया। पर केबल नेटवर्क के लिए लम्बा लिफ़ाफ़ा बैठ रहा था। स्थानीय प्रबंधक उपभोक्ता पर क़ीमती तार ख़रीद कर लगाने का दबाव डाल रहा था। इधर स्थानांतरण रूपी नंगी तलवार सिर पर लटक रही थी। ऐसे में बड़े बजट का केबल तार अपने ख़र्च पर लगा कर कौन फ़ालतू अपव्यय करे?
क्यों न डीवीडी प्लेयर से ही टीवी देखा जाए? सोच कर राजीव ने मंगलोर जाकर LG का डीवीडी प्लेयर ख़रीदा। उसके साथ डीवीडी सीडीज़ ख़रीदने का अनवरत क्रम थमने का नाम नहीं ले रहा था। प्रारंभिक रूप में तीन डीवीडी सीडी लाया। जिसमें अमिताभ बच्चन की ‘भूतनाथ’ फ़िल्म भी थी।
आते के साथ डीवीडी प्लेयर पर फ़िल्म भूतनाथ की सीडी लगी तो बेटी ऐसी खोई कि लगातार तीन बार देखने के बावजूद भी संतुष्ट नहीं हो पा रही थी। और . . . और . . . और करती हुई रात के बारह-एक बजे तक जगी देखती रही। टीवी बंद करने के नाम पर रोना-धोना आरम्भ कर देती। अंततः बहुत समझा-बुझाकर कर टीवी बंद कर सोने के लिए तैयार किया गया।
सोकर उठने के बाद भी भूतनाथ! . . . चौबीसों घण्टे भूतनाथ! . . . खाते-खेलते भूतनाथ! अब वह अक्षता-अक्षिता, सीमा-नीमा को तंग करना छोड़ चुकी थी।
बंकू और भूतनाथ का प्यारा भूत! करुणा के दिल-दिमाग़ को बहुत बुरी तरह प्रभावित कर रहा था। उसका एक-एक संवाद और गाना वह रट चुकी थी। जब तक प्रतिष्ठित कंपनी की ऑरिजिनल सीडी में जान बची थी; तब-तक की हद तक वह फ़िल्म, बात-विचार, ढाई साल की बच्ची की दिनचर्या में शामिल रहता। अमिताभ बच्चन का पूर्ण व्यक्तित्व उसके लिए एकमात्र भूतनाथ के चरित्र में सिमट कर रह गया था। बहुत ख़ुश होकर कहती, “वो देखो भूतनाथ!”
दो सप्ताह के लिए बाहर जाने के कारण मिले बदलाव से इस लत को बहुत मुश्किल से कहीं छुड़ाया जा सका था। जिसमें त्रिवेंद्रम और कन्याकुमारी यात्रा थी।
अब इसके बदले में हिंदी वर्णमाला, कविताओं-कहानियों, पहाड़े एवं अंग्रेज़ी के प्रारंभिक ज्ञान-विशेष से संबंधित सीडियाँ लाकर गीतों के माध्यम से दिखाया जाने लगा।
यहाँ रहने के क्रम में ही दूर्गा-पूजा के बाद रागिनी की छोटी बहन के पास केरल की राजधानी त्रिवेंद्रम जाने की योजना बनी।
“सबके घर से लोग आएँ हैं। आकर अपनी बेटी को देखने के बहाने यहाँ के विभागीय लोगों में एक विश्वसनीयता जता गए। पर मेरे घर से ही कोई नहीं आया। यहाँ के लोग रोज़ाना सवाल करते हैं—तुम्हारे घर से लोग कब आएँगे? तुम ही आ जाओ न। तुम तो इधर ही रहती हो।” जो बार-बार बुला रही थी।
पालघाट में रहने के दरम्यान ही वह जब अपनी ट्रेनिंग पूरी करके पहली बार त्रिवेंद्रम जा रही थी तो रास्ते में मिली थी।
जिसमें उसके साथ लगभग सौ लोगों का विभागीय समूह था। उनमें से सिर्फ़ एक की कोई रिश्तेदार मिली यह बात अविश्वसनीय मान कर सारी सहेलियाँ अभिभूत व आश्चर्यचकित थीं। जितने लोग . . . उतने विचार ”इस अनजानी जगह पर इतना दूर किसी का सगा क्या करने आएगा यहाँ? . . . ये दोनों सगी बहनें नहीं हो सकती . . . कोई दूर की रिश्तेदार होंगी।”
ट्रेन में ही पारिवारिक फोटो अलबम, देखकर दोनों का रक्त-संबंध पर विश्वास कर सकी हीं। छाँट कर अलग से रखी गई वस्तुओं में से निकाल कर अपना सामान हल्का करने के उद्देश्य और जाने कब तक छुट्टी मिल पाएगी तय कर पाना मुश्किल है। इसलिए ये सब तुम ही घर लेती जाना। घर के प्रत्येक सदस्य के लिए कपड़े एवं अन्य वस्तुओं को ले जाने के लिए दे रही थी।
सभी के उदास चेहरों पर विचित्र संतुष्टि भाव उभर आया था . . . सचमुच कितने महीनों के बाद घर का बना खाना मिला था . . . अपनी छोटी बहन की पसंदीदा व्यंजन निर्देशानुसार रागिनी बना कर ले गई थी। जो मिल बाँट कर सभी ने खाया था। राजीव के बहुत यत्न करने पर पूरे दिन की छुट्टी लेकर लगभग डेढ़ घण्टे के लिए ही तो दोनों बहनें मिल पाई थीं। उसके बाद वो अपने कर्म-क्षेत्र की यात्रा में आगे बढ़ गई थी।
उसके बाद तो मिले हुए ये एक लम्बा अंतराल हो चुका है। छोटी बहन जिसका निरंतर दबाव डाल रही थी। और अब कितना प्रयास करके छुट्टी, और अपनी व्यवस्थागत ज़िम्मेदारियों को पूरा कर के जाने की योजना बनाई गई थी।
उन्हीं दिनों में नवरात्र कलश स्थापना की उषाकाल में राघव और रानी की पहली संतान बेटी रूप में उत्पन्न हुई। एक ही दिन, एक ही समय पर मात्र आधे घण्टे के अंतराल में रागिनी की देवरानी को बेटी और घनिष्ट सहेली को तीसरे संतान रूप में दो बेटियों के बाद, बेटा हुआ था।
नवजात बेटी की छठीयारी हुई ही थी कि पता चला सासु माँ के मँझला भाई लम्बी बीमारी से परलोक वासी हो गये। अब इस विषम परिस्थिति में प्रसूति माँ और नवजात शिशु को अब अपनी बेटी के भरोसे छोड़ कर मायके चली गई। मुख्य भूमिका में तो ननद ही रहीं और आंशिक रूप में बड़ी बहू भी वहीं थी। कहाँ तो आई थीं भतीजे की बधाई की उम्मीद में . . . पर ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था।
इकलौतियों के आसपास बेटियों की भरमार हो रही थी। दुलार और प्यार बाँट कर दहेज़ की व्यवस्था की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी। पता नहीं ये क्या माना जाए? वरदान . . . या अभिशाप? . . . भतीजों के फ़ौज के बदले भतीजियों की भरमार? . . . जाने ये किसकी सज़ा थी? . . . दादी की? . . . फूआ की? . . . जो बहुत ही ज़्यादा एक बेटी! एक बेटी! . . . एक बेटी! . . . की दुहाई देकर, झूठा गुमान और अभिमान लिए रहती थी। चकनाचूर करने के लिए संयोग बन कर या जेठानी रूप में बेटे की माँ होने का अभिमान पाले स्त्री के ईर्ष्याखोरी के फलीभूत होने का सुनहरा अवसर? जो भी था, सभी के लिए एक शानदार अनुभव था।
वो तो बहुत अच्छा था कि रागिनी वहाँ से निकल आई थी वरना सासु माँ रागिनी पर इसका बेतुका आरोप लगा देती। तो कोई आश्चर्य नहीं होता?
सबसे बड़ा झटका एक घटना रूप में घटित हुआ था कि जो ननद अपने भतीजे को खेलाने का नेगचार के प्रबंध की आस में थीं, भतीजी होने से उसका मन छोटा हो गया था। पोता जो होता कहीं तो यहाँ भी ये श्रेय उस बच्चे के माता-पिता से ज़्यादा फूआ को ही दादी दे देतीं . . . तो कहकर, . . .”ऐ दीदी हमारी बेटी सँभालने आई है इसलिए बेटा हुआ है।”
छठ-घाट से लौटने के बाद पता चला कि श्वेता के गले से सोने का चेन ग़ायब है। वह चेन! जो पिता के दिए दहेज़ की राशि में से अन्य ज़ेवर गहनों में से एक, ससुराल वालों द्वारा मंडप में चढ़ाई गयी थी। पूरे परिवार की प्रतिष्ठा का सवाल था। ससुराल में मायके की छवि क्या बनती? पूरा हल्ला मचा। जो कि स्वाभाविक भी था।
इधर यहाँ ड्यूटी में भी राजीव कुछ वैधानिक परेशानियों से गुज़र रहा था। जिसकी कोई बात घर तक ना भेज कर दोनों वहीं आपस में ही ख़ुद तक सीमित रख रहे थे। वैसे में ही और एक नया झमेला! जिसके लिए कम से कम कोई तैयार नहीं था।
राजीव को यहाँ मिसकॉल आया। हाँ, तो उन दिनों प्यार और अधिकार जताने का एक नया प्रचलन प्रारम्भ हुआ था। एक छोटी सी टुइयाँ मारना ताकि कोई फोन न उठा ले। यह टुइयाँ भी बड़ा विजित भाव प्रतीत करवाता था। कुछ चिढ़े-ऊबे लोग जान-बूझकर कर उठा भी लेते थे। यहाँ कमाऊ बेटा के होते मोबाइल रिचार्ज पर ख़र्च करना नालायक़ बेटा का सस्ता वाला कलंक था। आठ हज़ार के वेतन में बेटा हज़ार-बारह सौ का भी रिचार्ज करवा लेता ताकि सस्ता दर पड़ सके। रिलायंस उन्हीं दिनों आया था जो किसी विशेष दर पर ग्यारह बजे रात से सुबह के संभवतः पाँच बजे तक रिलायंस से रिलायंस संपर्क बिलकुल मुफ़्त था। यह आरंभिक दौर था। फिर उसके बाद दिन में भी हुआ। पर अन्तर्राज्यीय सीमा के विस्तार पर राजीव के रिश्तेदारी वाली सूची में यह मुफ़्त वाली सीमा नहीं अटती थी इसलिए उन्होंने एयरटेल का सिम रखा था।
तो हमेशा की तरह वापसी कॉल करने पर, रोती हुई माता और बहन की आवाज़ आई . . . ज्यों घर का कोई सदस्य अकस्मात् मर गया हो। प्रारंभिक सम्भावना तो यही लगी।
“देख ना बेटा! . . . श्वेता बिछावन पकड़ ली है वो रोती जा रही है . . . कितना समझा रही हूँ कि उसका भाई राजा आदमी है . . . जल्दी से जल्दी ख़रीद कर दे देगा। पर वह समझ ही नहीं रही . . . ज़रा समझा दे बेटा!”
“भैया! . . .भैया! . . . भैया!” कहकर मात्र रुदन के अतिरिक्त और कोई बात नहीं उभर रहा था। फिर टुकड़ों-टुकड़ों में जानकारी इकट्ठी हुई। जाने कितने देर तक में, कुछ समझ में आया कि श्वेता का चेन कहीं खो गया है।
बिछावन पर लौकेट मिला . . . तो चेन ग़ायब कहाँ होगा? . . . घर में श्वेता की माँ और बड़ी-छोटी भौजाइयों की उपस्थिति में ये कांड घटित हुआ था . . . चेन कौन लिया? आख़िर गिरा भी तो कब और कहाँ गिरा?
ऐसे कैसे हो सकता है कि लॉकेट घर में रहेगा और चेन बाहर? अनेकों यक्ष प्रश्न अनुत्तरित रूप में उभरे . . . जिनका जवाब नहीं मिल पा रहा था। “काश कल तक मिल जाए घर में ही” रोज़ाना इस प्रार्थना के साथ रागिनी सोती। ‘श्वेता का चेन और सबके मन का चैन’ जो खोया था सो खोया ही रहा। दिन बढ़ती बेचैनियों के साथ गुज़रते गए। पर कल मिला ना आज। तो यहाँ राजीव और रागिनी के लिए ये भरपूर सदमा था।
शीघ्र-अतिशीघ्र अब उस चेन की क्षतिपूर्ति आधी-आधी राजीव और राघव को करनी थी। लगभग एक से दो महीने तक का सदमा मंजेश्वरम के उस छोटे से घर में रहने वाले पति-पत्नी के दिल-दिमाग़ के साथ दैनिक दिनचर्या पर हावी रहा। सचमुच दोनों का ख़ून सूख गया था। बहुत तेज़ी से विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी का प्रभाव बन कर सोने का मूल्य दस हज़ार से ग्यारह हुआ था . . . और फिर तेरह . . . अकस्मात् सोलह हज़ार रुपए प्रति दस ग्राम पर पहुँचा था।
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