रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 10स्कूल में भी एक से एक चुनौतियाँ थीं जो कभी विद्यार्थियों के द्वारा मिलतीं तो कभी प्रबंधन के तरफ़ से, कभी सहकर्मियों के तरफ़ से जिसके कारण अपने आप में वह चिड़चिड़ापन, घबराहट, अस्त-व्यस्त महसूस करती। बावज़ूद यथासंभव प्रयास के साथ, सब सँभालते हुए घर-गृहस्थी, स्कूली कक्षा और अनवरत सब जारी रखा। स्कूली परीक्षाओं के साथ, अपनी गर्भावस्था और फिर अपनी भी परीक्षा की तैयारियों का दुर्भेदी लक्ष्य था। जो मन-मानसिकता के साथ, सामाजिक और पारिवारिक परीक्षण भी था। आगे बढ़ने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ रहकर चुनौती स्वीकार करती।
रागिनी की अस्त-व्यस्तता से खीझ कर राजीव भी अस्थिरता में व्यंग्यात्मक टिप्पणी कभी-कभार कर बैठता, “क्या करोगी पढ़-लिख कर? ये देखो मेरी माँ-भाभी और अन्य महिलाएँ जो पढ़ी-लिखी नहीं हैं, तो क्या वह सुखी नहीं हैं? कई चुनाव हैं तुम्हारे पास। जिसका निर्णय तुम्हें करना है। जिन परिस्थितियों में हो, उन्हीं में रह कर अभ्यस्त हो जाओ! . . . या संघर्ष करो! पर, इसके लिए मुझे ज़िम्मेदार बना कर आरोपित कर परेशान मत करो। इससे ज़्यादा मैं तुम्हारी मदद कर भी नहीं सकता। अपनी स्थितियों-परिस्थितियों से मैं ख़ुद ही परेशान हूँ और ऐसे में तुम . . . अपने दुखड़े से और मुश्किलें मत बढ़ाओ।”
परीक्षा नज़दीक आने पर उसने विचार किया कि क्यों नहीं अपनी जेठानी की मदद ली जाए? वो मानेंगी तो भी ठीक, नहीं मानेंगी तो भी ठीक। आख़िरकार पूछने में क्या जाता है? वो बड़ी हैं। मैं छोटी हूँ। मुझे ज़रूरत है। जहाँ परीक्षा की घड़ी में एक-एक मिनट महत्त्वपूर्ण होता है। यहाँ तो कुछ घंटों की बात है। फ़ालतू का अभिमान त्याग कर, पूछ लेती हूँ।
“भाभी कल मेरी परीक्षा है। क्या आप रात की रसोई बना दीजिएगा?” अपनी सारी शंका-कुशंकाओं को झुठलाती, मुस्कुराती हुई रागिनी ने पूछा। रागिनी का अपनी पढ़ाई के प्रति पूर्ण समर्पित भाव किसी से छिपा नहीं रह गया था।
पता नहीं क्या सोचकर? पर जो भी रहा हो, जेठानी ने स्वीकार कर लिया। रसोईघर में बिना किसी तूफ़ान के रात की रसोई बनी। नहीं, तो जाने कितनी बाधक अप्रत्याशित-परिस्थितियाँ, सुख-चैन लूटने के लिए आतुर रहती हैं।
रागिनी को कुछ घंटों के लिए निर्विघ्न पुनरावृत्ति का समय मिला। बहुत नहीं, तो कुछ सही। सोचती हुई रागिनी ने मन ही मन ईश्वर और जेठानी को धन्यवाद दिया। इसी तरह नंगी तलवार के धार पर चलने जैसी एक-एक करके परीक्षा पूरी हो रही थी।
पड़ोस में रहने वाले एक गोतिया से घरेलू मामलों में विवाद के कारण . . . बकझक!
. . . फिर कब हाथापाई में परिवर्तित हो गया कि कोई समझ ही नहीं पाया। घर के पूरे एकांत में रागिनी पढ़ने में व्यस्त ही थी कि पड़ोस की कोई बच्ची बहुत तेज़ क़दमों से भागती हुई आकर कहती है, “भाभी जल्दी चलिए। बड़ी भाभी उस बग़ल वाली बुढ़िया से मार-पीट, पटका-पटकी में व्यस्त है। बहुत बुरे ढंग से हंगामा मचा रखी है। कोई उनको सँभाल नहीं पा रहा है। आप ही रोक सकती हैं उनको।” सुनकर पेट का बच्चा सँभालती बेतहाशा दौड़ी।
वैसे इस तरह की घटनाएँ कोई नई बात नहीं थी। हर समाज और परिवार में इस प्रकार का मनोरंजन करने वाला कोई न कोई मौज़ूद रहता ही है। जिसकी बहादुरी या दबंगई के क़िस्से लोगों का मनोरंजन करते ही रहते हैं। कुछ बातें सच्ची-झूठी मिलावट के साथ, उन बातों में मज़ा लेने और रोमांचक बनाने में माहिर व्यक्तित्व हैं–जेठानी जी! . . . सम्पूर्ण मौखिक सक्षम! वाद-विवाद, झगड़ा-पुराण विशेषज्ञ, गाली-गलौज में सिद्ध हस्त। पर ये WWF की उम्मीद तो बिलकुल भी नहीं थी।
उस वृद्धा और जेठानी का मुठभेड़ यही कोई उन्नीस-बीस के मुक़ाबले जैसा था। दोनों दुष्टता में बराबरी पर थीं। जिसे आग लगाने वालों और उकसाने वालों की कोई कमी नहीं थी। तमाशा देखने की चाहत रखने वालों की भरपूर संख्या, बहुमत में थी। वो जाने कितनी लालसा पाले हुए थे कि गृह विभाजनकारी राजनीति में लपेट रागिनी को भी उलझा कर रखा जाए। पर, वह सब कुछ देखते-समझते हुए, अनदेखा करते हुए, पढ़ाई में व्यस्त रहते हुए, तटस्थ नीति अपनाते हुए, अवांछित स्थिति-परिस्थितियों से बचती-बचाती हुई ख़ुद को सँभाल रही थी। जिस लड़ाई-झगड़े की आदत भी नहीं थी उसे। अपने काम से काम रखने वाली थी वह!
बावजूद सामाजिकता निर्वाह के लिए कुछ सीमाएँ आवश्यक हैं। जिनके लिए यह हस्तक्षेप ज़रूरी था। धूल-धूसरित देखकर आकलन करना मुश्किल नहीं था कि अब तक में वहाँ क्या घटित हो चुका था?
क्षणिक संवेदनशीलता सोचते-समझते हुए तात्कालिक निर्णय लेते हुए, छुड़ाते हुए बोली, “अरे ये क्या हो रहा है?”
कहती हुई रागिनी, जेठानी के दोनों हाथों में से ज़बरदस्त खिंचते हुए भरपूर बालों को छुड़ा, आज़ाद करने लगी। उसके पहुँचने पर मूक दर्शकों में जोश आया जिससे उस वृद्धा को अलग किया जा सका।
दोनों के हिंसक प्रदर्शन का, फटे कपड़े प्रत्यक्ष गवाह थे। चोट लगे हिस्से पर मरहम-पट्टी लगा, पानी पिला कर मामले को ठंडा करना, आसान भी नहीं था पर ऐसे छोड़ा भी नहीं जा सकता था। दोनों को बारी-बारी से समझाया गया। वह वृद्धा जिसकी साड़ी-ब्लाउज फटेहाल थे, वह दिखाने पुलिस स्टेशन जा रही है, की धमकी देने लगी।
“थाने जाकर रपट लिखवाऊँगी! जेल कराऊँगी! मार-पीट का गवाह ये सब हैं ही,” पराजित वृद्धा ने क़दम बढ़ाते हुए, अपना आख़िरी दाँव लगाया।
साम-दाम-दण्ड-भेद अपनाते हुए स्थिति-परिस्थितियों की जटिलता सँभालने के लिए दोनों को शान्त किया गया। जिसके कारण बहुत देर तक दिल-दिमाग़ से रागिनी ख़ुद में असहज और असंतुलित अनुभव कर रही थी।
कुछ दिनों के लिए राजीव, आगे की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए बाहर गए हुए थे। ख़ैर इतना समय भी नहीं था कि फ़ालतू के उलझनों में ख़ुद को उलझाया जा सके। जबकि उसके लिए एक-एक पल, फिर ना मिलेगा दुबारा जैसा था।
सब ठीक है! सब ठीक है! विचारती हुई ख़ुद को ढाढ़स बँधाते, सँभालने का प्रयास करने लगी। ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से साँस खींचती और छोड़ने लगी। जिसमें प्रयास करने पर सफल भी रही।
आख़िरी पेपर दो से पाँच बजे तक था। और शाम की ट्रेन से लौटने में रात हो जाती थी। नवंबर-दिसंबर की सर्दियों में वैसे भी सूर्यास्त जल्दी हो जाता है। बाज़ार पार कर लगभग एक किलोमीटर की दूरी, अँधेरे में व्याप्त थी।
गर्मियों में दस से ग्यारह बजे देर रात तक गुलज़ार रहने वाली सड़कें वीरान पड़ी थीं। सर्द हवाओं के प्रभाव से सभी जल्दी ही अपने-अपने घरों में दुबके पड़े थे।
मुहल्ले में बिजली गुल देखकर भयभीत, घनघोर अमावस्या के अँधेरे में अंदाज़न टटोलती, पैर बढ़ाती रागिनी उबड़-खाबड़ सड़क पर चल रही थी।
बातों में व्यस्त जाने कब राजीव अपने पुरुषत्व चाल में चलता हुआ उससे कुछ क़दम आगे बढ़ गया। विचारों में मग्न, जाने किस धुन में, वो ख़ुद भी नहीं जानता! ऐसे में अकस्मात् धड़ाम की आवाज़ पर राजीव की तंद्रा भग्न हुई और रागिनी की ओर वह पीछे दौड़ा तेज़ी से पुकारता हुआ, “रागिनी . . .!”
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