रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 32

 

कौन माता-पिता नहीं चाहेंगे कि बच्चे उनके आसपास रहें। यही सोच कर, मोह तो रागिनी के माता-पिता में भी रहता पर रागिनी अब विवाहिता थी। इस रूप में माता-पिता पर किसी भी प्रकार का बोझ या अनावश्यक दबाव-तनाव देने के पक्ष में नहीं थी। जिसके लिए हमेशा सावधान रहती। 

पिता नौकरी करते हैं और मैं नौकरी वाले परिवार की बेटी-बहन हूँ तो इसका मतलब ये थोड़े ही है कि आजीवन अपना बोझ डाल कर हैरान-परेशान करूँ? जैसे अन्य विवाहिता बेटियांँ करती हैं। 

पर ये रागिनी का स्वाभिमान औरों की समझ के परे था। करुणा के जन्म के पहले ही रागिनी की माँ ने पच्चीस हज़ार रुपए निकाल कर दे दिए थे कि कहीं बच्चे के जन्म में ऑपरेशन की नौबत आ गई तो? पर रागिनी ने विनम्रतापूर्वक कहा कि यहीं पर रहने दीजिए, आकस्मिक आवश्यकता यदि पड़ी, तभी लूँगी वरना इसकी कोई ज़रूरत नहीं होगी। राजीव से जब इस विषय पर चर्चा की, तो राजीव ने भी रागिनी का पूर्ण समर्थन किया। 

ईश्वर की कृपा से उसकी कोई नौबत ही नहीं आई। एक बात तो तय थी कि रागिनी को कुछ भी मायके से मिला जानकर ननद का लालच बढ़ता जाता कि उन्हें भी मिलना चाहिए। मायके से रागिनी जब कुछ नहीं लेती तो सास की दृष्टि में वही भावना कि इकलौती बेटी को ज़्यादा मान-आदर मिलता है। जिसकी अधिकारिणी तुम नहीं हो। मतलब किसी बात में सुख-चैन नहीं। 

देवरानी-जेठानी की गुटबंदी से तटस्थ रहने की कोशिश में रागिनी किसी तरह रह रही थी। माता से पत्नी की चुग़ली और पत्नी से घर की बातें सुन-समझ कर अन्ततः राजीव ने एक निर्णय लिया। कुछ महीने की ट्रेनिंग में, एक जगह रहने का अवसर मिलने पर रागिनी को ले जाने का फ़ैसला किया। जिसके लिए जाने कितना विचार-विमर्श और आत्म मंथन-चिंतन करते हुए बीता। जीवन के सबसे कठोर फ़ैसले में से ये एक था। 

“माता-पिता क्या सोचेंगे? . . . लोग क्या कहेंगे? बेटी कैसे रहेगी? . . . उसका शारीरिक और मानसिक क्या प्रभाव पड़ेगा? अनजाने जगह पर रागिनी अपनों से दूर कैसे रहेगी? ट्रेनिंग में रहते हुए कैसे सम्भव होगा? . . . अब तक नहीं किया है। कैसे कर पाऊँगा? . . . यहाँ के मौसम और जलवायु में दोनों पूरी सहजता से रह पाएँगी भी या नहीं? . . .। पहली बार स्वतंत्र गृहस्थी की शुरूआत कब-कैसे करूँ?” 

हज़ार सवालों के चक्रव्यूह में घिरा ख़ुद को अभिमन्यु-सा प्रतीत हो रहा था। अंततः दिमाग़ी उलझनों से निकल कर; रागिनी को आश्वस्त कर, धीरे-धीरे गृहस्थी की संक्षिप्त व्यवस्था करने लगा। माँ और बेटी के स्वास्थ्य का विचार कर जब पानी फ़िल्टर और फ़ोल्डिंग खटिया ख़रीदने लगा तब ज़बरदस्ती दोस्तों से सलाह मिली, “जहाँ छोटी-मोटी व्यवस्थाएँ कर रहे हो तो भाभी के मनोरंजन के लिए रंगीन टी.वी. भी ले लो। नहीं तो तुम्हारी कंजूसी देखकर, कहीं भाग न जाए?” इस तरह गृहस्थी की छोटी-सी दुनिया में बीपीएल का बड़ा टी.वी. भी जुड़ गया। 

हाँ, तो पुरुष राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण और भला क्या होगा? अब राजीव अपनी माँ से कैसे कहे, कि रागिनी को मैं अपने पास लाना चाह रहा हूँ। अपनी माँ के स्वभाव से पूर्णतः परिचित होने के बावजूद जब और कुछ समझ नहीं आया तो सारा बिल रागिनी पर फोड़ता हुआ बातें घूमाकर बोला, “माँ रागिनी मेरे साथ घूमना चाहती है। मैं क्या करूँ?” 

बहू के सामने कड़वा-कठोर सब कुछ उगल देने वाली माँ को तो कमाने वाले बेटे पास अपना अच्छा बर्ताव भी दिखाना हैं। माँ, बेटे के सामने और क्या कह सकती हैं? अकस्मात् उभरे तूफ़ान को सँभाल कर बोली, “तुम जानो, गले का ढोल बनाकर कहाँ-कहाँ उसे लेकर जाओगे? अभी ट्रेनिंग में क्यों परेशान हो रहे हो बेटा? साथ में नन्ही बेटी भी है। बड़ी तकलीफ़ होगी। तुम दोनों के पास साथ रहने के लिए पूरी ज़िन्दगी तो बाक़ी है।” अपने मन की कटुता दबाती हुई बोली थी। 

बेटे की बात ‘बहू घूमने दक्षिण भारत जाना चाहती है’ एक पारंपरिक सास जानकर ऐसे ही कैसे पचा लेगी? सासु माँ दाँत कींचती हुई बरस पड़ी थी बहू पर, “मेरे बेटे को चैन से ट्रेनिंग भी लेने नहीं देती ये औरत! उसके दिल-दिमाग़ पर जब देखो चढ़ी रहती है। इसके कारण ही वह सुख-चैन से नहीं जी पाता। हद निर्लज्ज औरत है ये! ससुराल का सुख-चैन नहीं भा रहा महारानी को।”

कड़वा घूँट सास से मिलने पर रागिनी का चिढ़ना अनुभव कर, राजीव ने मस्ती करते हुए कहा, “माँ ने जो कुछ भी कहा, तो क्या हुआ? कोई बात नहीं। माँ के डाँटने की क़ीमत पर तुम्हें लेकर भी तो आऊँगा।”

रागिनी के जाने की बात से सासु माँ की भावनाएँ पिघलने लगीं। आसपास के लोगों और रागिनी के समक्ष, बार-बार एक ही बात दुहराती हुई भावनात्मक सहानुभूति प्रकट करतीं। 

“इतनी छोटी बच्ची है। कैसे अकेली सँभलेगी? यहाँ पर कितना अच्छा है? यहाँ सुख-दुःख के लिए भरा-पूरा परिवार है। वहाँ जान न पहचान, जाने कैसे मन लगेगा? जाने कैसे यह सँभालेगी?” 

जेठानी को तो ना कुछ करना, ना धरना था। पर अपने शैतानी दिमाग़ का कुछ तो इस्तेमाल करना था। इसलिए अपनी कूटनीति का प्रयोग रागिनी और देवरानी को मोहरा बना कर करती। 

प्रारंभिक चरण में ही इधर शाम होते-होते जेठानी के उकसाने-भड़काने पर देवरानी, रानी सो जाती। यथासंभव काम समेटने के बावजूद गृहस्थी में कुछ ना कुछ लगा ही रहता है। रागिनी की अनुपस्थिति में रानी को कोई काम करते देख कर बहकाती हुई; “रहने दो . . . तुम क्यों कर रही? . . . करेंगी नहीं, महारानी!”

धैर्य और ज़िम्मेदारियों को समझकर हमेशा की तरह संयमित रहती। घरेलू राजनीति देखकर यह विचार कर, “मज़ा तो आएगा, कबाब की हड्डी रूप में जब तुम दोनों के बीच से मैं हट जाऊँगी। तब एक-दूसरे से आमने-सामने आर-पार की प्रत्यक्ष प्रतियोगिता होगी।”

देवरानी सो गई है देखकर-समझकर, सहज स्वाभाविक मान कर, जाकर रागिनी शाम का खाना बना लेती। ऐसा ही लगातार होने लगा। सोती बहू को जगाने सासु माँ रागिनी को भेजना चाहती। जिस पर रागिनी ने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया, संयमित स्वर में रागिनी ने सास को समझाया।

“जितने देर में जगाने जाऊँगी। उससे अच्छा है, आराम से शांतिपूर्वक बना लूँगी।” वैसे भी घर में यथासंभव शान्ति बनी रहे। इससे ज़्यादा और क्या चाहिए? विचार करती हुई अपना काम निपटा लेती। 

एक अन्य कारण भी था। वास्तव में सोई हुई देवरानी को नींद से जगाना बहुत कठिन काम था। एक तो कुछ भी हो जाए, उठती नहीं थी। नींद की अवस्था में अपने शरीर या किसी भी तरह आकस्मिक स्थिति-परिस्थितियों से कोई लेना-देना नहीं रहता। बहुत ज़्यादा गहरी नींद और बेसुध अवस्था में सोती। अचानक जगाने पर हड़बड़ाहट में किसी के ऊपर कूद जाती। जो और भी ख़तरनाक परिस्थिति हो सकती थी। 

एक शाम को मौसम में बदलाव के कारण बुख़ार के साथ, रागिनी की आँखें बहुत लाल थीं। हमेशा की तरह समयानुसार शाम को खाना बनाने के समय पर देवरानी सोई हुई थी। रागिनी को जगाने की ज़िम्मेदारी मिली। वह उठकर नीचे आ गई और सब्ज़ी काट कर, मसाले पीस दिए, आटा गूँथ दिया और कोयले के चूल्हे पर खाना बनाने की तैयारी करने लगी। सासु माँ ने रागिनी की अस्वस्थता देखकर रसोई से ज़बरदस्ती हटा दिया। अपने कमरे में जाकर आराम करने के लिए कहा। 

सास पहले जेठानी पास दौड़ी गई। पर वहाँ से टाल-मटोल देख कर, देवरानी को जगाने लगी। अब जगाने में, फिर वही हुआ जिसका डर रागिनी को होता था। घर में तनाव का माहौल व्याप्त हो गया। रागिनी के विरुद्ध दोनों तमतमाहट में विरोध प्रदर्शन पर थीं। देवरानी-जेठानी की बुलंद एकता जिंदाबाद! और पहली बार सासु माँ, रागिनी के पक्ष में बोले जा रही थीं। 

राजीव के आने पर, मायके से माता की तरफ़ से और भी बहुत-सी गृहस्थी की व्यवस्था के साथ, नियमित समय पर बड़ों की बहुत सारी नसीहतें लेकर, चंचल करुणा को गोद लिए ससुराल की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी रागिनी, कुछ दिनों या महीनों के लिए निकल गई। जिससे अब तक सभी को समस्याएँ थीं। उसके चले जाने पर फोन पर देवरानी-जेठानी की महाभारत वाली कहानियों की अनवरत शृंखला चलती रही। 

समयानुसार बहुत सारी यादें, कच्ची-पक्की अनुभवी अहसास लिए हुए चार महीनों बाद लौट रही थी। बेटी के साथ अकेली निकलने का निर्णय आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए रागिनी का अपना था। जब राजीव ने कहा था, “चलो एक सप्ताह की छुट्टी लेकर तुम्हें पहुँचा आता हूँ। वैसे भी उस सहकर्मी की बीमारी की वजह से मेरी छुट्टी बर्बाद हुई है। इसके बाद समय नहीं मिल पाएगा।”

सुनकर, “आने-जाने में समय कौन बर्बाद करेगा? मैं एक सप्ताह बाद के विशेष दिन की ख़ुशी आपके साथ बिताने के लिए अकेली जाने के लिए तैयार हूँ। निश्चिंत होकर मेरा रिज़र्वेशन करा दीजिए।”

राजीव, रागिनी के बढ़े हुए आत्मविश्वास को देखकर आश्चर्यचकित था, “क्या सचमुच? तुम अकेली चली जाओगी या मज़ाक कर रही हो?” 

“अरे बाबा, आप रिज़र्वेशन तो करा दीजिए बस एक दूसरे का ख़्याल रखती हुई हम दोनों माँ-बेटी चली जाएँगी,” पूर्णतया आश्वस्त करती हुई मुस्कुराती रागिनी ने कहा था। 

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